लेकिन नव उदारवादी सुधारों के प्रति व्यामोह से स्थिति और बिगड़ रही है
पहली किस्त
उम्मीदों के विपरीत भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह साल कोई खास अच्छा नहीं रहा. अर्थव्यवस्था के लिए इस साल की शुरुआत उम्मीदों के साथ हुई लेकिन साल का मध्य आते-आते अर्थव्यवस्था को जैसे झटके लगने लगे, उससे यह साफ़ होने लगा कि स्थिति कोई खास बेहतर नहीं रहनेवाली है.
अमेरिका से लेकर यूरोप तक में गहराते आर्थिक और वित्तीय संकट के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था पर मंडराते संकट के बादलों से यह स्पष्ट हो चुका था कि हालात बद से बदतर होनेवाले हैं. डी-कपलिंग के तमाम दावों के बावजूद २००८ की अमेरिकी मंदी के अनुभव से यह साफ़ हो चुका था कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की दोबारा डावांडोल होती स्थिति के प्रभाव से भारतीय अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रहनेवाली है.
रही-सही कसर देश के अंदर भ्रष्टाचार और घोटालों के गंभीर आरोपों से घिरी और अपने ही अंतर्विरोधों में फंसी यू.पी.ए सरकार के अनिर्णय और नव उदारवादी सुधारों के प्रति व्यामोह ने पूरी कर दी. नतीजा, साल के खत्म होते-होते अर्थव्यवस्था को लेकर एक गहरी निराशा का माहौल बन गया है.
अर्थव्यवस्था से आ रहे अधिकांश संकेत इस निराशा को गहरी कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, चालू वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में जी.डी.पी की वृद्धि दर गिरकर ६.९ प्रतिशत रह गई है जो पिछले दो वर्षों में अर्थव्यवस्था का सबसे खराब प्रदर्शन है.
हालांकि अमेरिका से लेकर यूरोप तक दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में यह फिर भी बेहतर प्रदर्शन है लेकिन अगर साल की शुरुआत खासकर फ़रवरी में पेश बजट में इस साल जी.डी.पी के ८.७५ प्रतिशत रहने के अनुमान से इसकी तुलना करें तो साफ़ है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति कमजोर हुई है.
यही नहीं, साल की शुरुआत में वित्त मंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों तक सभी इतने अपबीट थे कि जी.डी.पी के नौ प्रतिशत तक पहुँचने के दावे किये जा रहे थे. लेकिन अब हालत यह है कि खुद वित्त मंत्री चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी के ७.५ फीसदी रहने की उम्मीद जता रहे हैं.
लेकिन अर्थव्यवस्था के अधिकांश स्वतंत्र विश्लेषकों की राय है कि वित्त मंत्री के भाग्य अच्छे हुए तो वृद्धि दर ६.५ फीसदी से ७ फीसदी के बीच रह सकती है. अन्यथा स्थिति और भी बदतर हो सकती है. इसके संकेत भी मिल रहे हैं. जैसे औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर फिसलकर अक्टूबर में नकारात्मक – ५.१ प्रतिशत हो गई है.
पिछले २८ महीनों में औद्योगिक क्षेत्र का यह सबसे बदतर प्रदर्शन है. इसका सीधा असर शेयर बाजार के संवेदी सूचकांक- सेंसेक्स पर भी दिखाई पड़ रहा है जो पिछले साल की तुलना में इस साल कोई २३ फीसदी नीचे लुढ़क चुका है.
यही नहीं, डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में भी अच्छी-खासी लगभग १५ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. तथ्य यह है कि एशिया की अन्य मुद्राओं की तुलना में रूपये का प्रदर्शन सबसे बदतर है. रूपये की कीमत में गिरावट की एक बड़ी वजह यह है कि विदेशी निवेशक बाजार से डालर निकाल रहे हैं और नया विदेशी निवेश नहीं आ रहा है.
इससे रूपये पर दबाव बढ़ा है. कई बाजार विश्लेषकों का मानना है कि रूपये की कीमत में आई तेज गिरावट इस बात का सबूत है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति विदेशी निवेशकों का विश्वास कमजोर हुआ है.
लेकिन दूसरी ओर सरकार का दावा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की कमजोरियों और समस्याओं के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी हुई है पर चिंता की कोई बात नहीं है. अर्थव्यवस्था के बुनियादी आधारतत्व (फंडामेंटल्स) मजबूत हैं और जल्दी ही अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर आ जायेगी और तेज रफ़्तार से दौड़ने लगेगी.
कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार के दावे में एक तरह की निश्चिन्तता और खुशफहमी दिखती है जबकि बाजार विश्लेषकों के आकलन में जरूरत से ज्यादा घबराहट और निराशा दिखाई पड़ती है.
सच्चाई इन दोनों से अलग है. निश्चय ही, मौजूदा वैश्विक और घरेलू माहौल में ६.५ से लेकर ७ फीसदी की जी.डी.पी वृद्धि दर भी पर्याप्त है बशर्ते आप जी.डी.पी वृद्धि दर को ही अर्थव्यवस्था की मुक्ति न मानते हों और हमेशा नौ से दस फीसदी वृद्धि दर का राग अलापने में न जुटे रहते हों.
मुश्किल यह है कि मनमोहन सिंह सरकार खुद ही मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की तरह नौ से दस फीसदी की ऊँची वृद्धि दर के सपने देखती और दिखाती रहती है. ऐसे में, उसकी खुद की बनाई कसौटी पर अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन कमजोर है, इस तथ्य को वह कैसे नकार सकती है?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस साल भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन उसकी क्षमताओं और उम्मीदों से कहीं कम है. लेकिन मुद्दा केवल अर्थव्यवस्था की विकास दर नहीं है और न ही अकेले यह उसकी सेहत और बेहतरी का सबूत है. सच यह है कि अर्थव्यवस्था की तेज दर के बावजूद पिछले वर्षों में आम लोगों की स्थिति में कोई खास सुधार हुआ है और न ही उनकी परेशानियां और तकलीफें कम हुई हैं.
उदाहरण के लिए, पिछले वर्ष जी.डी.पी की अपेक्षाकृत ८.५ फीसदी की तेज रफ़्तार के बावजूद आम लोगों को आसमान छूती महंगाई रुलाती रही. यही नहीं, एन.एस.एस.ओ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष २००४-०९ के बीच ऊँची विकास दर के बावजूद यह ‘रोजगारविहीन विकास’ था जिसके कारण इन पांच वर्षों में रोजगार में वृद्धि दर लगभग नगण्य रही.
आश्चर्य नहीं कि इस साल विकसित देशों के संगठन – ओ.ई.सी.डी द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले वर्षों में जब देश में जी.डी.पी तेज वृद्धि दर के साथ बढ़ रही थी, उसी दौरान देश में अमीर-गरीब के बीच खाई भी तेजी से बढ़ रही थी.
इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत उन देशों में शामिल है जहां नव उदारवादी सुधारों के इस दौर में तेज विकास दर के बावजूद सबसे अधिक गैर बराबरी बढ़ी है. इसका सबसे बड़ा सबूत तो गरीबी रेखा के बारे में योजना आयोग का सुप्रीम कोर्ट में दिया गया वह हलफनामा है जिसमें ग्रामीण इलाकों में प्रति दिन २६ और शहरी इलाकों में ३२ रूपये से ऊपर की आमदनी वाले लोगों को गरीबी रेखा से बाहर कर दिया गया.
हैरानी की बात नहीं है कि गरीबी का मजाक उड़ानेवाली इस गरीबी रेखा को लेकर इस साल खूब हंगामा हुआ. सरकार ने भी माना कि यह गरीबी की वास्तविक रेखा नहीं है. लेकिन विडम्बना देखिए कि जिस गरीबी रेखा को ख़ारिज करने की बात की गई, वही गरीबी रेखा साल के बीतते-बीतते भोजन के अधिकार विधेयक में एक बार फिर आधिकारिक रेखा बनकर करोड़ों लोगों की रोटी का फैसला करने आ गई. कहते हैं कि ‘चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही पहले की तरह रहती हैं.’ गरीबी की परिभाषा पर इतनी सारी बहसों और चर्चाओं के बावजूद गरीबी रेखा जस की तस बनी हुई है.
कल भी जारी...
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप के ३१ दिसंबर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली किस्त)
पहली किस्त
उम्मीदों के विपरीत भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह साल कोई खास अच्छा नहीं रहा. अर्थव्यवस्था के लिए इस साल की शुरुआत उम्मीदों के साथ हुई लेकिन साल का मध्य आते-आते अर्थव्यवस्था को जैसे झटके लगने लगे, उससे यह साफ़ होने लगा कि स्थिति कोई खास बेहतर नहीं रहनेवाली है.
अमेरिका से लेकर यूरोप तक में गहराते आर्थिक और वित्तीय संकट के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था पर मंडराते संकट के बादलों से यह स्पष्ट हो चुका था कि हालात बद से बदतर होनेवाले हैं. डी-कपलिंग के तमाम दावों के बावजूद २००८ की अमेरिकी मंदी के अनुभव से यह साफ़ हो चुका था कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की दोबारा डावांडोल होती स्थिति के प्रभाव से भारतीय अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रहनेवाली है.
रही-सही कसर देश के अंदर भ्रष्टाचार और घोटालों के गंभीर आरोपों से घिरी और अपने ही अंतर्विरोधों में फंसी यू.पी.ए सरकार के अनिर्णय और नव उदारवादी सुधारों के प्रति व्यामोह ने पूरी कर दी. नतीजा, साल के खत्म होते-होते अर्थव्यवस्था को लेकर एक गहरी निराशा का माहौल बन गया है.
अर्थव्यवस्था से आ रहे अधिकांश संकेत इस निराशा को गहरी कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, चालू वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में जी.डी.पी की वृद्धि दर गिरकर ६.९ प्रतिशत रह गई है जो पिछले दो वर्षों में अर्थव्यवस्था का सबसे खराब प्रदर्शन है.
हालांकि अमेरिका से लेकर यूरोप तक दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में यह फिर भी बेहतर प्रदर्शन है लेकिन अगर साल की शुरुआत खासकर फ़रवरी में पेश बजट में इस साल जी.डी.पी के ८.७५ प्रतिशत रहने के अनुमान से इसकी तुलना करें तो साफ़ है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति कमजोर हुई है.
यही नहीं, साल की शुरुआत में वित्त मंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों तक सभी इतने अपबीट थे कि जी.डी.पी के नौ प्रतिशत तक पहुँचने के दावे किये जा रहे थे. लेकिन अब हालत यह है कि खुद वित्त मंत्री चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी के ७.५ फीसदी रहने की उम्मीद जता रहे हैं.
लेकिन अर्थव्यवस्था के अधिकांश स्वतंत्र विश्लेषकों की राय है कि वित्त मंत्री के भाग्य अच्छे हुए तो वृद्धि दर ६.५ फीसदी से ७ फीसदी के बीच रह सकती है. अन्यथा स्थिति और भी बदतर हो सकती है. इसके संकेत भी मिल रहे हैं. जैसे औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर फिसलकर अक्टूबर में नकारात्मक – ५.१ प्रतिशत हो गई है.
पिछले २८ महीनों में औद्योगिक क्षेत्र का यह सबसे बदतर प्रदर्शन है. इसका सीधा असर शेयर बाजार के संवेदी सूचकांक- सेंसेक्स पर भी दिखाई पड़ रहा है जो पिछले साल की तुलना में इस साल कोई २३ फीसदी नीचे लुढ़क चुका है.
यही नहीं, डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में भी अच्छी-खासी लगभग १५ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. तथ्य यह है कि एशिया की अन्य मुद्राओं की तुलना में रूपये का प्रदर्शन सबसे बदतर है. रूपये की कीमत में गिरावट की एक बड़ी वजह यह है कि विदेशी निवेशक बाजार से डालर निकाल रहे हैं और नया विदेशी निवेश नहीं आ रहा है.
इससे रूपये पर दबाव बढ़ा है. कई बाजार विश्लेषकों का मानना है कि रूपये की कीमत में आई तेज गिरावट इस बात का सबूत है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति विदेशी निवेशकों का विश्वास कमजोर हुआ है.
लेकिन दूसरी ओर सरकार का दावा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की कमजोरियों और समस्याओं के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी हुई है पर चिंता की कोई बात नहीं है. अर्थव्यवस्था के बुनियादी आधारतत्व (फंडामेंटल्स) मजबूत हैं और जल्दी ही अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर आ जायेगी और तेज रफ़्तार से दौड़ने लगेगी.
कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार के दावे में एक तरह की निश्चिन्तता और खुशफहमी दिखती है जबकि बाजार विश्लेषकों के आकलन में जरूरत से ज्यादा घबराहट और निराशा दिखाई पड़ती है.
सच्चाई इन दोनों से अलग है. निश्चय ही, मौजूदा वैश्विक और घरेलू माहौल में ६.५ से लेकर ७ फीसदी की जी.डी.पी वृद्धि दर भी पर्याप्त है बशर्ते आप जी.डी.पी वृद्धि दर को ही अर्थव्यवस्था की मुक्ति न मानते हों और हमेशा नौ से दस फीसदी वृद्धि दर का राग अलापने में न जुटे रहते हों.
मुश्किल यह है कि मनमोहन सिंह सरकार खुद ही मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की तरह नौ से दस फीसदी की ऊँची वृद्धि दर के सपने देखती और दिखाती रहती है. ऐसे में, उसकी खुद की बनाई कसौटी पर अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन कमजोर है, इस तथ्य को वह कैसे नकार सकती है?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस साल भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन उसकी क्षमताओं और उम्मीदों से कहीं कम है. लेकिन मुद्दा केवल अर्थव्यवस्था की विकास दर नहीं है और न ही अकेले यह उसकी सेहत और बेहतरी का सबूत है. सच यह है कि अर्थव्यवस्था की तेज दर के बावजूद पिछले वर्षों में आम लोगों की स्थिति में कोई खास सुधार हुआ है और न ही उनकी परेशानियां और तकलीफें कम हुई हैं.
उदाहरण के लिए, पिछले वर्ष जी.डी.पी की अपेक्षाकृत ८.५ फीसदी की तेज रफ़्तार के बावजूद आम लोगों को आसमान छूती महंगाई रुलाती रही. यही नहीं, एन.एस.एस.ओ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष २००४-०९ के बीच ऊँची विकास दर के बावजूद यह ‘रोजगारविहीन विकास’ था जिसके कारण इन पांच वर्षों में रोजगार में वृद्धि दर लगभग नगण्य रही.
आश्चर्य नहीं कि इस साल विकसित देशों के संगठन – ओ.ई.सी.डी द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले वर्षों में जब देश में जी.डी.पी तेज वृद्धि दर के साथ बढ़ रही थी, उसी दौरान देश में अमीर-गरीब के बीच खाई भी तेजी से बढ़ रही थी.
इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत उन देशों में शामिल है जहां नव उदारवादी सुधारों के इस दौर में तेज विकास दर के बावजूद सबसे अधिक गैर बराबरी बढ़ी है. इसका सबसे बड़ा सबूत तो गरीबी रेखा के बारे में योजना आयोग का सुप्रीम कोर्ट में दिया गया वह हलफनामा है जिसमें ग्रामीण इलाकों में प्रति दिन २६ और शहरी इलाकों में ३२ रूपये से ऊपर की आमदनी वाले लोगों को गरीबी रेखा से बाहर कर दिया गया.
हैरानी की बात नहीं है कि गरीबी का मजाक उड़ानेवाली इस गरीबी रेखा को लेकर इस साल खूब हंगामा हुआ. सरकार ने भी माना कि यह गरीबी की वास्तविक रेखा नहीं है. लेकिन विडम्बना देखिए कि जिस गरीबी रेखा को ख़ारिज करने की बात की गई, वही गरीबी रेखा साल के बीतते-बीतते भोजन के अधिकार विधेयक में एक बार फिर आधिकारिक रेखा बनकर करोड़ों लोगों की रोटी का फैसला करने आ गई. कहते हैं कि ‘चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही पहले की तरह रहती हैं.’ गरीबी की परिभाषा पर इतनी सारी बहसों और चर्चाओं के बावजूद गरीबी रेखा जस की तस बनी हुई है.
कल भी जारी...
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप के ३१ दिसंबर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली किस्त)
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