शनिवार, जनवरी 05, 2008

लोकलुभावन राजनीति के दबाव में अर्थव्यवस्था

वर्ष 2008 अर्थव्यवस्था के लिए नई चुनौतियां लेकर आ रहा है। अब यह आशंका सच साबित होती दिखाई पड़ रही है कि इस साल अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गति न सिर्फ धीमी रहेगी बल्कि वह मंदी का भी शिकार भी हो सकती है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मंदी का जुकाम होने का अर्थ यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी छींकती नजर आएगी। इस कारण अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि इस वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था की गति भी धीमी रहेगी।

हालांकि यूपीए सरकार का दावा है कि अर्थव्यवस्था की गति 9 फीसदी से अधिक रहेगी लेकिन अधिकांश स्वतंत्र विश्लेषकों का मानना है कि इस साल अर्थव्यवस्था 7 से लेकर 8 फीसदी की रफ्तार से आगे बढ़ेगी। अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ने का अर्थ यह है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के पहले वर्ष में सरकार 9 फीसदी की विकास दर हासिल नहीं कर पाएगी। लेकिन उससे बड़ी चुनौती यह है कि कृषि की विकास दर में अपेक्षित वृद्वि होगी कि नहीं।

दरअसल, पिछले कुछ वर्षों से कृषि की विकास दर औसतन 2 फीसदी के आसपास चल रही है। जबकि 9 फीसदी की कुल विकास दर के लिए कृषि की विकास दर का 4 फीसदी तक पहुंचना बहुत जरूरी है। यह इसलिए भी जरूरी है कि कृषि क्षेत्र जिस संकट से गुजर रहा है उससे बाहर निकलने के लिए कृषि क्षेत्र की विकास दर को 2 फीसदी की "हिन्दू विकास दर" के दुष्चक्र को तोड़ना होगा।

कृषि क्षेत्र का मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह वर्ष चुनाव का साल है। इस साल न सिर्फ कई महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं बल्कि आम चुनावों के भी आसार हैं। चुनावों के लिहाज से कृषि क्षेत्र की बदहाली और किसानों की आत्महत्याएं बहुत संवेदनशील मुद्दा हैं। यूपीए सरकार को निश्यच ही एनडीए सरकार के हश्र की याद होगी। तेज विकास दर के बावजूद कृषि क्षेत्र की बदहाली के कारण एनडीए को पिछले चुनावों में मात खानी पड़ी थी।
 
लेकिन अफसोस की बात यह है कि आम आदमी और किसानों के दर्द का हवाला देकर सत्ता में पहुंची कांग्रेस भी पिछले चार वर्षों से 8 से 9 फीसदी विकास दर की मृग-मरीचिका में ऐसी फंसी हुई है कि उसने कृषि क्षेत्र के लिए कुछ आयोगों को बैठाने, हवाई पैकेजों की घोषणाओं और उंचे-उंचे दावों के अलावा कुछ नहीं किया।
 
कृषि मंत्री शरद पवार को कृषि से ज्यादा क्रिकेट की चिंता रहती है। अब जब चुनाव सिर पर हैं और कई राज्यों में कांग्रेस मात खा चुकी है तो उसे किसानों और कृषि की याद आ रही है।

ऐसी खबरें आ रही हैं कि मनमोहन सिंह सरकार कृषि क्षेत्र के लिए खासकर किसानों के कर्जों को माफ करने के लिए एक बड़े पैकेज की तैयारी कर रही है। इससे स्पष्ट है कि इस साल अर्थव्यवस्था पर राजनीति की छाया रहेगी। हालांकि आर्थिक उदारीकरण के दौर में मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम जैसे आर्थिक सुधारों के रचनाकार राजनीति और अर्थव्यवस्था को अलग-अलग रखने पर जोर देते रहे हैं लेकिन विडंबना देखिए कि इन दोनों महानुभावों के नेतृत्व में इस साल चुनाव वर्ष में अर्थव्यवस्था पूरी तरह से राजनीति से निर्देशित रहेगी।

इसके संकेत भी दिखने लगे हैं। इस बात के पक्के आसार हैं कि अगला बजट पूरी तरह से चुनावों को समर्पित होगा। इसके तहत सरकार मध्यवर्ग को खुश करने के लिए टैक्स में कटौती की तैयारी कर रही है। तर्क यह दिया जा रहा है कि चालू वित्तीय वर्ष में प्रत्यक्ष करों की वसूली में 42 फीसदी से अधिक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। अनुमान है कि चालू साल में प्रत्यक्ष करों से  2.67 लाख करोड़ की वसूली के लक्ष्य की तुलना में लगभग 3 लाख करोड़ रूपए सरकारी खजाने में आ सकते हैं।

जाहिर है कि इससे सरकार का हौसला बढ़ा हुआ है। वह मध्यवर्ग को खुश करने के लिए आयकर और कॉरपोरेट करों में कटौती के साथ-साथ कर छूटों का दायरा भी बढ़ाने का मन बना चुकी है। इस लोकलुभावन कदम से मध्य और अमीर वर्गों को फायदा जरूर होगा लेकिन एक ऐसे वर्ष में जब अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ती दिख रही हो और सरकार अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों विशेषकर आधारभूत ढांचा और सामाजिक ढांचा क्षेत्र में नए निवेश करने के लिए संसाधनों का रोना रो रही हो, उस समय टैक्स में कटौती का फैसला न सिर्फ सरकारी खजाने पर भारी पड़ सकता है बल्कि नए निवेश को भी प्रभावित कर सकता है।

यूपीए सरकार यह भूल रही है कि उसने 11वीं पंचवर्षीय योजना में आधारभूत ढांचे और सामाजिक ढांचे को मजबूत बनाने के लिए भारी सार्वजनिक निवेश का वायदा किया है। लेकिन तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए अगर उसने टैक्स दरों में कटौती और छूट देने का फैसला किया तो उसका असर निश्चित रूप से सार्वजनिक निवेश पर पड़ेगा। इसकी वजह यह है कि चिदंबरम वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन कानून के तहत वित्तीय और राजस्व घाटे को एक निश्चित सीमा में रखने के प्रावधान से बंधे हुए हैं।

इसलिए टैक्स दरों में कटौती और छूट के कारण सरकार की आय में गिरावट आती है तो वित्तीय और राजस्व घाटे को काबू में रखने के दबाव के कारण वित्तमंत्री विकास के लिए जरूरी सार्वजनिक निवेश को नहीं बढ़ा पाएंगे। सवाल यह है कि क्या वर्तमान के लिए भविष्य को दांव पर लगाया जा सकता है...?

1 टिप्पणी:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

वर्तमान के लिए भविष्य तो कब से दांव पर लगाया जा रहा है। हमे तो भविष्य का कोई भविष्य ही नजर नहीं आता है।