राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप की तैयारी करते हुए आप पार्टी मुश्किल सवालों से बच नहीं सकती है
हैरानी की बात नहीं है कि राजधानियों से लेकर जिले की सड़कों पर दौड़ती लाल बत्ती लगी लाखों की फार्चुनर, प्राडो, स्कार्पियो, बोलेरो गाड़ियों में सबसे अधिक नेता-ठेकेदार-अपराधी और अफसर मिलेंगे. सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि अधिकांश जिलों में नेता-ठेकेदार-अपराधी के बीच की विभाजन रेखा कब की खत्म हो चुकी है. राजनीतिक कार्यकर्ता का मतलब थाने और अफसरों की दलाली हो गया है.
इसके अलावा जैसे कांग्रेस-सपा-राजद-अकाली दल-शिव सेना सहित सभी बड़ी मध्यमार्गी शासक पार्टियों के नेतृत्व पर परिवारों का कब्ज़ा हो गया है, वैसे ही सभी बड़ी शासक पार्टियों में अधिकांश जिलों में धीरे-धीरे एक या दो परिवारों का कब्ज़ा हो गया है जिसमें एक या दो नेताओं के परिवार से ही विधायक, सांसद, जिला परिषद, नगर परिषद और मुखिया तक हैं.
यही नहीं, भाजपा को भी केन्द्र के अलावा कई राज्यों में मौका मिला लेकिन भ्रष्ट कांग्रेसी राजनीतिक संस्कृति के कीचड़ को साफ़ करने के बजाय सभी उसमें और लिथड़ते चले गए. राजनीतिक सडन बढ़ती गई है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस बीच देश की अर्थव्यवस्था और उसके साथ समाज में हुए परिवर्तनों के कारण पेशेवर लोगों, छात्रों, युवाओं की एक बड़ी तादाद आई है जो अस्मिताओं की राजनीति से आगे जाकर मौजूदा दमघोंटू भ्रष्ट राजनीति और असंवेदनशील शासन तंत्र में बदलाव चाहती है.
आखिर यह कैसे हो सकता है कि अर्थव्यवस्था और समाज में बदलाव हो और राजनीति उससे अछूती रह जाए?
लेकिन शहरों से बाहर बदलाव की इस राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए न सिर्फ पर्याप्त सांगठनिक-राजनीतिक तैयारी जरूरी है बल्कि आप पार्टी को अपनी वैचारिक-राजनीतिक दिशा और अवस्थिति भी ज्यादा साफ़ और धारदार बनानी होगी.
कहने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी की मौजूदा वैचारिक-राजनीतिक दिशा और अवस्थिति न सिर्फ अस्पष्ट और धुंधली सी है बल्कि कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी चुप्पी या उससे बचने की कोशिश साफ़ दिखती है.
दूसरी ओर, रैडिकल वाम की पार्टियां नए प्रयोग करने, नए मुहावरे गढ़ने और नई जमीन तोड़ने के साथ-साथ ग्रामीण गरीबों के रैडिकल जनांदोलनों को नई ऊँचाई और स्तर पर ले जाने में नाकामी के बीच एक गंभीर गतिरोध में फंसी हुई दिखाई दे रही हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी को कांग्रेस-भाजपा के साथ-साथ दूसरी मध्यमार्गी शासक पार्टियों की भ्रष्ट और कारपोरेटपरस्त राजनीति के मुकाबले एक मुकम्मल विकल्प दे पाने में सरकारी वाम मोर्चे और रैडिकल वाम की नाकामी का भी लाभ मिला है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वाम राजनीति का एजेंडा अप्रासंगिक हो गया है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी इस वाम एजेंडे से बहुत कुछ ले और दिल्ली से पैदा हुई बदलाव की राजनीति को आगे बढ़ा सकती है.
('सबलोग' के जनवरी'14 अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित अंश)
दूसरी और आखिरी क़िस्त
तथ्य यह है कि दिल्ली के चुनावों में जिस तरह से जातियों, धर्मों और
क्षेत्रीय अस्मिताओं की संकीर्ण राजनीति के कमजोर पड़ने के संकेत मिले हैं और शहरी
मध्यमवर्ग से लेकर गरीबों तक के बीच अस्मिता और सशक्तिकरण से आगे एक बेहतर नागरिक जीवन
की आकांक्षाओं की राजनीति ने आकार लेना शुरू किया है, वह केवल शहरों तक सीमित नहीं
रहनेवाली है.
इसका असर गांवों पर भी पड़ेगा. नव उदारवादी अर्थनीति के कारण ग्रामीण
इलाकों में जिस तरह का कृषि संकट पैदा हुआ है, उसमें छोटे और मंझोले किसानों का
जीना दूभर हो गया है, वैकल्पिक रोजगार के अवसर नहीं हैं और शिक्षा-स्वास्थ्य समेत
तमाम बुनियादी सेवाओं के निजीकरण और बाजारीकरण ने उन्हें उनकी पहुँच से दूर कर
दिया है, उसके खिलाफ ग्रामीण समुदाय खासकर गरीबों और कमजोर वर्गों में जबरदस्त
गुस्सा है.
यही नहीं, एक तो करेला, उसपर नीम चढ़ा की तर्ज पर पुलिस-थाने,
कोर्ट-कचहरी, बैंक-ब्लाक समेत हर सरकारी दफ्तर में बिना घूस कोई सुनवाई नहीं होने
के कारण हर आम आदमी परेशान है.
कड़वी सच्चाई यह है कि राज्यों की राजधानियों से लेकर जिला और तहसील
मुख्यालय तक राजनेताओं-अफसरों-ठेकेदारों-अपराधियों का गिरोह विकास के नामपर आ रहे
पैसे को खुलेआम निगलने में लगा हुआ है. हैरानी की बात नहीं है कि राजधानियों से लेकर जिले की सड़कों पर दौड़ती लाल बत्ती लगी लाखों की फार्चुनर, प्राडो, स्कार्पियो, बोलेरो गाड़ियों में सबसे अधिक नेता-ठेकेदार-अपराधी और अफसर मिलेंगे. सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि अधिकांश जिलों में नेता-ठेकेदार-अपराधी के बीच की विभाजन रेखा कब की खत्म हो चुकी है. राजनीतिक कार्यकर्ता का मतलब थाने और अफसरों की दलाली हो गया है.
इसके अलावा जैसे कांग्रेस-सपा-राजद-अकाली दल-शिव सेना सहित सभी बड़ी मध्यमार्गी शासक पार्टियों के नेतृत्व पर परिवारों का कब्ज़ा हो गया है, वैसे ही सभी बड़ी शासक पार्टियों में अधिकांश जिलों में धीरे-धीरे एक या दो परिवारों का कब्ज़ा हो गया है जिसमें एक या दो नेताओं के परिवार से ही विधायक, सांसद, जिला परिषद, नगर परिषद और मुखिया तक हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि गांव से लेकर तहसील/जिले तक में सफल नेता के
ग्राम प्रधान/विधायक/सांसद/मंत्री बनते ही उसकी संपत्ति में दिन दूनी, रात चौगुनी
वृद्धि होने लग रही है. यही नहीं, वह जिस तरह से विकास के पैसे से लेकर सार्वजनिक
संपत्ति को दोनों हाथों से लूटने लग रहा है और लोगों की जमीन से लेकर मकान-दूकान
कब्जाने में जुट जा रहा है, वह आमलोगों की नज़रों से छुपा नहीं है. उन्हें आमलोगों
से कोई लेना-देना नहीं रह गया है.
मुश्किल यह है कि अधिकांश राज्यों में आमलोगों
के पास अभी कोई विकल्प नहीं है या कमजोर विकल्प है और इस कारण जाति-धर्म और
क्षेत्र की आड़ में एक भ्रष्ट-अपराधी-अवसरवादी राजनीति फलती-फूलती रही है. ऐसा नहीं
है कि लोगों ने बदलाव और बेहतर राजनीति के लिए वोट नहीं किया. लोगों ने उपलब्ध
विकल्पों में फेरबदल करके या नई शक्तियों को मौका देकर बदलाव की कोशिश की.
लेकिन ९० के बाद के पिछले दो दशकों में कांग्रेस के विकल्प के रूप में
उभरे जनता दल और उसके विभिन्न विभाजित हिस्सों-सपा, राजद और जे.डी.-यू आदि को
लोगों ने कई बार मौका दिया. इसके अलावा दलित उभार के प्रतीक के रूप में उभरी बसपा
को भी कई मौके मिले. यही नहीं, भाजपा को भी केन्द्र के अलावा कई राज्यों में मौका मिला लेकिन भ्रष्ट कांग्रेसी राजनीतिक संस्कृति के कीचड़ को साफ़ करने के बजाय सभी उसमें और लिथड़ते चले गए. राजनीतिक सडन बढ़ती गई है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस बीच देश की अर्थव्यवस्था और उसके साथ समाज में हुए परिवर्तनों के कारण पेशेवर लोगों, छात्रों, युवाओं की एक बड़ी तादाद आई है जो अस्मिताओं की राजनीति से आगे जाकर मौजूदा दमघोंटू भ्रष्ट राजनीति और असंवेदनशील शासन तंत्र में बदलाव चाहती है.
आखिर यह कैसे हो सकता है कि अर्थव्यवस्था और समाज में बदलाव हो और राजनीति उससे अछूती रह जाए?
नतीजा, भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन और उसके बाद महिलाओं की बेख़ौफ़
आज़ादी और सुरक्षा की मांग को लेकर हुए आन्दोलनों में उत्तर नव उदारीकरण अर्थनीति
के लाभार्थियों और उसके सताए लोगों के एक ढीले-ढाले लेकिन व्यापक गठबंधन ने मौजूदा
भ्रष्ट और जनविरोधी राजनीति-अर्थनीति को चुनौती देने और बदलने की मुहिम को खुला और
सक्रिय समर्थन दिया है.
इसमें याराना पूंजीवाद और निजीकरण-बाजारीकरण के गठजोड़ की
लूट और आमलोगों पर पड़ रही उसकी मार से नाराज और बेचैन मध्यम और निम्न मध्यमवर्ग से
लेकर गरीब तक सभी शामिल हैं. यह एक इन्द्रधनुषी गठबंधन है जिसमें स्वाभाविक
अंतर्विरोध और हितों के टकराव भी हैं लेकिन कई मामलों में एका भी है. इसमें
ग्रामीण आप्रवासी श्रमिकों का भी एक अच्छा-खासा हिस्सा है.
कहने की जरूरत नहीं है कि जैसे ९० के बाद के दो दशकों में शहरों में
व्यापक बदलाव हुए हैं और अस्मिताओं के संकीर्ण दायरों से इतर एक नए और व्यापक
नागरिक पहचान की राजनीति के लिए जगह बनी है, उसी तरह पिछले दो दशकों में गांवों
में भी बहुत कुछ बदला है. वहां भी लोगों की बेहतर जीवन और उसके लिए जरूरी नागरिक
सुविधाओं और अधिकारों की आकांक्षाएं अस्मिताओं की संकीर्ण राजनीति से बाहर निकलने
के लिए छटपटा रही हैं. जमीन तैयार है और वहां भी चमत्कार हो सकता है. लेकिन शहरों से बाहर बदलाव की इस राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए न सिर्फ पर्याप्त सांगठनिक-राजनीतिक तैयारी जरूरी है बल्कि आप पार्टी को अपनी वैचारिक-राजनीतिक दिशा और अवस्थिति भी ज्यादा साफ़ और धारदार बनानी होगी.
कहने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी की मौजूदा वैचारिक-राजनीतिक दिशा और अवस्थिति न सिर्फ अस्पष्ट और धुंधली सी है बल्कि कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी चुप्पी या उससे बचने की कोशिश साफ़ दिखती है.
लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप की तैयारी करते हुए आप पार्टी
इन सवालों से बच नहीं सकती है और देर-सबेर उसे इन सवालों के जवाब देने पड़ेंगे और
अपनी राजनीतिक-वैचारिक स्थिति स्पष्ट करनी पड़ेगी. हालाँकि आप पार्टी क्रमश:
सामाजिक-जनवादी दिशा में बढ़ती दिख रही है लेकिन यहाँ यह जोर देकर कहना जरूरी है कि
उसके पास वैचारिक-राजनीतिक तौर पर वाम-लोकतांत्रिक राजनीतिक स्पेस में खड़ा होने या
उसके करीब जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.
इसकी वजह यह है कि बदलाव की
राजनीति का बेहतर मुहावरा वाम-लोकतांत्रिक वैचारिकी और उसके वैश्विक खासकर लातिनी
अमेरिकी प्रयोगों से ही मिल सकता है.
यह और बात है कि खुद सरकारी
वामपंथी पार्टियां लोगों का भरोसा गँवा चुकी शासकवर्गीय मध्यमार्गी राजनीतिक
पार्टियों के साथ अवसरवादी संश्रय बनाते-बनाते उनकी ऐसी पिछलग्गू बन चुकी हैं कि अपनी
चमक के साथ-साथ पहलकदमी भी गवां चुकी हैं. दूसरी ओर, रैडिकल वाम की पार्टियां नए प्रयोग करने, नए मुहावरे गढ़ने और नई जमीन तोड़ने के साथ-साथ ग्रामीण गरीबों के रैडिकल जनांदोलनों को नई ऊँचाई और स्तर पर ले जाने में नाकामी के बीच एक गंभीर गतिरोध में फंसी हुई दिखाई दे रही हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी को कांग्रेस-भाजपा के साथ-साथ दूसरी मध्यमार्गी शासक पार्टियों की भ्रष्ट और कारपोरेटपरस्त राजनीति के मुकाबले एक मुकम्मल विकल्प दे पाने में सरकारी वाम मोर्चे और रैडिकल वाम की नाकामी का भी लाभ मिला है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वाम राजनीति का एजेंडा अप्रासंगिक हो गया है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी इस वाम एजेंडे से बहुत कुछ ले और दिल्ली से पैदा हुई बदलाव की राजनीति को आगे बढ़ा सकती है.
('सबलोग' के जनवरी'14 अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित अंश)
1 टिप्पणी:
जो काम वामपन्थ ने करना था ।उसे "आप" ने कर दिखाया है।उम्मीद है कि आगामी लोकसभा चुनावों में आम आदमी की जीत हो ।।
एक टिप्पणी भेजें