सरकार के पास इन सभी समस्याओं का एक ही जादुई हल है- खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को न्यौता
यही हाल महंगाई यानी मुद्रास्फीति का है जो साल भर अर्थव्यवस्था और आम आदमी दोनों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बनी रही. लेकिन मजा देखिए कि सरकार महंगाई के साथ लाल बुझक्कडों की तरह निपटने की कोशिश करती रही. प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्रालय के अफसर तक मुद्रास्फीति दर के काबू में आने की तारीख पर तारीख घोषित करते रहे लेकिन महंगाई बेकाबू बनी रही.
सरकार और अर्थव्यवस्था के मैनेजर महंगाई के मर्ज को कभी ठीक से समझ नहीं पाए और आखिरकार महंगाई से निपटने का सारा जिम्मा रिजर्व बैंक को सौंप कर खुद हाथ पर हाथ धरकर बैठ गए.
रिजर्व बैंक के पास मौद्रिक उपायों के अलावा और कोई उपाय नहीं था. नतीजा, रिजर्व बैंक ने इस साल आधा दर्जन से अधिक बार ब्याज दरों में वृद्धि की लेकिन मुद्रास्फीति की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. लगभग पूरे साल मुद्रास्फीति की दर दोहरे अंकों के आसपास बनी रही.
हालांकि साल के आखिरी सप्ताहों में खाद्य मुद्रास्फीति की दरों में अच्छी खासी गिरावट दर्ज की गई है लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस गिरावट का आम मुद्रास्फीति दर पर कितना असर पड़ा है क्योंकि नवंबर महीने तक मुद्रास्फीति की दर ९.११ फीसदी पर टिकी हुई है.
दूसरी बात यह है कि मुद्रास्फीति की दर में गिरावट का मतलब यह नहीं है कि महंगाई कम हो रही है. सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर में यह कमी सांख्यिकीय चमत्कार है जो पिछले वर्ष के ऊँचे आधार के कारण संभव हुई है. इसके अलावा मुद्रास्फीति की दर में यह कमी कुछ खाद्य वस्तुओं खासकर फलों, सब्जियों आदि की कीमतों में आई सीजनल कमी के कारण है.
इससे उपभोक्ताओं को थोड़ी राहत जरूर मिली है लेकिन इसके स्थाई होने में संदेह है क्योंकि आम खाद्य वस्तुओं की कीमतों में कोई कमी नहीं आई है. इसके अलावा महंगाई मैन्युफैक्चरिंग वस्तुओँ को अपने लपेटे में ले चुकी है.
लेकिन इसके साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था के विरोधाभास भी खुलकर सामने आने लगे हैं. एक ओर सब्जियों आदि की कीमतों में कमी के कारण खाद्य मुद्रास्फीति दर में कमी पर खुशियाँ मनाई जा रही हैं लेकिन दूसरी ओर, पंजाब से लेकर महाराष्ट्र तक और गुजरात से लेकर उत्तराखंड तक के किसान अपने उत्पादों खासकर आलू, प्याज और टमाटर की उचित कीमत न मिलने के कारण रो रहे हैं. नाराजगी में अपनी फसल सडकों पर फेंक रहे हैं. कल तक आम आदमी महंगाई से त्रस्त था और आज किसान लुटा-पिटा महसूस कर रहा है.
हैरानी की बात नहीं है कि एक बार फिर देश के कई हिस्सों से किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं. किसानों की हताशा का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आंध्र प्रदेश में पहली बार पूर्वी गोदावरी जिले के किसानों ने ‘कृषि अवकाश’ यानी खेत खाली छोड़ने का फैसला किया है. इस सामान्य घटना नहीं है.
यह खतरे की घंटी है खासकर यह देखते हुए कि सरकार ने आख़िरकार काफी ना-नुकुर और दाएं-बाएं करने के बाद भोजन के अधिकार का कानून बनाने के लिए पहला कदम बढ़ा दिया है. सरकार जितनी जल्दी हो, यह समझ जाए ले कि भोजन के अधिकार का कानून कृषि और किसानों की उपेक्षा करके लागू नहीं किया जा सकता है.
लेकिन सरकार के पास इन सभी समस्याओं का एक ही जादुई हल है और वह है- खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को न्यौता. आप भले सिर खुजाते रहें लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर युवराज राहुल गाँधी तक सभी पूरी तरह से मुतमईन हैं कि कृषि, किसानों और आम उपभोक्ताओं सभी की समस्याओं को अब वाल मार्ट और टेस्को जैसी बड़ी विदेशी कम्पनियाँ ही सुलझा सकती हैं.
वैसे ही जैसे सरकार ने मान लिया कि देश में गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी जैसी सभी समस्याओं के हल की कुंजी तेज विकास दर में है. मुद्रास्फीति से मुक्ति का जिम्मा रिजर्व बैंक के मत्थे है.
जैसे इतना ही काफी नहीं था. सरकार यह भी माने बैठी है कि गिरती वृद्धि दर खासकर औद्योगिक उत्पादन की दर में गिरावट से निपटने का जिम्मा भी उद्योग जगत का है. उद्योग जगत ही अर्थव्यवस्था में नया निवेश करेगा और उसे गति देगा.
सरकार और उद्योग जगत दोनों की राय है कि सरकार का असली काम सिर्फ आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाना और निजी पूंजी निवेश के अनुकूल माहौल बनाना है. गोया आर्थिक सुधार नहीं हुए, जादू की छड़ी हो गई जिसे घुमाते ही अर्थव्यवस्था की सारी दिक्कतें दूर हो जाएँगी.
यह और बात है कि अर्थव्यवस्था की बहुतेरी समस्याएं इन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के कारण पैदा हुई हैं. जैसे औद्योगिक उत्पादन की दर में गिरावट के पीछे एक बड़ा कारण सरकार का वित्तीय घाटे को कम करने के प्रति अतिरिक्त मोह है जिसके कारण अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश में कटौती की गई. नतीजा सबके सामने है. लेकिन लगता नहीं है कि सरकार में २०११ में इससे कोई सबक सीखा है.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में ३१ दिसम्बर'११ में प्रकाशित आलेख की दूसरी और आखिरी किस्त)
यही हाल महंगाई यानी मुद्रास्फीति का है जो साल भर अर्थव्यवस्था और आम आदमी दोनों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बनी रही. लेकिन मजा देखिए कि सरकार महंगाई के साथ लाल बुझक्कडों की तरह निपटने की कोशिश करती रही. प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्रालय के अफसर तक मुद्रास्फीति दर के काबू में आने की तारीख पर तारीख घोषित करते रहे लेकिन महंगाई बेकाबू बनी रही.
सरकार और अर्थव्यवस्था के मैनेजर महंगाई के मर्ज को कभी ठीक से समझ नहीं पाए और आखिरकार महंगाई से निपटने का सारा जिम्मा रिजर्व बैंक को सौंप कर खुद हाथ पर हाथ धरकर बैठ गए.
रिजर्व बैंक के पास मौद्रिक उपायों के अलावा और कोई उपाय नहीं था. नतीजा, रिजर्व बैंक ने इस साल आधा दर्जन से अधिक बार ब्याज दरों में वृद्धि की लेकिन मुद्रास्फीति की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. लगभग पूरे साल मुद्रास्फीति की दर दोहरे अंकों के आसपास बनी रही.
हालांकि साल के आखिरी सप्ताहों में खाद्य मुद्रास्फीति की दरों में अच्छी खासी गिरावट दर्ज की गई है लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस गिरावट का आम मुद्रास्फीति दर पर कितना असर पड़ा है क्योंकि नवंबर महीने तक मुद्रास्फीति की दर ९.११ फीसदी पर टिकी हुई है.
दूसरी बात यह है कि मुद्रास्फीति की दर में गिरावट का मतलब यह नहीं है कि महंगाई कम हो रही है. सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर में यह कमी सांख्यिकीय चमत्कार है जो पिछले वर्ष के ऊँचे आधार के कारण संभव हुई है. इसके अलावा मुद्रास्फीति की दर में यह कमी कुछ खाद्य वस्तुओं खासकर फलों, सब्जियों आदि की कीमतों में आई सीजनल कमी के कारण है.
इससे उपभोक्ताओं को थोड़ी राहत जरूर मिली है लेकिन इसके स्थाई होने में संदेह है क्योंकि आम खाद्य वस्तुओं की कीमतों में कोई कमी नहीं आई है. इसके अलावा महंगाई मैन्युफैक्चरिंग वस्तुओँ को अपने लपेटे में ले चुकी है.
लेकिन इसके साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था के विरोधाभास भी खुलकर सामने आने लगे हैं. एक ओर सब्जियों आदि की कीमतों में कमी के कारण खाद्य मुद्रास्फीति दर में कमी पर खुशियाँ मनाई जा रही हैं लेकिन दूसरी ओर, पंजाब से लेकर महाराष्ट्र तक और गुजरात से लेकर उत्तराखंड तक के किसान अपने उत्पादों खासकर आलू, प्याज और टमाटर की उचित कीमत न मिलने के कारण रो रहे हैं. नाराजगी में अपनी फसल सडकों पर फेंक रहे हैं. कल तक आम आदमी महंगाई से त्रस्त था और आज किसान लुटा-पिटा महसूस कर रहा है.
हैरानी की बात नहीं है कि एक बार फिर देश के कई हिस्सों से किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं. किसानों की हताशा का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आंध्र प्रदेश में पहली बार पूर्वी गोदावरी जिले के किसानों ने ‘कृषि अवकाश’ यानी खेत खाली छोड़ने का फैसला किया है. इस सामान्य घटना नहीं है.
यह खतरे की घंटी है खासकर यह देखते हुए कि सरकार ने आख़िरकार काफी ना-नुकुर और दाएं-बाएं करने के बाद भोजन के अधिकार का कानून बनाने के लिए पहला कदम बढ़ा दिया है. सरकार जितनी जल्दी हो, यह समझ जाए ले कि भोजन के अधिकार का कानून कृषि और किसानों की उपेक्षा करके लागू नहीं किया जा सकता है.
लेकिन सरकार के पास इन सभी समस्याओं का एक ही जादुई हल है और वह है- खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को न्यौता. आप भले सिर खुजाते रहें लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर युवराज राहुल गाँधी तक सभी पूरी तरह से मुतमईन हैं कि कृषि, किसानों और आम उपभोक्ताओं सभी की समस्याओं को अब वाल मार्ट और टेस्को जैसी बड़ी विदेशी कम्पनियाँ ही सुलझा सकती हैं.
वैसे ही जैसे सरकार ने मान लिया कि देश में गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी जैसी सभी समस्याओं के हल की कुंजी तेज विकास दर में है. मुद्रास्फीति से मुक्ति का जिम्मा रिजर्व बैंक के मत्थे है.
जैसे इतना ही काफी नहीं था. सरकार यह भी माने बैठी है कि गिरती वृद्धि दर खासकर औद्योगिक उत्पादन की दर में गिरावट से निपटने का जिम्मा भी उद्योग जगत का है. उद्योग जगत ही अर्थव्यवस्था में नया निवेश करेगा और उसे गति देगा.
सरकार और उद्योग जगत दोनों की राय है कि सरकार का असली काम सिर्फ आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाना और निजी पूंजी निवेश के अनुकूल माहौल बनाना है. गोया आर्थिक सुधार नहीं हुए, जादू की छड़ी हो गई जिसे घुमाते ही अर्थव्यवस्था की सारी दिक्कतें दूर हो जाएँगी.
यह और बात है कि अर्थव्यवस्था की बहुतेरी समस्याएं इन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के कारण पैदा हुई हैं. जैसे औद्योगिक उत्पादन की दर में गिरावट के पीछे एक बड़ा कारण सरकार का वित्तीय घाटे को कम करने के प्रति अतिरिक्त मोह है जिसके कारण अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश में कटौती की गई. नतीजा सबके सामने है. लेकिन लगता नहीं है कि सरकार में २०११ में इससे कोई सबक सीखा है.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में ३१ दिसम्बर'११ में प्रकाशित आलेख की दूसरी और आखिरी किस्त)
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