सोमवार, जुलाई 01, 2013

मोदी की कसौटी पर न्यूज मीडिया

मोदी की विकासपुरुष की छवि बनाने में जुटा मीडिया उनका चीयरलीडर बनता जा रहा है? 

पहली क़िस्त 
टी.वी पत्रकारिता के जाने-माने चेहरे, एडिटर्स गिल्ड के पूर्व अध्यक्ष और आई.बी.एन नेटवर्क-१८ के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई ने स्वीकार किया है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का उभार मीडिया की ‘निष्पक्षता’ और ‘वैचारिक एजेंडे से परे जाकर सत्य के संधान’ के लिए कसौटी बन गया है.
 
उनके मुताबिक, ‘पत्रकारिता जनसंपर्क नहीं हो सकती. न ही यह चरित्र हनन करनेवाली हो सकती है. अब क्योंकि मोदी बड़ी छलांग लगानेवाले हैं, मीडिया के लिए यही सही समय है, जब वह अपने नैतिक पैमाने फिर से ठीक कर ले.’ (दैनिक भास्कर, संपादकीय पृष्ठ, १४ जून)
सरदेसाई का सवाल है कि ‘क्या यह संभव है कि मोदी की स्तुति या चरम निंदा की सीमा से परे जाकर विश्लेषण किया जाए? क्या मीडिया कोई बीच का रास्ता निकाल सकता है जहाँ तटस्थ और निष्पक्ष भाव से दुराग्रह या चीयरलीडर होने का आरोप लगे बिना मोदी का आकलन किया जा सके?’
वे आगे पूछते हैं, ‘या मोदी इतने ध्रुवीकृत नेता हैं कि मीडिया तक दी खेमों में विभाजित हो गया है? सरदेसाई मोदी की रिपोर्टिंग और आकलन की चुनौती पर आगे कहते हैं कि, ‘अपने अनुभवों से मेरा मानना है कि मोदी समर्थक या विरोधी कहलाने से बचना मुश्किल है. लेकिन फिर भी हमें प्रयास करना होगा क्योंकि पत्रकारिता का इसकी शुद्ध अवस्था में वैचारिक एजेंडों से परे सत्य का पेशा बने रहना जरूरी है.’

सरदेसाई ने यह कसौटी इस पृष्ठभूमि में पेश की है कि जहाँ २००२ से २००७ तक गुजरात के दंगे और दंगा पीड़ितों को न्याय का मुद्दा मीडिया की सुर्ख़ियों में रहे, वहीँ ’उनकी जगह अब चमचमाते वायब्रेंट गुजरात ने ले ली है...आज मीडिया ३६० डिग्री घूम गया है. अब यह गुड गवर्नेंस का मोदी मन्त्र है जिसने बाकी सबको धुंधला कर दिया है...अगर कभी गुजरात की कहानी दंगों के प्रिज्म के जरिये कही जाती थी तो वह अब कारपोरेट इंडिया के नजरों से कही जाती है.’

सरदेसाई मानते हैं कि, ‘पत्रकारिता जनसंपर्क नहीं हो सकती है. न ही यह चरित्र हनन करनेवाली हो सकती है.’ सरदेसाई की इस राय पर विवाद की गुंजाइश नहीं है. निश्चय ही, पत्रकारिता जनसंपर्क (पी.आर) नहीं हो सकती है और न ही उसे किसी का चरित्र हनन करने की इजाजत दी जा सकती है.
लेकिन मुश्किल यह है कि मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया की पत्रकारिता का बड़ा हिस्सा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के पी.आर अभियान में शामिल हो चुका है. इनमें न्यूज मीडिया का बड़ा हिस्सा पूरे उत्साह के साथ जबकि एक छोटा हिस्सा कुछ हिचकिचाहट के साथ शामिल है. लेकिन दोनों मोदी की एक ‘विकास पुरुष और दृढ नेता’ के रूप में छवि गढ़ने के एक व्यापक पी.आर अभियान के सहमत भागीदार बन चुके हैं.
इसका प्रमाण यह है कि पिछले डेढ़-दो महीनों में मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर मोदी छाए हुए हैं. न सिर्फ मोदी की हर छोटी-बड़ी, जरूरी और गैर-जरूरी गतिविधि, यात्रा, मुलाकात को व्यापक और गैर-आलोचनात्मक (अन-क्रिटिकल) कवरेज मिल रही है बल्कि बिना अपवाद के उनके सभी भाषण लाइव दिखाए जा रहे हैं. ट्विटर पर १४० कैरेक्टर की उनकी टिप्पणियां या बयान सुर्खियाँ बन रहे हैं.  

पिछले दिनों कम से कम दो प्रमुख न्यूज चैनलों (‘आज तक’ और ‘ए.बी.पी न्यूज’) ने सर्वेक्षणों के जरिये यह दिखाने की कोशिश की कि नरेन्द्र मोदी इस समय देश के सबसे ‘लोकप्रिय नेता’ हैं और लोकप्रियता चार्ट में वे अपने प्रतिद्वंद्वियों से काफी आगे निकल चुके हैं.

मजे की बात यह है कि भाजपा कार्यकारिणी ने पिछले महीने जब गोवा में मोदी को २०१४ के आम चुनावों के लिए पार्टी की प्रचार समिति का अध्यक्ष घोषित किया तो कई भाजपा नेताओं और उनके प्रवक्ताओं ने न्यूज चैनलों के इन सर्वेक्षणों का हवाला देते हुए इस फैसले को सही ठहराने की कोशिश की.
यही नहीं, मोदी के प्रधानमंत्री पद के अभियान में न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की सक्रिय भागीदारी का आलम यह है कि भाजपा की गोवा कार्यकारिणी का बैठक के कई दिनों पहले से उसमें मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर कयास शुरू हुए और बैठक के दौरान वह चरम पर पहुँच गया, जब २४x७ चैनलों पर सिर्फ और सिर्फ यही मुद्दा छाया रहा.
अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि न्यूज चैनलों के इस हाई-पिच कवरेज ने भाजपा नेतृत्व में मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर गंभीर मतभेदों के बावजूद पार्टी को यह फैसला लेने पर मजबूर कर दिया.

कहना मुश्किल है कि अगर पिछले कुछ सालों खासकर पिछले साल-डेढ़ साल से मोदी की पी.आर मशीनरी ने सुनियोजित अभियान नहीं चलाया होता, मोदी की एक ‘विकास पुरुष और सख्त प्रशासक’ की छवि नहीं गढ़ी होती और सबसे बढ़कर कारपोरेट न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों ने इस छवि को बिना किसी आलोचना के ज्यों का त्यों स्वीकार करके देश के सामने नहीं पेश किया होता तो मोदी के लिए भाजपा को अपने नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार कर पाना क्या इतना आसान होता?

हैरानी की बात नहीं है कि इस प्रकरण के बाद कई विश्लेषकों और कुछ भाजपा नेताओं तक की शिकायत है कि पार्टी को न्यूज मीडिया खासकर चैनल चला रहा है. लेकिन यह आधा सच है. वास्तव में, भाजपा और न्यूज मीडिया दोनों को मोदी की पी.आर मशीनरी चला रही है. यहाँ यह जोड़ना जरूरी है कि इस पी.आर मशीनरी के पीछे देश के बड़े कारपोरेट समूहों की ताकत भी लगी है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस की तेजी से गिरती साख को देखते हुए बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स नरेन्द्र मोदी को विकल्प के रूप में आगे बढ़ा रहे हैं. कारपोरेट न्यूज मीडिया इस मुहिम के सबसे महत्वपूर्ण औजारों में से है. वह कारपोरेट एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहा है.
इसलिए राजदीप सरदेसाई मोदी की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी को लेकर कारपोरेट न्यूज मीडिया के ३६० डिग्री घूम जाने को लेकर जो हैरानी जाहिर कर रहे हैं, उसमें इतना हैरान होने की बात नहीं है. कारपोरेट न्यूज मीडिया पर मोदी ने कोई काला जादू नहीं किया है बल्कि यह मोदी में कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी का राजनीतिक निवेश है जो कारपोरेट न्यूज मीडिया के जरिये उनकी छवि चमकाने और अनुकूल माहौल बनाने के लिए किया जा रहा है.

जाहिर है कि इस प्रक्रिया में कारपोरेट न्यूज मीडिया मोदी पर लगे २००२ के सांप्रदायिक नरसंहार के दाग को हल्का करने या उनके विकास माडल की कमियों और सीमाओं को अनदेखा करने या छुपाने, उनके बड़े-बड़े दावों को बिना किसी जांच-पड़ताल के लोगों के बीच पहुंचाने और उनकी राजनीति-अर्थनीति की बारीकी से छानबीन के कार्यभार से बचने की कोशिश कर रहा है.

ऐसा नहीं है कि न्यूज मीडिया या चैनलों में गुजरात के २००२ के नरसंहार, फिर राज्य में अल्पसंख्यकों (खासकर मुसलमानों और ईसाईयों) के साथ भेदभाव और उनका सुनियोजित हाशियाकरण और फर्जी मुठभेड़ों आदि में नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार की भूमिका का उल्लेख नहीं होता है लेकिन उसका टोन और एंगल बदल गए हैं.
उदाहरण के लिए, चैनलों पर मोदी की राजनीति और रणनीति को लेकर होनेवाली अंतहीन बहसें हों या उनके कार्यक्रमों/भाषणों की कवरेज- उनमें घूम-फिरकर २००२ के सांप्रदायिक जनसंहार का मुद्दा उठता है लेकिन नई बात यह है कि इसे भाजपा का प्रवक्ता नहीं बल्कि खुद एंकर या रिपोर्टर १९८४ में कांग्रेस और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के कार्यकाल में हुए सिख विरोधी नरसंहार या कांग्रेस की सरकारों के कार्यकाल में हुए दंगों से संतुलित करने की कोशिश करते हैं.
गोया १९८४ के नरसंहार, २००२ के नरसंहार को रोक पाने में मोदी की नाकामी और उसकी जवाबदेही लेने से बच निकलने के तार्किक औचित्य हों.   
दूसरे, अब २००२ के जनसंहार को कारपोरेट न्यूज मीडिया और चैनल गुजरात में मोदी के एक दशक से अधिक के ‘सुशासन’ और उनकी खुद की ‘विकास पुरुष और सख्त प्रशासक’ की भीमकाय छवि के बीच ‘एकमात्र दाग’ की तरह से पेश करते हैं जिसे अब अनदेखा कर दिया जाना चाहिए.

उसे एक बड़े मुद्दे की तरह उठाने में न्यूज मीडिया और चैनलों की थकान साफ़ देखी जा सकती है. अधिकांश चैनलों में चर्चाओं-बहसों के दौरान जाने-माने एंकरों और विश्लेषकों को न सिर्फ २००२ के नरसंहार का जिक्र करने से बचते हुए या उसका जिक्र आने पर एक ठंडी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए या कई मौकों पर चिडचिड़ाते हुए देखा जा सकता है.

('कथादेश' के जुलाई अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली क़िस्त)

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