बुधवार, जनवरी 11, 2012

विधानसभा चुनावों में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा है...कोई शक?


कोई भी पार्टी नहीं चाहती है भ्रष्टाचार मुद्दा बने क्योंकि कहीं न कहीं सभी की पूंछ दबी है


पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की सरगर्मियां तेज होने लगी है. इन चुनावों खासकर राजनीतिक रूप से संवेदनशील उत्तर प्रदेश के नतीजों पर पूरे देश की निगाहें लगी हैं. इन चुनावों से न सिर्फ इन राज्यों में मौजूदा राज्य सरकारों और उन्हें चुनौती दे रही पार्टियों के भाग्य का फैसला होगा बल्कि इनसे केन्द्र की सत्ता और आगे की राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी तय होगी.

इन चुनावों को यूँ ही २०१४ के आम चुनावों के महासंग्राम से पहले का सेमीफाइनल नहीं माना जा रहा है. लेकिन ये चुनाव इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं कि पिछले साल अन्ना हजारे की अगुवाई में चले भ्रष्टाचार विरोधी और जन लोकपाल समर्थक आंदोलन की छाया में हो रहे हैं.

इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने पिछले साल जिस तरह से देश भर में आम जनमानस को झकझोरा और समूचे राजनीतिक तंत्र को कटघरे में खड़ा कर दिया, उसके राजनीतिक-सामाजिक और नैतिक प्रभाव की असली परीक्षा का समय आ गया है. सवाल यह है कि क्या इन चुनावों में भ्रष्टाचार मुद्दा है?

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन सभी राज्यों में मौजूदा राज्य सरकारें भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी हैं. चाहे वह उत्तर प्रदेश में बसपा की मायावती सरकार हो या पंजाब में शिरोमणि अकाली दल-भाजपा की प्रकाश सिंह बादल और उत्तराखंड में भाजपा की पहले रमेश पोखरियाल निशंक और अब भुवन चन्द्र खंडूरी की सरकार या फिर गोवा और मणिपुर में कांग्रेस की दिगंबर कामत और इबोबी सिंह की सरकारें- भ्रष्टाचार के मामले में कोई किसी से पीछे नहीं है.

सभी ने पांच वर्षों तक जमकर सत्ता का दुरुपयोग किया है और सार्वजनिक धन की लूट के नए रिकार्ड बना दिए हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि इन सभी राज्यों में सत्ता चाहे किसी भी पार्टी की हो लेकिन एक बात आम है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे एक छोटे से गिरोह के नेतृत्व में केंद्रीकृत और संगठित लूट की खुली व्यवस्था कायम कर दी गई है.

नतीजा, इन राज्यों में भ्रष्टाचार इस तरह संस्थाबद्ध हो चुका है कि आम नागरिकों खासकर गरीबों और कमजोर वर्गों को हर छोटे-बड़े सरकारी काम के लिए कदम-कदम पर नेताओं, सत्ता के दलालों, छोटे-बड़े सरकारी अफसरों और अपराधियों की लूट-खसोट का शिकार होना पड़ता है.

यही नहीं, उनके वाजिब हकों और गरीबों और कमजोर वर्गों के लिए बनी सरकारी योजनाओं के पैसे को ऊपर ही ऊपर लूट लिया जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन राज्यों में आम लोगों के लिए यह भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है. लोग लूट-खसोट की व्यवस्था का अंत और इससे मुक्ति चाहते हैं.

यही कारण है कि इन सभी राज्यों में बदलाव का माहौल है. लेकिन आम वोटरों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वे किस पर भरोसा करें? सत्ता की दावेदार सभी पार्टियां, चाहे वे सरकार में हों या विपक्ष में, बिना किसी अपवाद के भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी हुई हैं.

यही कारण है कि आम वोटरों के बीच भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा होते हुए भी पार्टियों के लिए यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है. असल में, सत्ता की दावेदार किसी भी पार्टी में भ्रष्टाचार के मुद्दे को उठाने का नैतिक साहस नहीं है क्योंकि सभी के दामन पर भ्रष्टाचार के छींटें चमक रहे हैं.

आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस-भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों से लेकर बसपा, सपा, अकाली दल जैसे क्षेत्रीय दलों तक सभी एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप जरूर लगा रहे हैं लेकिन इस मुद्दे पर आम वोटरों को कोई भी दल उद्वेलित नहीं कर पा रहा है.

इससे सत्ता की होड़ में शामिल राजनीतिक पार्टियों को यह भ्रम हो गया है कि वोटरों के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. इससे उनका हौसला इतना बढ़ गया है कि वे एक ओर धड़ल्ले से जातिवादी-सांप्रदायिक-क्षेत्रीय कार्ड खेल रही हैं, वहीँ दूसरी ओर, वोटरों को खरीदने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है और अपराधियों-माफियाओं का सहारा लिया जा रहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि हमेशा ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की दुहाई देनेवाली और ‘भय, भूख और भ्रष्टाचार’ मुक्त राजनीति के दावे करनेवाली भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बसपा राज में घोटालों के प्रतीक बन गए बाबू सिंह कुशवाहा समेत बसपा सरकार से भ्रष्टाचार के आरोपों में निकाले गए कई पूर्व मंत्रियों को न सिर्फ पार्टी में ससम्मान शामिल किया है बल्कि उनमें से अधिकांश को चुनाव मैदान में भी उतार दिया है.

साफ़ है कि भाजपा के लिए चुनावों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. उनके लिए यह सिर्फ प्रचार का मुद्दा है, व्यवहार का नहीं. उसके लिए सबसे बड़ा मुद्दा किसी भी तरह से चुनाव जीतना है. चुनाव जीतने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार है.

लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि कुछ हद तक वामपंथी पार्टियों को छोडकर इस बीमारी से भाजपा ही नहीं, कोई भी पार्टी अछूती नहीं है. फर्क यह है कि इस बार भाजपा व्यावहारिक राजनीति के नाम पर उत्तर प्रदेश में कुछ ज्यादा ही नंगी और बेशर्म हो गई है.

निश्चय ही, इस स्थिति को भांप कर ही अन्ना हजारे ने इन चुनावों से दूर रहने का फैसला किया है क्योंकि उनके कांग्रेस विरोधी प्रचार की धार भ्रष्टाचार के मामले में उसी तरह नंगे और बेशर्म विपक्ष ने कुंद कर दी है.

लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शुरू हुई लड़ाई मंजिल पर पहुँचने से पहले ही लड़खड़ाने लगी है? ऐसा सोचना थोड़ी जल्दबाजी होगा. सच यह है कि इस देश में वोटरों ने अपने फैसले से राजनीतिक तंत्र को हमेशा चौंकाया और छकाया है.

इसलिए इन चुनावों में बहुत संभव है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आम वोटरों के गुस्से का निशाना सत्तारूढ़ पार्टियां बनें और विपक्ष को इसका नकारात्मक फायदा मिल जाए. इस देश में सरकारों और पार्टियों को सबक सिखाने का वोटरों का अपना ही तरीका है.

लेकिन इस आधार पर किसी पार्टी विशेष के जीतने से यह निष्कर्ष निकालने की भूल न की जाए कि आम लोगों के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. अलबत्ता, उसके लिए भ्रष्टाचार चुनाव से ज्यादा सड़क की लड़ाई बन गई है क्योंकि चुनावों में सभी पार्टियों ने एक नापाक गठजोड़ बनाकर एक मुद्दे के बतौर भ्रष्टाचार को बेमानी बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखा है.

(दैनिक 'नया इंडिया' में ९ जनवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)

कोई टिप्पणी नहीं: