बुधवार, मई 22, 2013

भ्रष्टाचार के तमाशे में दर्शकों को ‘बकरा’ बनाते चैनल

भ्रष्टाचार की रिपोर्टिंग को तमाशा बनाने के खतरे

गंभीर से गंभीर मसले को भी चुटकी बजाते तमाशा बनाने में न्यूज चैनलों की ‘प्रतिभा’ असंदिग्ध है. चैनल इसे साबित करने का कोई मौका नहीं चूकते हैं. उदाहरण के लिए भ्रष्टाचार और नियम-कानूनों के उल्लंघन के आरोपों में घिरे यू.पी.ए सरकार के दो केन्द्रीय मंत्रियों- पवन बंसल और अश्विनी कुमार के इस्तीफे के प्रसंग को ही लीजिए.
 
जब कांग्रेस नेतृत्व और सरकार पर इन दोनों मंत्रियों के इस्तीफे का दबाव चरम पर था, नेतृत्व के अंदर निर्णायक चर्चा जारी थी, उसी समय चैनलों ने रेल मंत्री पवन बंसल के एक बकरे को चारा खिलाने की घटना के बहाने इस मामले को तमाशा बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखा.
उस शाम तीन-चार घंटों के लिए चैनलों पर भ्रष्टाचार, शुचिता, नैतिकता, संवैधानिक-कानूनी प्रावधानों आदि पर चर्चा के बजाय बकरे को चारा खिलाते पवन बंसल के बहाने भांति-भांति के ज्योतिषी मंत्रीजी का भाग्य बांचने लगे.

वे अमावस्या को सफ़ेद बकरे को चारा खिलाने से लेकर बकरे की बलि चढ़ाने जैसे टोटकों के फायदे-नुकसान बताने लगे. हमेशा की तरह इस मौके पर भी ज्योतिषियों में इस टोटके के बावजूद बंसल के भविष्य को एकराय नहीं थी. कुछ का मानना था कि बंसल इस पूजा के बाद इस संकट बच निकलेंगे जबकि कुछ को यह लग रहा था कि उन्होंने यह पूजा करने में देर कर दी.

लेकिन ज्योतिषियों और तांत्रिकों के साथ चैनल जिस तरह से बंसल के भविष्य को बकरा पूजा से जोड़ कर पेश कर रहे थे, उससे ऐसा लग रहा था कि बंसल भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मामले के बजाय किसी निजी संकट में फंसे हों.
हालाँकि चैनल बकरा पूजा के बहाने अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश कर रहे बंसल का मजाक भी उड़ा रहे थे लेकिन यह भी इस मुद्दे को तमाशा बनाने के खेल का ही हिस्सा था. इस तरह चैनलों ने शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार जैसे गंभीर और संवेदनशील मसले को हल्का और छिछला बना दिया.
यह सही है कि विपक्ष और कोर्ट के साथ-साथ चैनलों और अखबारों ने भी नए खुलासों, कड़ी टिप्पणियों और चर्चा/बहस के जरिये कांग्रेस नेतृत्व पर लगातार दबाव बनाए रखा जिसके कारण उसे मंत्रियों को हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा.

लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि वे भ्रष्टाचार खासकर शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मुद्दे को जिस तरह एक सनसनीखेज तमाशे में बदल देते हैं और उसे किसी एक मंत्री या अफसर तक सीमित कर देते हैं, उससे भ्रष्टाचार के नीतिगत, प्रक्रियागत और सांस्थानिक पहलू दर्शकों की नजरों से ओझल हो जाते हैं.             

नतीजा यह कि इस तमाशे से भले ही किसी मंत्री/मंत्रियों की कुर्सी चली जाए लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. उल्टे भ्रष्टाचार खत्म होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. इसके कारण धीरे-धीरे लोगों में भ्रष्टाचार को लेकर एक तरह की निराशा और ‘इम्युनिटी’ पैदा हो रही है.
इसकी वजह यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया और राजनीतिक दलों के संयुक्त तमाशे ने सनसनी चाहे जितनी पैदा की हो लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर उनकी समझ का विस्तार नहीं किया है.
ऐसे में, जब लोग राजनीतिक दलों और सरकार में भ्रष्टाचार को फलते-फूलते देखते हैं और यहाँ तक कि खुद न्यायपालिका और मीडिया को भी उस भ्रष्टाचार में शामिल पाते हैं तो उनकी निराशा और हताशा बढ़ने लगती है.

उन्हें यह समझने में भी देर नहीं लगती है कि इस तमाशे में बकरा तो उन्हें बनाया जा रहा है.
('तहलका' के 31 मई के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)

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