पहली क़िस्त
“आपको प्रेस की स्वतंत्रता की पूरी गारंटी
है, बशर्ते आप उसके मालिक हों.”
- ए.जे लीब्लिंग, ‘द न्यूयार्कर’ से जुड़े रहे
अमेरिकी पत्रकार
न्यूज चैनल सहित कई चैनलों और अखबारों के मालिक और पश्चिम बंगाल में
सारदा चिट फंड घोटाले के मुख्य आरोपी सुदीप्ता सेन की गिरफ्तारी के बाद से देश में
मीडिया स्वामित्व, उसके स्वरुप, कारोबारी और दूसरे हितों और उसका न्यूज मीडिया के
अंतर्वस्तु पर पड़नेवाले घोषित/अघोषित प्रभावों पर बहस तेज हो गई है.
हालाँकि यह
बहस नई नहीं है और न ही मीडिया कारोबार में सक्रिय किसी कम्पनी का धतकर्म पहली बार
सामने आया है. यह सारदा चिट फंड की तरह अवैध धंधों/कारोबार में शामिल किसी कंपनी
के अपने धंधों को आवरण/संरक्षण/विश्वसनीयता देने के लिए मीडिया के धंधे में घुसने
का भी कोई पहला या अकेला मामला नहीं है.
इससे पहले भी सारदा की तरह ही जे.वी.जी और कुबेर जैसी कई चिट फंड
कंपनियों ने भी धूमधाम के साथ अखबार शुरू किये, उसके जरिये एक विश्वसनीयता हासिल
की और उसकी आड़ में लाखों लोगों को बेवकूफ बनाया और उनकी जीवन भर की कमाई लूट ली. यह सिर्फ संयोग नहीं है कि इनदिनों २४ हजार करोड़ रूपये की अवैध वसूली के आरोपी सहारा का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है, जी न्यूज के संपादकों पर कोयला घोटाले में फंसी जिंदल स्टील एंड पावर कम्पनी से खबरें रोकने के बदले पैसा मांगने का आरोप लगा है और आंध्र प्रदेश में साक्षी मीडिया समूह के मालिक जगनमोहन रेड्डी भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में हैं.
साफ़ है कि सारदा चिट फंड घोटाला कोई अपवाद नहीं
है बल्कि वह एक प्रवृत्ति या पैटर्न की ओर इशारा करता है. इस प्रवृत्ति या पैटर्न के
कई पहलू हैं.
पहला यह कि वैध-अवैध धंधों/कारोबार खासकर चिट फंड/फिनांस/रीयल इस्टेट
आदि में आम लोगों को झांसा देकर पैसा बनाने के बाद या उसी दौरान सुदीप्तो सेन जैसा
कोई ठग उसका एक हिस्सा मीडिया के धंधे में लगाकर अखबार और आजकल न्यूज चैनल शुरू करता
है जिससे न सिर्फ उसके अवैध धंधों को पुलिस/प्रशासन और राजनेताओं से संरक्षण हासिल
करने में मदद मिलती है बल्कि धंधे को भी एक तरह की विश्वसनीयता हासिल हो जाती है.
यही नहीं, इससे फर्जी और अवैध धंधे और धंधेबाज को
मीडिया की जांच-पड़ताल और छानबीन से भी बच निकलने का मौका मिल जाता है क्योंकि
मीडिया कंपनियों के बीच एक अघोषित लेकिन पक्का और ठोस समझौता है कि वे एक-दूसरे के
वैध-अवैध धंधों और धतकरमों के बारे में कोई रिपोर्ट नहीं करेंगी. जैसे कुत्ता, कुत्ते को नहीं खाता है, वैसे ही मीडिया कम्पनियाँ एक-दूसरे के बारे में लिखने/दिखाने से परहेज करती हैं. हैरानी की बात नहीं है कि खुद को साफ़-सुथरी कहनेवाली और हमेशा भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाने का दावा करनेवाली बड़ी कारपोरेट मीडिया कंपनियों के अखबारों/चैनलों से लेकर छोटे धंधेबाजों/ठगों के अखबारों/चैनलों में भी शायद ही कभी एक-दूसरे के वैध-अवैध धंधों और कारनामों के बारे में छपता या दिखाया जाता है.
इस प्रवृत्ति का दूसरा पहलू यह है कि मीडिया कम्पनियाँ
जैसे-जैसे बड़ी हो रही हैं, उनका कारपोरेटीकरण हो रहा है, उनका मुनाफा बढ़ रहा है,
वैसे-वैसे वे मीडिया से इतर दूसरे धंधों/कारोबार की ओर बढ़ रही है. हाल के वर्षों
में ऐसे अनेकों उदाहरण सामने आए हैं जिनमें मीडिया कंपनियों ने रीयल इस्टेट,
शापिंग माल्स, चीनी मिल, पावर स्टेशन, माइनिंग से लेकर हर तरह के कारोबार में
निवेश करना और विस्तार करना शुरू कर दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि अपने
कारोबार को फ़ैलाने में उन्हें अपनी मीडिया कंपनियों से खासी मदद मिल रही है
क्योंकि उसके प्रभाव का इस्तेमाल करके वे सरकार और नेताओं/अफसरों के जरिये आसानी
से लाइसेंस/ठेके और जमीन हासिल कर ले रहे हैं.
आश्चर्य नहीं कि हाल के दिनों में सामने आए बड़े
घोटालों में कई बड़ी मीडिया कंपनियों और उनके मालिकों के नाम भी लाभार्थियों के रूप
में सामने आए हैं. उदाहरण के लिए, कोयला खदानों के आवंटन में हुई धांधली और घोटाले
में कुछ मीडिया कंपनियों (जैसे लोकमत समूह और उसके मालिक विजय दर्डा) के नाम चर्चा
में आए थे. यही नहीं, ऐसी पुष्ट/अपुष्ट रिपोर्टें आपको देश के हर बड़े शहर/राज्यों की राजधानियों में सुनने को मिल जायेंगी कि कैसे इन मीडिया कंपनियों ने अवैध तरीके से जमीन कब्जाया, रीयल इस्टेट में निवेश किया है और माइनिंग के पट्टे आदि हासिल किये हैं.
कहते हैं कि इसी लोभ में बहुतेरी मीडिया कंपनियों ने झारखण्ड और छत्तीसगढ़ जैसे खनिज संसाधनों से संपन्न राज्यों में अपने अखबार और चैनल का विस्तार किया है क्योंकि उससे माइनिंग के ठेके हासिल करने में आसानी होती है.
इसी से जुड़ा इस प्रवृत्ति का तीसरा पहलू यह है कि
मीडिया की इस शक्ति और प्रभाव ने बड़ी कंपनियों/कार्पोरेट्स को भी मीडिया कारोबार
में घुसने के लिए प्रेरित किया है. हालाँकि उनकी हमेशा से मीडिया कारोबार में
दिलचस्पी रही है लेकिन हाल के वर्षों में जबसे आर्थिक उदारीकरण के नामपर सार्वजनिक
क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण और प्राकृतिक संसाधनों खासकर जल-जंगल-जमीन-खनिजों
को कब्जाने की होड़ शुरू हुई है और दूसरी ओर, मीडिया कंपनियों के रसूख और लाबीइंग
शक्ति बढ़ी है, बड़े कार्पोरेट्स भी मीडिया कंपनियों में बड़े पैमाने पर निवेश करते
दिखाई पड़े हैं.
उदाहरण के लिए, पिछले दो वर्षों में मुकेश
अम्बानी की रिलायंस ने न सिर्फ टी.वी-18 समूह (सी.एन.बी.सी
और आई.बी.एन) बल्कि ई.टी.वी समूह की कंपनियों में भी लगभग ५० फीसदी शेयर खरीद लिए
हैं. इसी तरह कुमारमंगलम बिरला की आदित्य बिरला समूह ने टी.वी. टुडे समूह में लगभग
२७ फीसदी का मालिकाना हासिल कर लिया है. अनिल अम्बानी की ज्यादातर मीडिया कंपनियों में ५ से लेकर २० फीसदी तक शेयर हैं. ओसवाल समूह ने एन.डी.टी.वी में लगभग १५ फीसदी शेयर ख़रीदे हैं. यही नहीं, मीडिया कंपनियों और बड़े कारपोरेट समूहों के बीच बढ़ते गठजोड़ का एक बड़ा प्रमाण यह भी है कि सभी बड़ी मीडिया कंपनियों के निदेशक मंडल में बड़े कारपोरेट समूहों के प्रमुख शामिल हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि ये तीनों ही
प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं. इसके साथ ही, मीडिया उद्योग में स्वामित्व के
ढाँचे में बड़े और बुनियादी बदलाव भी हो रहे हैं. मीडिया उद्योग के इस नए पिरामिड
में सबसे ऊपर मुट्ठी भर वे बड़े कारपोरेट मीडिया समूह हैं जिनकी संख्या मुश्किल से
२० के आसपास है.
लेकिन तथ्य यह है कि वे ही आज मीडिया कारोबार को नियंत्रित और
निर्देशित कर रहे हैं. वे वास्तव में अभिजात्य शासक वर्ग के हिस्से हैं और इसका
सबूत यह है कि उनके नाम देश के पचास और सौ सबसे ताकतवर और प्रभावशाली लोगों की
सूची में छपते रहते हैं. इन चुनिंदा मीडिया समूहों के हाथ में देश के सबसे अधिक
पढ़े जानेवाले २० सबसे बड़े अखबार और सबसे अधिक देखे जानेवाले १० न्यूज चैनल हैं.
हाल के वर्षों में उदारीकरण और भूमंडलीकरण का
फायदा उठाकर उन्होंने न सिर्फ विदेशी निवेश आकर्षित किया है बल्कि उनका तेजी से
विस्तार हुआ है. इन बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों ने क्रास मीडिया प्रतिबंधों और
उससे संबंधित रेगुलेशन के अभाव का फायदा उठाकर न सिर्फ अखबार, टेलीविजन, रेडियो,
इंटरनेट जैसे सभी मीडिया प्लेटफार्मों पर अपने कारोबार का विस्तार किया है बल्कि
उन्होंने भौगोलिक सीमाओं को लांघकर क्षेत्रीय भाषाओँ के मीडिया बाजार में भी
घुसपैठ की है. इसके कारण हाल के वर्षों में मीडिया उद्योग में प्रतियोगिता बढ़ी और तीखी हुई है और इसमें छोटे-मंझोले प्रतियोगियों के लिए टिकना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है. इस बीच, कई छोटे और मंझोले अखबार/चैनल बंद हो गए हैं या बड़े मीडिया समूहों द्वारा खरीद लिए गए हैं.
इससे मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण बढ़ा है और बड़े
कारपोरेट मीडिया समूहों के कारण एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को भी मजबूत होते हुए
देखा जा सकता है. आज वे ही तय करते हैं कि देश में लोग क्या पढेंगे, देखेंगे और
सोचेंगे? वे ही देश का एजेंडा तय करते हैं और जनमत बनाने में उनकी भूमिका पहले की
तुलना में कई गुना बढ़ गई है.
इसकी वजह यह भी है कि आज मीडिया की पहुँच और उसका
उपभोग बढ़ा है, अखबारों/न्यूज चैनलों के पाठकों/दर्शकों की संख्या में कई गुना का
इजाफा हुआ है और इसके साथ ही, बढ़ते शहरीकरण/आप्रवासन/व्यक्तिकरण के कारण सूचनाओं
के लिए लोगों की निर्भरता उनपर बढ़ी है.
आज राजनीति और राज-समाज आदि के बारे में
लोगों खासकर शहरी मध्यवर्ग की सूचनाओं का मुख्य स्रोत कारपोरेट न्यूज मीडिया होता
जा रहा है.
1 टिप्पणी:
आज मीडिया का स्वामित्व कुछ मुट्ठी भर लोगों के हाथ में संकेन्द्रित हो गया है और ‘स्रोतों की विविधता व लोकवृत्त’ जैसी अवधारणाओं को गहरा आघात लगा है। इन मुद्दों के आलोक में तीसरे प्रेस या मीडिया आयोग के गठन की ज़रूरत है। मालूम हो पहला प्रेस कमीशन (1952) और दूसरा प्रेस कमीशन (1978) नवउदारवादी नीतियों के लागू होने से पहले गठित किये गये थे। तीन दशक बाद मीडिया की संरचना व सरोकारों में बहुत तब्दीलियाँ आयी हैं। आयोग द्वारा इन विषयों का गहन विश्लेषण करके ‘लोकतंत्र के चतुर्थ स्तम्भ’ की मज़बूती के लिए दिये जानेवाले सुझावों पर ग़ौर भी फ़रमाया जाए।
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