मुद्रास्फीति से अधिक खतरनाक है कृषिस्फीति
केन्द्र सरकार ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं की ऊंची कीमतों और सरकारी गोदामों में पर्याप्त उपलब्धता का हवाला देकर गेहूं आयात के लिए जारी टेंडर को रद्द करने की घोषणा की है। अच्छा है कि देर से सही लेकिन सरकार को अक्ल आ गयी।
हालांकि गेहूं आयात का टेंडर रद्द करने का कारण वह नहीं है जो वाणिज्य सचिव बता रहे हैं। सरकार को अक्ल गुजरात चुनाव में हार और बढ़ती अलोकप्रियता के बीच अगले आम चुनाव में हार के भय के कारण आयी है। अन्यथा अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कीमतें आज नहीं, पिछले कई महीनों से ऊपर चढ़ी हुई हैं। इसके बावजूद अपने किसानों को दी जी रही कीमतों से दुगुनी कीमत पर गेहूं आयात करने के फैसले के कारण यूपीए सरकार की पिछले कई महीनों से आलोचना हो रही थी।
तथ्य यह है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों से खासकर 2005 के बाद से अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं सहित अधिकांश अनाजों की कीमत लगातार बढ़ रही है। पिछले साल गेहूं सहित चावल, मक्का, खाद्य तेलों आदि की कीमतों में भारी बढ़ोतरी दर्ज की गयी है। इस बढ़ोतरी का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि मशहूर साप्ताहिक पत्रिका 'इकॉनोमिस्ट` का खाद्य मूल्य सूचकांक 1845 के बाद से अब तक के अपने सबसे रिकार्ड ऊंचाई पर पहुंच गया है।
वास्तविक कीमतों में भी अनाजों की कीमत में 2005 के बाद से 75 फीसदी की वृद्धि हुई है। यह वृद्धि इसलिए भी चुभने वाली है क्योंकि 1974 से 2005 के बीच 30 वर्षों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में अनाजों की कीमतों में वास्तविक मूल्यों में 75 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी थी।
लेकिन अब पिछले दो वर्षों में अनाजों की कीमतों में आयी भारी उछाल के बीच `इकॉनोमिस्ट` पत्रिका का कहना है कि सस्ती रोटी का जमाना गया। कहने का अर्थ यह है कि अनाजों की कीमतों में यह उछाल सिर्फ तात्कालिक और इस कारण अस्थायी परिघटना नहीं है बल्कि आने वाले वर्षों में भी कीमतों में तेजी का यह रुख बना रहेगा। दुनिया अनाजों की कीमतों में तेजी यानी कृषिस्फीति (एजफ्लेशन) के दौर में प्रवेश कर गयी है।
`इकॉनोमिस्ट` के मुताबिक दुनिया भर में खानपान के तौर -तरीकों में हो रहे संरचनात्मक परिवर्तनों के अलावा जैव ईंधन के बतौर एथनॉल की बढ़ती मांग, घटती उत्पादकता और जलवायु परिवर्तन आदि ऐसे प्रमुख कारण हैं जिनकी वजह से आने वाले वर्षों में भी अनाजों की कीमतें चढ़ी रहेगीं।
यही नहीं, अनाजों की कीमतों के मामले में भी सबसे अधिक दबाव गेहूं, चावल, मक्के, दालों और खाद्य तेलों की कीमतों पर रहेगा। भारत जैसे देश के लिए यह न सिर्फ गंभीर चिंता की बात है बल्कि राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक स्थिरता और विकास के लिए एक बड़ी चुनौती भी है।
इसकी वजह यह है कि अनाजों के महंगा होने के कारण करोड़ों गरीबों के लिए दो जून की रोटी भी मुहाल हो जाएगी। विश्व खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ ) के अनुसार भारत की कुल आबादी के लगभग 20 फीसदी लोगों को दोनों जून भरपेट भोजन नहीं मिलता है और वे भूखमरी और कुपोषण से जूझ रहे हैं।
जहिर है कि अनाजों की कीमतें इसी तरह बढ़ती रहीं तो ऐसे लोगों की तादाद कम से कम डेढ़ से दोगुनी बढ़ जाएगी। यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर दिखायी जा रही संख्या नहीं है।
असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों की हालत का जायजा लेने के लिए गठित सेनगुप्ता समिति ने आंख खोल देने वाली रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि देश में 77 फीसदी कामगारों को प्रतिदिन 20 रुपये से भी कम की आय पर गुजर-बसर करना पड़ता है।
उन्हें अपनी आय का बड़ा हिस्सा किसी तरह दो जून की रोटी जुटाने पर खर्च करना पड़ता है। इससे गरीबों और वंचितों में बेचैनी बढ़ेगी और इसका सीधा असर देश की राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक स्थिरता पर पड़ेगा ।
इसके संकेत दिखने भी लगे हैं। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के कई जिलों में अनाजों की बढ़ती कीमत के बीच सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस ) में अनाजों की चोरी आदि के कारण पैदा हुई किल्लत से राजनीतिक-सामाजिक असंतोष सड़कों पर फूट पड़ा। इससे पहले छत्तीसगढ़ में आदिवासियों ने एफसीआई के गोदाम पर हमलाकर अनाज लूट लिया था।
कहने की जरुरत नहीं है की अगर अनाजों की कीमतों पर अंकुश लगाने और उनकी पर्याप्त उपलब्ध्ता सुनिश्चित करने के ठोस घरेलू उपाय नहीं किए गए तो वह दिन दूर नहीं जब देश के कई हिस्सों में अफ्रीकी देशों की तरह `खाद्य दंगे` भड़क उठेंगे।
जाहिर है कि यह कोई सामान्य चुनौती नहीं है। अनाजों की बढ़ती कीमतों से निपटने के लिए यूपीए सरकार को प्राथमिकता के आधार पर चौतरफा कदम उठाने पड़ेंगे। उसे न सिर्फ अनाजों खासकर गेहूं और चावल की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करवाने के वास्ते अंतरराष्ट्रीय बाजार से आयात करने के बजाय घरेलू खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा बल्कि गरीबों ओर वंचितों को सस्ते दर पर पर्याप्त अनाज उपलब्ध करानें के लिए पीडीएस को चुस्त -दुरुस्त करना होगा।
खाद्यान्न संकट से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार से आयात या घरेलू बाजार और निजी कम्पनियों पर भरोसा करने की नीति छोड़नी होगी क्योंकि उसकी सीमाएं पहले ही उजागर हो चुकी हैं और अब वे समस्या का हल नहीं बल्कि स्वयं समस्या का हिस्सा हैं।
लेकिन यह कहना जितना आसान है, यूपीए सरकार के लिए करना उतना ही मुश्किल है। दरअसल, समस्या की जड़ में कृषि संकट है जो आर्थिक उदारीरण के पिछले एक दशक में लगातार गहराता गया है। इस कृषि संकट की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि एक ओर किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और दूसरी ओर करोड़ों देशवासी भूखे पेट सो रहे हैं।
स्थिति कितनी गंभीर और चिंताजनक है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 10वीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) के दौरान खाद्यान्नों का उत्पादन नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002 ) से भी कम रहा।
हालत यह हो गयी है कि 1991-95 के बीच प्रति व्यक्ति अनाजों का उत्पादन 192 किलोग्राम था जो 2004-07 के बीच घटकर सिर्फ 174 किलोग्राम रह गया है। दालों का उत्पादन 15 किग्रा/प्रति व्यक्ति से घटकर 12 किग्रा /प्रति व्यक्ति रह गया है।
इसका अर्थ यह हुआ कि देश में खाद्यान्नों का प्रति व्यक्ति उत्पादन फिलहाल 70 के दशक के स्तर पर पहुंच गया है । यही नहीं, खाद्यान्नों के उत्पादन की वृद्धि दर जनसंख्या वृद्धि दर से नीचे चली गयी है। ऐसा नहीं है कि इस खाद्य संकट की भयावहता का अंदाजा यूपीए सरकार को नहीं है।
खुद प्रधानमंत्री ने योजना आयोग की बैठक में स्वीकार किया है कि आने वाले दशक में खाद्य सुरक्षा गहरे दबाव में होगी। इसके मद्देनजर सरकार ने 11वीं योजना में कृषि को पहली प्राथमिकता देने का एलान किया है। राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में कृषि पर एक प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन शुरू करने की घोषणा की गयी है।
इसके तहत केन्द्र सरकार ने वर्ष 2006-07 को आधार वर्ष मानकर अगले चार वर्षों में गेहूं का 80 लाख टन, चावल का 100 लाख टन और दालों का 20 लाख टन अतिरिक्त उत्पादन करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए ठोस उपाय करने के बजाय मनमोहन सिंह सरकार ने कृषि को राज्यों का विषय बताते हुए जिम्मेदारी उनके माथे पर डाल दी है। वित्तीय संकट से जूझ रही राज्य सरकारों के लिए यह जिम्मेदारी उठाना संभव नहीं है।
नतीजा वही ढाक के तीन पात। अफसोस की बात यह है कि यूपीए सरकार कृषि के प्रति उपेक्षा को 11वीं योजना के दौरान सुधारने के न सिर्फ एक और अवसर को गंवा रही है बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा को दांव पर लगा रही है।
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