प्रसार भारती को चाहिए लोकतान्त्रिक और सृजनात्मक आज़ादी और वित्तीय स्वायत्तता
दूसरी और आखिरी क़िस्त
यहाँ तक कि खुद प्रसार भारती के अंदर उसके कर्मचारियों और अधिकारियों में अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को लेकर कोई सक्रियता और उत्साह नहीं दिखाई पड़ता है. इसके उलट कर्मचारियों के संगठन ने प्रसार भारती को भंग करके खुद को सरकारी कर्मचारी घोषित करने की मांग की है. इसके पीछे वजह सरकारी नौकरी का स्थायित्व, पेंशन, आवास सुविधा आदि हैं.
लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि प्रसार भारती के कर्मचारियों में मौजूदा ढाँचे और कामकाज को लेकर कितनी निराशा, उदासी और दिशाहीनता है.
नागरिक समाज के विभिन्न हिस्सों की ओर से भी यह मांग उठती रही कि दूरदर्शन और आकाशवाणी को आज़ादी और स्वायत्तता मिलनी चाहिए और उन्हें वास्तविक अर्थों में लोक प्रसारक की स्वतंत्र भूमिका निभाने के लिए तैयार किया जाना चाहिए. इसी पृष्ठभूमि में १९९० में प्रसार भारती कानून बना और ११९७ में लागू किया गया.
कानूनी तौर पर स्वायत्तता मिलने के बावजूद वह व्यावहारिक तौर पर अब भी एक सरकारी विभाग की ही तरह काम कर रहा है जहाँ नीति निर्माण से लेकर दैनिक प्रबंधन और संचालन में नौकरशाही हावी है. इस कारण उसकी साख में कोई खास सुधार नहीं हुआ है और सृजनात्मकता के मामले में स्थिति ८० के दशक की तुलना में बदतर हुई है.
यही नहीं, प्रसार भारती में हाल के सुधारों की दिशा उसे निजीकरण और व्यवसायीकरण की ओर ले जाती दिख रही है. प्रसार भारती पर अपने संसाधन जुटाने का दबाव बढ़ता जा रहा है और इसके कारण विज्ञापन आय पर बढ़ती निर्भरता उसे निजी चैनलों के साथ अंधी प्रतियोगिता में उतरने और उनकी सस्ती अनुकृति बनने के लिए मजबूर कर रही है.
हालाँकि दूरदर्शन के व्यवसायीकरण की यह प्रक्रिया ८० के दशक में ही शुरू हो गई थी लेकिन नब्बे के दशक में निजी प्रसारकों के आने के बाद इसे और गति मिली.
लेकिन एक नागरिक उपभोग से पहले उसके नतीजों के बारे में सोचता है और अंधाधुंध उपभोग के खतरों से परिचित होता है. एक नागरिक भी उपभोक्ता होता है लेकिन असल चुनौती यह है कि एक उपभोक्ता में नागरिक की चेतना और सरोकारों को कैसे पैदा किया जाए?
याद रहे कि भारत में उपभोक्तावाद के प्रसार और विस्तार में निजी चैनलों का बड़ा योगदान रहा है. ऐसे में, लोक प्रसारण सेवा को उपभोक्तावाद के विस्तार का एक और माध्यम बनाने के बजाय उसके बारे में लोगों को सचेत करने और उन्हें एक जिम्मेदार उपभोक्ता बनाने की जवाबदेही लेनी होगी.
('योजना' के जुलाई अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और आखिरी क़िस्त)
दूसरी और आखिरी क़िस्त
भारत में प्रसार भारती (दूरदर्शन और आकाशवाणी) इसका ज्वलंत उदाहरण है.
हैरानी की बात यह है कि भारत में लोक सेवा प्रसारण के विचार के प्रति एक व्यापक
सहमति, ध्वनि तरंगों (प्रसारण) को स्वतंत्र करने के बाबत सुप्रीम कोर्ट के फैसले
और संसद में प्रसार भारती कानून के पास होने के बावजूद प्रसार भारती वास्तविक
अर्थों में एक सक्रिय, सचेत और स्वतंत्र-स्वायत्त लोक प्रसारक की भूमिका नहीं निभा
पा रहा है.
हालाँकि ७० और ८० के दशकों की तुलना में प्रसार भारती यानी दूरदर्शन और
आकाशवाणी में सीमित सा खुलापन आया है लेकिन इसके बावजूद उसकी लोक छवि एक ऐसे प्रसारक
की बनी हुई है कि जो सरकार के नियंत्रण और निर्देशों पर चलता है और जहाँ नौकरशाही
के दबदबे के कारण सृजनात्मकता के लिए बहुत कम गुंजाइश बची है.
हैरानी की बात यह भी है कि सार्वजनिक धन और संसाधनों से चलनेवाली
प्रसार भारती की मौजूदा स्थिति और उसके कामकाज पर देश में कोई खास चर्चा और बहस
नहीं दिखाई देती है. उसके कामकाज पर न तो संसद में कोई व्यापक चर्चा होती है और न
ही सार्वजनिक और अकादमिक मंचों पर कोई बड़ी बहस सुनाई देती है. यहाँ तक कि खुद प्रसार भारती के अंदर उसके कर्मचारियों और अधिकारियों में अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को लेकर कोई सक्रियता और उत्साह नहीं दिखाई पड़ता है. इसके उलट कर्मचारियों के संगठन ने प्रसार भारती को भंग करके खुद को सरकारी कर्मचारी घोषित करने की मांग की है. इसके पीछे वजह सरकारी नौकरी का स्थायित्व, पेंशन, आवास सुविधा आदि हैं.
लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि प्रसार भारती के कर्मचारियों में मौजूदा ढाँचे और कामकाज को लेकर कितनी निराशा, उदासी और दिशाहीनता है.
हालाँकि यू.पी.ए सरकार ने कुछ महीने पहले संचार विशेषज्ञ सैम पित्रोदा
की अध्यक्षता में प्रसार भारती के सरकार के साथ संबंधों, उसकी फंडिंग, उसके
प्रबंधन और संरचना के बारे में सुझाव देने के लिए विशेषज्ञ समिति का गठन किया है.
लेकिन प्रसार भारती को बने कोई १६ साल हो गए और इस बीच, उसकी दशा-दिशा तय करने के
लिए अलग-अलग सरकारों ने कोई चार समितियों का गठन किया. इनमें वर्ष १९९६ में बनी
नीतिश सेनगुप्ता समिति, वर्ष ९९-०० में बनी नारायण मूर्ति समिति, वर्ष २००० में
बनी बक्शी समिति के अलावा अब सैम पित्रोदा समिति का गठन किया गया है लेकिन कहना
मुश्किल है कि इन समितियों की रिपोर्टों पर किस हद तक अमल हुआ?
लोक प्रसारक के बतौर प्रसार भारती: स्वप्न भंग की
दास्तान
दूरदर्शन और आकाशवाणी को सृजनात्मक आज़ादी और स्वायत्तता देने के एक
लंबे संघर्ष के बाद प्रसार भारती का गठन हुआ था. ७० और ८० के दशक में दूरदर्शन और
आकाशवाणी का सत्तारुढ़ दल द्वारा दुरुपयोग के आरोपों के बीच खासकर इमरजेंसी के बाद
यह मुद्दा राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर भी प्रमुखता से छाया रहा. नागरिक समाज के विभिन्न हिस्सों की ओर से भी यह मांग उठती रही कि दूरदर्शन और आकाशवाणी को आज़ादी और स्वायत्तता मिलनी चाहिए और उन्हें वास्तविक अर्थों में लोक प्रसारक की स्वतंत्र भूमिका निभाने के लिए तैयार किया जाना चाहिए. इसी पृष्ठभूमि में १९९० में प्रसार भारती कानून बना और ११९७ में लागू किया गया.
कहने की जरूरत नहीं है कि यह एक बड़ा और महत्वाकांक्षी विचार था जिसके
साथ यह स्वप्न जुड़ा हुआ था कि दूरदर्शन और आकाशवाणी प्रसार भारती के तहत
व्यावसायिक दबावों से दूर और देश के सभी वर्गों-समुदायों-समूहों की सूचना, शिक्षा
और मनोरंजन सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने के लिए काम करेंगे.
वे भारत जैसे
विकासशील देश और समाज की बुनियादी जरूरतों ध्यान में रखेंगे और एक ऐसे लोक प्रसारक
के रूप में काम करेंगे जिसमें देश और भारतीय समाज की विविधता और बहुलता अपने
श्रेष्ठतम सृजनात्मक रूप में दिखाई देगी. उनके साथ यह उम्मीद भी जुड़ी हुई थी कि वह
वास्तव में ‘लोगों का, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा’ चलनेवाला ऐसा प्रसारक
होगा जो सामाजिक लाभ के लिए काम करेगा.
लेकिन प्रसार भारती के पिछले १६ सालों के अनुभव एक स्वप्न भंग की
त्रासद दास्ताँ हैं. हालाँकि प्रसार भारती का दावा है कि वह भारत का लोक प्रसारक
और इस कारण ‘देश की आवाज़’ है. लेकिन सच यह है कि वह ‘देश की आवाज़’ बनने में नाकाम
रहा है. कानूनी तौर पर स्वायत्तता मिलने के बावजूद वह व्यावहारिक तौर पर अब भी एक सरकारी विभाग की ही तरह काम कर रहा है जहाँ नीति निर्माण से लेकर दैनिक प्रबंधन और संचालन में नौकरशाही हावी है. इस कारण उसकी साख में कोई खास सुधार नहीं हुआ है और सृजनात्मकता के मामले में स्थिति ८० के दशक की तुलना में बदतर हुई है.
हालाँकि यह भी सच है कि इन डेढ़ दशकों में प्रसार भारती का संरचनागत
विस्तार हुआ है. दूरदर्शन के चैनल लगभग सभी प्रमुख भाषाओँ और राज्यों में उपलब्ध
हैं, खेल-कला/संस्कृति और समाचार के लिए अलग से चैनल हैं और एफ.एम प्रसारण के
जरिये आकाशवाणी ने भी श्रोताओं के बीच वापसी की है.
यह भी सच है कि निजी चैनलों की
अति व्यावसायिक, महानगर केंद्रित और मुम्बईया सिनेमा के फार्मूलों पर आधारित
मनोरंजन कार्यक्रमों और सनसनीखेज और समाचारों के नामपर तमाशा करने में माहिर निजी
समाचार चैनलों से उब रहे बहुतेरे दर्शकों को दूरदर्शन के चैनल ज्यादा बेहतर नजर
आने लगे हैं. हाल के दिनों में दूरदर्शन के कार्यक्रमों और प्रस्तुति में कुछ
सुधार के लक्षण भी दिखाई दे रहे हैं.
लेकिन प्रसार भारती के सामने खुद को एक बेहतर और आदर्श ‘लोक प्रसारक’ और
वास्तविक अर्थों में ‘देश की आवाज़’ बनाने की जितनी बड़ी चुनौती है, उसके मुकाबले इस
क्रमिक सुधार से बहुत उम्मीद नहीं जगती है. यही नहीं, प्रसार भारती में हाल के सुधारों की दिशा उसे निजीकरण और व्यवसायीकरण की ओर ले जाती दिख रही है. प्रसार भारती पर अपने संसाधन जुटाने का दबाव बढ़ता जा रहा है और इसके कारण विज्ञापन आय पर बढ़ती निर्भरता उसे निजी चैनलों के साथ अंधी प्रतियोगिता में उतरने और उनकी सस्ती अनुकृति बनने के लिए मजबूर कर रही है.
हालाँकि दूरदर्शन के व्यवसायीकरण की यह प्रक्रिया ८० के दशक में ही शुरू हो गई थी लेकिन नब्बे के दशक में निजी प्रसारकों के आने के बाद इसे और गति मिली.
इस कारण आज दूरदर्शन और निजी चैनलों में कोई बुनियादी फर्क कर पाना
मुश्किल है. कहने की जरूरत नहीं है कि व्यावसायिकता और लोक प्रसारण साथ नहीं चल
सकते हैं. दुनिया भर में लोक प्रसारण सेवाओं के अनुभवों से साफ़ है कि लोक प्रसारण
के उच्चतर मानदंडों पर खरा उतरने के लिए उसका संकीर्ण व्यावसायिक दबावों से मुक्त
होना अनिवार्य है.
इसकी वजह यह है कि प्रसारण का व्यावसायिक माडल मुख्यतः
विज्ञापनों पर निर्भर है और विज्ञापनदाता की दिलचस्पी नागरिक में नहीं, उपभोक्ता
में है. उस उपभोक्ता में जिसके पास क्रय शक्ति है और जो उत्पादों/सेवाओं पर खर्च
करने के लिए इच्छुक भी है. इस कारण वह ऐसे दर्शक और श्रोता खोजता है जिन्हें आसानी
से उपभोक्ता में बदला जा सके. इसके लिए वह ऐसे कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करता है
जो इसके उद्देश्यों के अनुकूल हों.
लेकिन एक सचेत और सक्रिय नागरिक की चिंताएं और सरोकार एक उपभोक्ता की
चिंताओं और सरोकारों से काफी अलग होती हैं. एक उपभोक्ता अपने उपभोग को लेकर चिंतित
रहता है और उसके व्यापक नतीजों पर कम सोचता है. लेकिन एक नागरिक उपभोग से पहले उसके नतीजों के बारे में सोचता है और अंधाधुंध उपभोग के खतरों से परिचित होता है. एक नागरिक भी उपभोक्ता होता है लेकिन असल चुनौती यह है कि एक उपभोक्ता में नागरिक की चेतना और सरोकारों को कैसे पैदा किया जाए?
याद रहे कि भारत में उपभोक्तावाद के प्रसार और विस्तार में निजी चैनलों का बड़ा योगदान रहा है. ऐसे में, लोक प्रसारण सेवा को उपभोक्तावाद के विस्तार का एक और माध्यम बनाने के बजाय उसके बारे में लोगों को सचेत करने और उन्हें एक जिम्मेदार उपभोक्ता बनाने की जवाबदेही लेनी होगी.
भारत में लोक प्रसारण सेवा के लिए आगे का रास्ता
हालाँकि पित्रोदा समिति प्रसार भारती के लिए भविष्य का रोडमैप तैयार
कर रही है लेकिन यहाँ दूरदर्शन के कार्यक्रमों और उसके लोक प्रसारक के बतौर एक
खालिस भारतीय व्यक्तित्व के बारे में पी.सी जोशी समिति (१९८४) की रिपोर्ट ‘टेलीविजन
के लिए एक भारतीय व्यक्तित्व’ (एन इंडियन पर्सनालिटी फार टेलीविजन) का जिक्र करना
जरूरी है.
इस रिपोर्ट को अगले साल तीन दशक पूरा हो जाएंगे. हालाँकि इन तीन दशकों
में देश और दुनिया में प्रसारण का परिदृश्य बहुत बदल गया है लेकिन इसके बावजूद यह
रिपोर्ट भारत जैसे बहुराष्ट्रीय-बहुभाषी-बहुधार्मिक-बहुजातीय और विकासशील समाज में
लोक प्रसारण सेवा के बुनियादी दृष्टिकोण और कार्यभार को बखूबी पेश करती है. इस
मायने में यह रिपोर्ट और उसकी अनुशंसाएँ आज भी न सिर्फ प्रासंगिक हैं बल्कि
दूरदर्शन के लिए एक लोक प्रसारक के बतौर बेहतर रोडमैप पेश करती है.
जोशी समिति ने दूरदर्शन के लिए जिस भारतीय व्यक्तित्व की कल्पना की
थी, उस स्वप्न को पुनरुज्जीवित करने की जरूरत है. इसके लिए दूरदर्शन को मध्यकालिक
और दीर्घकालिक तौर इन कार्यभारों को पूरा करना होगा:
·
प्रसार
भारती की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उसकी सरकार और निजी क्षेत्र पर
से निर्भरता खत्म करनी जरूरी है. उसकी आर्थिक स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए एक
स्थाई और टिकाऊ वित्तीय माडल की जरूरत है.
·
प्रसार
भारती की सृजनात्मक आज़ादी सुनिश्चित करने के लिए उसे नौकरशाही के नियंत्रण से
मुक्त करना और उसके संचालन में लोकतांत्रिक भागीदारी और मूल्यों को स्थापित करना
भी अनिवार्य है. इसके लिए प्रसार भारती के प्रबंधन और कामकाज में पेशेवर और
स्वतंत्र लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों को नेतृत्वकारी
भूमिका प्रदान करने के अलावा समाज के विभिन्न वर्गों-समुदायों-समूहों को भी उचित
प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए. उसके प्रबंधन में कर्मचारियों की भागीदारी भी
सुनिश्चित की जानी चाहिए.
·
प्रसार
भारती की जिम्मेदारी और जवाबदेही लोगों के प्रति होनी चाहिए. इसके लिए उसके संचालन
और प्रबंधन में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने का लोकतांत्रिक माडल खड़ा किया
जाना चाहिए. इसके लिए प्रसार भारती के सभी भागीदारों (स्टेकहोल्डर्स) में अपनी
स्वायत्तता और आज़ादी के प्रति एक आग्रह और बोध पैदा किया जाना चाहिए.
याद रहे कि
स्वायत्तता और आज़ादी कभी भी उपहार में नहीं मिलते हैं और न ही उपहार में मिली
आज़ादी और स्वायत्तता को सुरक्षित रखा जा सकता है. आज़ादी और स्वायत्तता को हासिल
करने, बनाए रखने और उसका विस्तार करने के लिए लोक प्रसारण सेवा में जिनका हिस्सा
(स्टेक) है, उन्हें उसके लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है.
·
प्रसार
भारती के आगे का रास्ता निजीकरण और व्यवसायीकरण में नहीं है. इसके उलट उसे
व्यावसायिक प्रसारण से अलग वैकल्पिक माडल की तलाश करनी होगी. वैकल्पिक माडल विकेन्द्रीकृत,
पारदर्शी, भागीदारीपूर्ण और जवाबदेह होना चाहिए और उसमें देश-समाज की विविधताओं और
बहुलता का अक्स दिखाई देना चाहिए.
·
प्रसार
भारती के कार्यक्रमों में देश की हर भाषा और क्षेत्र की कला-संस्कृति,
संगीत-नृत्य, साहित्य से लेकर लोक कलाओं को जगह मिलनी चाहिए. उसे इनका सक्रिय
संरक्षक और संग्रहालय बनना होगा.
यह सूची बहुत लंबी हो
सकती है. इस मायने में लोक प्रसारण के सामने अनेकों चुनौतियाँ हैं लेकिन भारत जैसे
विशाल और विविधतापूर्ण देश-समाज के पास एक वास्तविक लोक प्रसारणकर्ता का कोई
विकल्प भी नहीं है. देश इस सच्चाई को जितनी जल्दी समझ जाए, उतना अच्छा होगा.('योजना' के जुलाई अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और आखिरी क़िस्त)
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