बड़े-बड़े दावों के बावजूद पिटे-पिटाए फार्मूलों पर भरोसा
राष्ट्रीय विकास परिषद की 52 वीं बैठक में ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) के मसौदे को मंजूर करने की औपचारिकता पूरी कर दी गयी है। इसके साथ ही अगले पांच सालों के लिए देश के विकास की दिशा और रणनीति पर मुहर लग गयी। यह ठीक है कि केन्द्रीय कैबिनेट ग्यारहवीं योजना के मसौदे को पहले ही मंजूरी दे चुकी थी और राट्रीय विकास परिषद की बैठक महज एक औपचारिकता ही थी। इसके बावजूद इस बैठक के महत्व को कम करके आंकना सही नहीं होगा। लेकिन हैरत की बात यह हैकि देश के सबसे प्रमुख गुलाबी आर्थिक अखबार सहित विश्व के सबसे अधिक बिकने वाले अंग्रेजी अखबार और अधिकांश समाचार चैनलों ने राट्रीय विकास परिषद की बैठक में 11वीं योजना की मंजूरी की खबर को पहले पन्ने लायक नहीं समझा।
इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण से परिचालित राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योजना आधारित अर्थनीति किस हद तक अप्रासंगिक हो चुकी है। दोहराने की जरुरत नहीं है कि पिछले डेढ़ दशक में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में एक सक्रिय खिलाड़ी के बतौर जैसे-जैसे राज्य की भूमिका घटती गयी है, वैसे-वैसे योजना आयोग और पंचवर्षीय योजनाएं भी महत्वहीन होते चले गए हैं। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे जब उदारीकरण के उत्साही और बेचैन समर्थक बदले हुए आर्थिक परिदृश्य में योजना आयोग को सफेद हाथी बताते हुए उसे समाप्त करने और अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को निजी क्षेत्र के मददगार (फेसिलिटेटर) के बतौर सीमित करने की मांग कर रहे थे। उन्हें अपने अपने अभियान में काफी हद तक सफलता भी मिली है।
संभव है कि इसे योजना आयोग के उपाध्यक्ष और उदारीकरण के प्रमुख पैरोकार में से एक मोंटेक सिंह अहलुवालिया स्वीकार न करें लेकिन सच यह है कि आज राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योजना आयोग की तुलना में मुंबई शेयर बाजार की भूमिका और हैसियत कहीं जयादा बड़ी और निर्णायक हो गयी है। आखिर आज योजना आयोग की परवाह कौन करता है? पंचवर्षीय योजनाएं महज रस्म अदायगी भर बनकर रह गयी हैं जिनका उपयोग सिर्फ राज्यों को उनकी सालाना योजना के लिए आवंटन तय करने और कुछ हद तक राष्ट्रीय बजट में विकास योजनाओं के लिए धन आवंटन करते समय होता है। अन्यथा राष्ट्रीय विकास का एजेंडा, दिशा, नीति और कार्यक्रम तय करने के मामले में पंचवर्षीय योजनाओं की भूमिका सीमित हो गयी है।
11वीं पंचवर्षीय योजना भी इसकी अपवाद नहीं है। अलबत्ता उदारीकरण के पिछले डेढ़ दशक खासकर मोंटेक सिंह अहलुवालिया के नेतृत्व में योजना आयोग का कायांतरण हुआ है और पंचवर्षीय योजनाओं का नया रुपांतरण। इसके तहत बहुत सफाई से योजना आयोग को उदारीकरण आयोग में और पंचवर्षीय योजनाओं को योजना आधारित ढ़ाचें के भीतर उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के एजेंडे नीति और कार्यक्रम के वाहक में बदल दिया है।
जाहिर है कि ऐसा करके अहलुवालिया योजना आयोग और पंचवर्षीय योजनाओं को प्रासंगिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके इस अभियान को उदारीकरण समर्थकों का पूरा समर्थन भी मिल रहा है। आश्चर्य नहीं कि आमतौर पर योजना शब्द से चिढ़नेवाला बाजार 11वीं योजना के मसौदे से खुश हैं।
हालांकि वह उसे बहुत महत्व देने के लिए तैयार नहीं है लेकिन सच यह है कि 11वीं योजना पूरी तरह से उदारीकरण और बाजार की चाशनी में पगी हुई है। योजना का मुख्य लक्ष्य आर्थिक विकास की दर को पहले चार वर्षों में 9 प्रतिशत और आखिरी वर्ष (2011-12) में 10 प्रतिशत तक पहुंचाने का है। हालांकि 11वीं योजना में समावेशी विकास(इनक्लूसिव ग्रोथ) के नारे को मंत्र की तरह कई बार दोहराया गया है लेकिन सच्चाई यह है कि पिछली योजनाओं की तरह इस योजना में भी उच्च विकास दर (9 से 10 फीसदी सालाना) को सभी समस्याओं का रामबाण इलाज मान लिया गया है।
जबकि हकीकत इसके ठीक उलट है। खुद 11वीं योजना के स्वीकृत मसौदे में गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाले भारतियों की संख्या में सिर्फ 8 फीसदी की कमी दर्ज की गयी है। स्वीकार किया गया है कि तीव्र विकास दर के बावजूद पिछले डेढ़ दशकों में गरीबी और बेरोजगारी हटाने में अपेक्षित सफलता नहीं मिली है। जीडीपी की तेज रफतार के बावजूद 1993-1994 से 2004-2005 के बीच 12 वर्षों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन अर्थ यह हुआ कि औसतन 6 से 7 प्रतिशत की सालाना विकास दर के बावजूद गरीबों की संख्या में सालाना औसतन 0.6 प्रतिशत की दर से कमी दर्ज की गयी है। यह न सिर्फ निराशाजनक बल्कि शर्मनाक है। यह शर्मनाक इसलिए भी है क्योंकि गरीबी रेखा का पैमाना वही है जो 1973-74 में प्रति व्यक्ति कैलोरी उपभोग के आधार तय किया किया गया था और जब प्रति व्यक्ति आय आज की तुलना में कम थी।
कहने की जरुरत नहीं है कि गरीबी रेखा का मौजूदा सरकारी पैमाना न सिर्फ धोखा है बल्कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या कुल आबादी का 28 फीसदी होने का दावा भी फर्जी है। इस दावे की पोलपट्ठी हल ही में जारी असंगठित क्षेत्र के उस सरकारी सर्वेक्षण ने खोल दी है जिसके मुताबिक देश की कुल आबादी का 77 प्रतिशत हिस्सा प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम की आय में गुजर-बसर करता है। लेकिन योजना आयोग अभी गरीबी रेखा के अपने संदिग्ध दावे के साथ न सिर्फ चिपका हुआ है बल्कि उसे उम्मीद है कि 11 पंचवर्षीय योजना के दौरान 9 प्रतिशत आर्थिक विकास दर के जरिए वह गरीबी रेखा के नीचे रहनेवाली आबादी में 10 फीसदी की कमी लाने में कामयाब रहेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि योजना आयोग ने 11वीं योजना के दौरान 9 प्रतिशत की तीव्र विकास दर के बावजूद गरीबों की संख्या में सालाना औसतन 2 प्रतिशत की कमी का लक्ष्य तय किया है।
इससे 11वीं योजना की दरिद्रता का अनुमान लगाया जा सकता है। वैसे गरीबों की तादाद में सालाना 2 फीसदी की कमी का लक्ष्य भी काफी महत्वाकांक्षी दिखता है, अगर उसकी तुलना गरीबी उन्मूलन के हालिया प्रदर्शन से की जाए। लेकिन अगर योजना आयोग के इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम मान भी लिया जाए तो इस रफ्तार से देश से सरकारी गरीबी रेखा को मिटाने में अभी तीन पंचवर्षीय योजनाएं और खप जाएंगी।
साफ है कि पिछली पंचवर्षीय योजनाओं की तरह 11वीं योजना भी गरीबी के अभिशाप को मिटाने में कामयाब नहीं हो पाएगी। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि गरीबी खत्म करना संभव नहीं है या यह कोई ऐसी समस्या है जो पंचवर्षीय योजनाओं या अर्थनीति के जरिए हल नहीं हो सकती है।
लेकिन गरीबी खत्म करने के लिए सिर्फ 9 से 10 प्रतिशत की विकास दर के टोटके पर भरोसा करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला हैं। विकास दर को साध्य मानकर चलने वाली 11वीं योजना गरीबी और बेरोजगारी उन्नमूलन को उच्च विकास दर के बाइ प्रोडक्ट के रुप में देखने की भूल दोहरा रही है। जबकि अनुभव यह बताता है कि उदारीकरण के दौर में उच्च विकास दर का लाभ देश के कुछ हिस्सों और आबादी के 15-20 फीसदी हिस्से तक ही सीमित हो गया है। यही कारण है कि इस बीच क्षेत्रीय विषमता और गैर-बराबरी के साथ-साथ अमीर और गरीब, शहर और गॉंव, कृषि और उद्योग/ सेवा क्षेत्र के बीच की खाई और चौड़ी हुई है। यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे काफी समय तक नकारने के बाद अब उदारीकरण के पैरोकार भी स्वीकार करने लगे हैं।
11वीं योजना का दस्तावेज भी इस सच्चाई को स्वीकार करता है। लेकिन जैसे आदतें बहुत मुश्किल से छुटती हैं, वैसे ही उदारीकरण के विचार और बाजार में अटूट आस्था से पीछा छुड़ाने में भी यूपीए सरकार नाकाम रही हैं। 11वीं योजना का प्रारुप इसका सबूत है। इसमें कृषि संकट से निपटने को प्राथमिकता देने की बात कही गयी है। लेकिन तथ्य यह है कि कृषि संकट का सीधा संबंध उदारीकरण की अर्थनीति से है जिसके तहत न सिर्फ कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में कटौती की गयी, सब्सिडी कटौती के नाम पर बिजली-पानी-खाद-कीटनाशकों की कीमतें बेतहाशा बढ़ायी गयीं बल्कि किसानों को सस्ते कृषि उत्पादों के आयात से मुकाबले के लिए अकेला छोड़ दिया गया।
ऐसे में 11वीं योजना से यह उम्मीद थी कि वह कृषि संकट से निपटने के लिए वैकल्पिक उपायों का प्रस्ताव करेगा। लेकिन अफसोस की बात यह है कि वह न सिर्फ पिटे-पिटाए उपायों को ही नई शब्दावली में फिर पेश करता है बल्कि कृषि संकट से निपटने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल देता है। इसी तरह, 11वीं योजना के दौरान रोजगार के 7 करोड़ नए अवसर पैदा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है लेकिन सारी उम्मीद निजी क्षेत्र से हैं। इस तरह से कोई 27 राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं लेकिन उनमें से अधिकांश ऐसे हैं जो मौजूदा नीतियों, कार्यक्रमों की रफ्तार और दिशा को देखते हुए आकाशकुसुम से दिखते हैं। जैसे 2012 तक 24 घंटे बिजली की उपलब्धता और सभी गांवों को ब्राडबैंड से जोड़ने का दावा। साफ है, आप चाहें तो मुंगेरीलाल के हसीन सपने 11 वीं योजना के दस्तावेज में भी देख सकते हैं।
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