बुधवार, जनवरी 18, 2012

न्यू मीडिया के खिलाफ क्यों हैं सरकारें?

वैकल्पिक मीडिया की जरूरत पहले से भी ज्यादा बढ़ गई है

दूसरी और आखिरी किस्त


दुनिया की सबसे ताकतवर सरकारों ने जिस तरह से विकीलिक्स और उसके मुखिया जूलियन असांज को बर्बाद करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है, वह इसका प्रमाण है कि नए माध्यमों को काबू में करने के लिए खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा पहरुआ बतानेवाली सरकारें कहाँ तक जा सकती हैं.

यही नहीं, विकीलिक्स की मदद से यह भी खुलासा हुआ है कि दुनिया भर में सरकारें कितने बड़े पैमाने पर आम नागरिकों की जासूसी कर रही हैं. भारत भी इसका अपवाद नहीं है. नए माध्यमों खासकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स को सेंसर करने और उन्हें ‘साफ़-सुथरा’ बनाने (सैनिटाइज) को लेकर संचार मंत्री कपिल सिब्बल के बयान को इसी सिलसिले में देखा जाना चाहिए.


लेकिन सिब्बल के बयानों और कोशिशों का जिस तरह से विरोध हुआ है, उससे यह उम्मीद बंधी है कि कारपोरेट मीडिया से निराश और नए माध्यमों पर मौजूद आज़ादी का लुत्फ़ उठा रहे लोग इतनी आसानी से हथियार नहीं डालने वाले हैं.

अलबत्ता नए माध्यमों को सरकार और प्रभावशाली हित समूहों के बाद जिससे सबसे अधिक खतरा है, वह और कोई नहीं बल्कि उनके प्रोमोटर्स हैं जिनके बड़ी पूंजी से बहुत गहरे रिश्ते हैं. इस बारे में किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए.

सच यह है कि गूगल से लेकर फेसबुक तक और ट्विटर से लेकर यू-ट्यूब तक में अरबों डालर की पूंजी लगी हुई है और उनके दांव बहुत ऊँचे हैं. वे भी एक सीमा से अधिक जोखिम नहीं उठा सकते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि गूगल ने विभिन्न देशों की सरकारों से मिले अनुरोधों/निर्देशों के आधार पर ऐसा बहुत सारा कंटेंट हटाया है जिसमें राजनीतिक या राजनेताओं की आलोचना थी. लेकिन इसके बावजूद नए साल में गहराते आर्थिक-राजनीतिक संकट और उथल-पुथल के बीच नए माध्यमों खासकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स, विकीलिक्स जैसे साइट्स के अलावा वैकल्पिक राजनीति और विचारों को आगे बढ़ाने वाले रैडिकल समूहों और राजनीतिक संगठनों/दलों की वेब साइट्स की प्रासंगिकता बनी रहेगी.

वे लोगों में सूचना-विचार और संवाद की साझेदारी को बढ़ाने, उन्हें गोलबंद करने और सामूहिक कार्रवाइयों में उतारने में उल्लेखनीय भूमिका निभाते रहेंगे. लेकिन इसके साथ ही, सरकारों द्वारा उनकी सख्त निगरानी और उनके उपयोगकर्ताओं को व्यक्तिगत तौर पर दण्डित करने के मामले भी बढ़ेंगे.

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बीते वर्ष में भारत में भी भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों और जन लोकपाल के समर्थन में अन्ना हजारे के भूख हडतालों में लोगों खासकर शहरी मध्य वर्ग की अच्छी खासी भागीदारी दिखी. भारतीय न्यूज खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इस मौके को पेड न्यूज और नीरा राडिया प्रकरणों से अपनी साख पर लगे धक्के और अपने दाग-धब्बों को धोने के लिए किया.

कारपोरेट मीडिया खासकर न्यूज चैनलों ने अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को जिस तरह से गोद ले लिया और उस आंदोलन की गंगा में डुबकी लगाने लगे, उससे एकबारगी उनके खुद के पापों की चर्चा थम सी गई और वे ‘राजनीतिक रूप से सही जगह’ (पोलिटिकली करेक्ट) खड़े दिखाई पड़ने लगे.

लेकिन सच्चाई बहुत दिनों तक छिप नहीं सकी और जैसे-जैसे आंदोलन का ज्वार उतरने लगा, न्यूज चैनलों की असलियत भी सामने आने लगी. कारपोरेट भ्रष्टाचार के बारे में उनकी चुप्पी बोलने लगी. नतीजा, साल के उत्तरार्ध में प्रेस काउन्सिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने जिस तरह से न्यूज चैनलों के खिलाफ मोर्चा खोला और उसे लोगों का समर्थन भी मिला, उससे चैनलों के रेगुलेशन का सवाल फिर से सुर्ख़ियों में आ गया.

न्यूज चैनलों की एसोशियेशन- एन.बी.ए और ब्राडकास्ट एडीटर्स एसोशियेशन- बी.ई.ए सक्रिय हो गए और एक बार फिर से स्व-नियमन का राग अलापा जाने लगा. जस्टिस काटजू की झिडकी के बाद चैनलों ने सामूहिक रूप से तय किया कि वे एश्वर्य राय के बच्ची के जन्म की ‘खबर’ को संयत तरीके से कवर करेंगे.

मजे की बात यह है कि उन्होंने यह कर दिखाया. लेकिन कहते हैं कि हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और. एश्वर्य राय के मामले में सामूहिक कसम खाकर आत्म-नियमन का उदाहरण पेश कर चुके चैनल जल्दी ही अपने फार्म में आ गए. हैरानी की बात नहीं है कि साल के आखिरी दिनों में चैनल अचानक ‘गायब’ हो गईं पाकिस्तानी राखी सावंत कही जानेवाली टी.वी कलाकार वीना मलिक को खोजते नजर आए.

वीना मलिक के लिए चैनलों की चिंता और बेचैनी देखने लायक थी. लेकिन यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है और न ही कोई अपवाद है. अलबत्ता इससे तो यही लगता है कि एश्वर्य राय की बच्ची के मामले में चैनलों का संयम और धैर्य अपवाद था.

नियम अब भी सिनेमा, क्रिकेट, क्राइम, सेलिब्रिटीज ही हैं. वे ही अधिकांश चैनलों का न्यूज एजेंडा तय कर रहे हैं. साफ़ है कि आत्म-नियमन और बाजार में हमेशा बाजार ही हावी रहेगा. बाजार यानी टी.आर.पी की चौखट पर आत्म-नियमन की कुर्बानी चढ़ती रहेगी.

मजे की बात यह है कि इस साल न्यूज चैनलों में गुमशुदा ‘खबरों की वापसी’ की अफवाहें भी बहुत सुनाई पड़ती रहीं. लेकिन साल के गुजरते-गुजरते यह कहना मुश्किल है कि चैनलों पर खबरें कितनी लौटी हैं?

अलबत्ता खबरों के नाम पर इस साल हिंदी न्यूज चैनलों पर जिस तरह से स्पीड न्यूज, बुलेट न्यूज, न्यूज २०-२० और उनके दर्जनों क्लोन छा गए, उसे देखते हुए ‘खबरों की वापसी’ की रही-सही उम्मीद भी जाती रही.

समाप्त

('कथादेश' के जनवरी'१२ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)

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