मंगलवार, जनवरी 26, 2010

साठ का गणतंत्र

तेज  बढ़ती  अर्थव्यवस्था में 'गण'  की  जगह

साठ साल  के गणतंत्र में भारतीय अर्थव्यवस्था ने एक लम्बा सफर तय किया है. इस बीच, अर्थव्यवस्था में कई बदलाव आये हैं.अर्थव्यवस्था नेहरूवादी समाजवाद का खोल उतारकर निजी देशी-विदेशी पूंजी के नेतृत्व में उदारीकरण-भूमंडलीकरण की राह पर सरपट दौड़ रही है. वह 'हिन्दू वृद्धि दर' से आज दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ पिछले डेढ़ दशक में देश में खूब समृद्धि भी आई है. वह समृद्धि भले ही देश के सभी वर्गों तक नहीं पहुंची हो लेकिन अमीरों के अलावा मध्यम और उच्च मध्यमवर्ग के एक बड़े हिस्से को इसका जबरदस्त लाभ हुआ है. आश्चर्य नहीं कि अपनी गरीबी के लिए जाने जानेवाले भारत में अरबपतियों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है. 'फ़ोर्ब्स' पत्रिका के मुताबिक डालर अरबपतियों की सूची में भारत अमेरिका और चीन के बाद ५८ अरबपतियों के साथ दुनिया भर में तीसरे स्थान पर है.

यही नहीं, भारतीय डालर अरबपतियों की कुल सम्पदा चीनी अरबपतियों की सम्पदा से काफी अधिक है. इस मायने में भारत अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है. साफ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की हालिया गतिशीलता के साथ देश में सम्पदा बरस रही है. आज भारतीय अर्थव्यवस्था एक खरब डालर की अर्थव्यवस्था हो चुकी है. निश्चय ही, अर्थव्यवस्था के इस 'चमत्कारी' प्रदर्शन ने दुनिया भर का ध्यान खींचा है. यह सिर्फ संयोग नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार पर दांव लगने के लिए दुनिया भर की बड़ी-बड़ी कम्पनियां कतार लगाये खड़ी हैं. कहा जा रहा है कि आनेवाले दशकों में  भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाएं ही वैश्विक अर्थव्यवस्था के इंजन के रूप में काम करेंगी.

लेकिन चिंता की बात यह है कि आज से साठ साल पहले जिस 'गण' की सेवा के लिए भारत गणतंत्र बना, उस 'गण' को तेजी से दौड़ रही अर्थव्यवस्था के बहुत कम लाभ मिले हैं. खुद सरकारी आंकड़े इस तथ्य की गवाही देते हैं. उदाहरण के लिए अभी हाल ही में जाने-माने अर्थशास्त्री सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में देश में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों का सही अनुमान लगाने के लिए गठित योजना आयोग की समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि देश में गरीबों की संख्या कुल आबादी का 37 प्रतिशत है. यह योजना आयोग के मौजूदा अनुमान 27 प्रतिशत से काफी ज्यादा  है. लेकिन उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि जब देश में अर्थव्यवस्था औसतन 7से 8प्रतिशत की रफ़्तार से कुलांचे भर रही थी और समृद्धि और उसके साथ डालर अरबपतियों की संख्या दिन दूनी,रात चौगुनी बढ़ रही थी, उस समय देश में गरीबों की तादाद में मात्र सालाना औसतन 0.74 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई.

सवाल है कि अर्थव्यवस्था से निकल रही जबरदस्त समृद्धि कहाँ जा रही है? निश्चय ही इस सवाल का एक सिरा देश में डालर अरबपतियों की संख्या में तेजी से हो रही वृद्धि से जुड़ता है. जाहिर है कि यह सिर्फ संयोग नहीं है कि डालर अरबपति देश की कुल जनसंख्या के मात्र 0.00001 प्रतिशत हैं लेकिन देश के सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी)के एक चौथाई हिस्से पर उनका कब्ज़ा है. दूसरी ओर, खुद सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति के मुताबिक देश की कुल आबादी का 78 प्रतिशत हिस्सा प्रतिदिन 20 रूपये से भी कम की आय पर गुजर कर रहा है. साफ है कि देश में गैर बराबरी बढ़ रही है. सच पूछिए तो आज गरीबी से कहीं अधिक आर्थिक विषमता और गैर बराबरी भारतीय गणतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है.

यह गैर बराबरी कई रूपों में उभरकर हमारे सामने आ रही है. इसका एक रूप तो मौजूदा महा महंगाई में भी देखा जा सकता है.क्या यह चिंता की बात नहीं है कि गणतंत्र बनने के बाद देश ने अन्न उत्पादन में बहुत तरक्की की है लेकिन प्रति व्यक्ति/प्रति दिन खाद्यान्नों की उपलब्धता लगातार कम हुई है?उदाहरण के लिए 1951 में प्रति व्यक्ति/प्रति दिन अनाजों और दालों की उपलब्धता क्रमश: 334 और 61 ग्राम (कुल 394 ग्राम) थी, वह आर्थिक तरक्की के साथ बढ़ते हुए 1971 में लगभग 417 और 51 ग्राम (कुल 469 ग्राम) और 1991 में 468 और 42 ग्राम (कुल 510 ग्राम) हो गई लेकिन अब 2007 में यह घटकर 407 और 35 ग्राम (कुल 442 ग्राम) रह गई है. साफ है कि आज देश में प्रति व्यक्ति/प्रति दिन अनाजों/दालों की उपलब्धता 1971 से भी कम रह गई है. 

हालांकि कई लोगों का मानना है कि आर्थिक समृद्धि के साथ लोगों ने अनाजों के बजाय अंडे-मांस-दूध और सब्जियां अधिक खाना शुरू कर दिया है. इस दावे में थोड़ी सच्चाई है लेकिन 20 रूपये से कम पर गुजर-बसर करनेवाले कोई 80 करोड़ लोगों के लिए सच यही है कि उन्हें हर दिन दोनों जून दाल-रोटी के लिए ही संघर्ष करना पड़ रहा है.यही कारण है कि पिछले साठ वर्षों में आर्थिक तरक्की कि तेज रफ़्तार के बावजूद हमारे गणतंत्र का 'गण' कहीं पीछे छूटता जा रहा है. वह अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहा है. यही नहीं, कहीं न कहीं उसे यह भी लगने लगा है कि अर्थव्यवस्था के कर्ता-धर्ताओं को उसकी परवाह नहीं रह गई है.            

जबरदस्त आर्थिक तरक्की के बावजूद साठा का पाठा हो रहे गणतंत्र के लिए यह चिंता और उससे अधिक गंभीर चिंतन का विषय होना चाहिए. आखिर 'गण' को नज़रंदाज़ करके अर्थव्यवस्था का गणतंत्र कैसे आगे बढ़ सकता है?            

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