नव उदारवादी अर्थनीति की बीन बजाने में जुटी है ‘आप’
उनके मुताबिक, गरीबों की मदद का सबसे बेहतर तरीका उनके लिए अलग से उपाय नहीं बल्कि बिजनेस के अनुकूल माहौल बनाकर और भ्रष्टाचार पर काबू पाकर आर्थिक विकास को तेज करना है ताकि सभी को ऊपर उठाया जा सके. यादव ने यह भी कहा कि पार्टी निजी पूंजी के अनुकूल माहौल बनाने के लिए वि-नियमन (डी-रेगुलेशन), बिजनेस मामलों में राज्य के अहस्तक्षेप की नीति और स्वच्छ राजनीति को आगे बढ़ाना चाहती है.
आम आदमी पार्टी की अर्थनीति- नव उदारवादी अर्थनीति के करीब जा रही है, इसका संकेत इस तथ्य से भी मिलता है कि पार्टी के आग्रह पर नव उदारवादी अर्थनीति के आलोचक और वैकल्पिक अर्थनीति की पैरवी करनेवाले प्रो. अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्रियों ने कुछ महीनों पहले अर्थनीति का जो मसौदा तैयार किया था, उसे एक तरह से ठंडे बस्ते में डालकर पार्टी ने जनवरी के आखिरी सप्ताह में अर्थनीति तय करने के लिए सात सदस्यी नई समिति बनाई जिसके ज्यादातर सदस्य घोषित तौर पर नव उदारवादी आर्थिक नीति के समर्थक हैं.
लेकिन उसकी भाषा और मुहावरे इतने जाने-पहचाने हैं कि इसे छिपा पाना मुश्किल है. वैसे आप इसे छुपाना भी नहीं चाहती है. इसकी वजह यह है कि वह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स का भरोसा और समर्थन जीतने के लिए बेचैन है.
यही कारण है कि आप के नेता सी.आई.आई से लेकर मुम्बई के निवेशकों और गुलाबी अखबारों तक यह सफाई देते घूम रहे हैं कि वे उद्यमियों के खिलाफ नहीं हैं, उल्टे वे भ्रष्टाचार खत्म करके बिजनेस करने के लिए अनुकूल माहौल बनाना चाहते हैं.
यही नहीं, खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई की अनुमति देने के शीला दीक्षित सरकार के फैसले को पलटने, निजी बिजली वितरण कंपनियों का सी.ए.जी से आडिट कराने और के.जी. बेसिन गैस मामले में एफ.आई.आर दर्ज कराने जैसे फैसलों से बेचैन कारपोरेट जगत को आश्वस्त करने के लिए केजरीवाल और यादव लगातार कह रहे हैं कि ये उनकी नीति नहीं बल्कि चुनिंदा मामलों में लिए गए फैसले भर हैं.
इस रिपोर्ट के मुताबिक, १९९१ के आर्थिक सुधारों के पहले जहां प्रति वर्ष औसतन ९.१ प्रतिशत की दर से अवैध कालाधन विदेशी बैंकों में जा रहा था, वह सुधारों की शुरुआत के बाद उछलकर सीधे १६.४ प्रतिशत सालाना की दर से जाने लगा. यही नहीं, इस रिपोर्ट के अनुसार, २००२ से २००८ के बीच औसतन हर साल १६ अरब डालर यानी ७३६ अरब रूपये का कालाधन अवैध तरीके से देश से बाहर चला गया.
नव उदारवादी पूंजीवादी सुधारों के तहत राजनीति और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के बीच ऐसा गठबंधन तैयार हुआ है जिसने राज्य को कार्पोरेट्स की सेवा में लगा दिया है. राज्य की भूमिका अब देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए सार्वजनिक संसाधनों खासकर दुर्लभ प्राकृतिक और अन्य संसाधनों को मनमाने तरीके से औने-पौने दामों में मुहैया कराना रह गया है.
असल में, पिछले डेढ़-दो दशकों में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को ‘तेज विकास दर और भारत को आर्थिक महाशक्ति’ बनाने की आड़ में आगे बढ़ाया गया है, उसने वास्तव में गरीबों, किसानों, आदिवासियों, दलितों और आम आदमी के हितों की कीमत पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी द्वारा बेशकीमती सार्वजनिक संसाधनों- जल, जंगल, जमीन और खनिजों की बेशर्म लूट का रास्ता साफ़ किया है.
उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि आप अर्थनीति के मामले में जो मध्य-दक्षिण (सेंटर-राईट) पोजिशनिंग की कोशिश कर रही है, वह उन्हें बहुत दूर नहीं ले जा पाएगी. इसकी वजह यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में मध्य-दक्षिण जगह खाली नहीं है. क्या उन्हें पता है कि वह जगह भाजपा और नरेन्द्र मोदी ने पहले से ही भर दी है? वहां मोदी से प्रतियोगिता करके उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा.
आम आदमी पार्टी (आप) के आर्थिक दर्शन और नीतियों से धीरे-धीरे पर्दा
हटने लगा है. हालाँकि पार्टी ने वायदे के बावजूद अब तक अपने आर्थिक दर्शन और
अर्थनीति संबंधी दस्तावेज पेश नहीं किया है लेकिन उसके शीर्ष नेता अरविंद केजरीवाल
और मुख्य विचारक-रणनीतिकार योगेन्द्र यादव के हालिया भाषणों और बयानों से पार्टी
की अर्थनीति की दिशा साफ़ होने लगी है.
केजरीवाल ने उद्योगपतियों के लाबी संगठन-
सी.आई.आई की सभा में यह कहकर पार्टी के आर्थिक दर्शन की दिशा स्पष्ट कर दी कि
पार्टी पूंजीवाद के खिलाफ नहीं है और वह सिर्फ याराना पूंजीवाद (क्रोनी
कैपिटलिज्म) का विरोध करती है. उन्होंने यह भी कहा कि सरकार का काम बिजनेस नहीं है
और बिजनेस पूरी तरह से निजी क्षेत्र और उद्यमियों का काम है. इसके लिए लाइसेंस और
इंस्पेक्टर राज खत्म होना चाहिए.
दूसरी ओर, आप के मुख्य प्रवक्ता योगेन्द्र यादव ने मुंबई में निवेशकों
की एक सभा में कहा कि खाद्य सब्सिडी नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि सीधे खाद्यान्न
देना गरीबों की मदद का सबसे निष्प्रभावी और महंगा तरीका है. उनके मुताबिक, गरीबों की मदद का सबसे बेहतर तरीका उनके लिए अलग से उपाय नहीं बल्कि बिजनेस के अनुकूल माहौल बनाकर और भ्रष्टाचार पर काबू पाकर आर्थिक विकास को तेज करना है ताकि सभी को ऊपर उठाया जा सके. यादव ने यह भी कहा कि पार्टी निजी पूंजी के अनुकूल माहौल बनाने के लिए वि-नियमन (डी-रेगुलेशन), बिजनेस मामलों में राज्य के अहस्तक्षेप की नीति और स्वच्छ राजनीति को आगे बढ़ाना चाहती है.
चौंक गए? ये बातें पहले भी सुनी हुई लग रही हैं? आपका चौंकना
स्वाभाविक है क्योंकि आम आदमी पार्टी के नेताओं के अर्थनीति संबंधी इन बयानों में
नया कुछ नहीं है. न भाषा में और न लहजे में. कांग्रेस और भाजपा के आर्थिक दर्शन और
अर्थनीति की दिशा यही है. केजरीवाल और योगेन्द्र यादव कमोबेश वही बोल रहे हैं जिसे
देश पिछले दो दशकों से अहर्निश मनमोहन सिंह-पी. चिदंबरम-मोंटेक सिंह अहलुवालिया से
सुनता रहा है और इन दिनों नरेन्द्र मोदी से सुन रहा है.
अगर आप की अर्थनीति की
दिशा के बारे में केजरीवाल और यादव के ताजा बयानों और भाषणों को उसकी भविष्य में
घोषित होनेवाली आर्थिक नीति की पूर्वपीठिका मानें तो सच यह है कि अर्थनीति के बुनियादी
उसूलों और दिशा के बारे में मनमोहन सिंह, नरेन्द्र मोदी और केजरीवाल की सोच में
कोई बुनियादी फर्क नहीं है.
संभव है कि योगेन्द्र यादव इसे स्वीकार न करें लेकिन संकेत यही है कि
वे जिस अर्थनीति की वकालत कर रहे हैं, वह उसी नव उदारवादी अर्थनीति की बगलगीर
दिखाई पड़ रही है जिसका समर्थन कांग्रेस और भाजपा करती रही हैं और जो पिछले दो
दशकों से केन्द्र में सरकारों में बदलाव के बावजूद बिना किसी रुकावट के जारी हैं.
आम आदमी पार्टी की अर्थनीति- नव उदारवादी अर्थनीति के करीब जा रही है, इसका संकेत इस तथ्य से भी मिलता है कि पार्टी के आग्रह पर नव उदारवादी अर्थनीति के आलोचक और वैकल्पिक अर्थनीति की पैरवी करनेवाले प्रो. अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्रियों ने कुछ महीनों पहले अर्थनीति का जो मसौदा तैयार किया था, उसे एक तरह से ठंडे बस्ते में डालकर पार्टी ने जनवरी के आखिरी सप्ताह में अर्थनीति तय करने के लिए सात सदस्यी नई समिति बनाई जिसके ज्यादातर सदस्य घोषित तौर पर नव उदारवादी आर्थिक नीति के समर्थक हैं.
निश्चय ही, आम आदमी पार्टी के नव उदारवादी अर्थनीति को गले लगाने के
साफ़ संकेतों के कारण उनके बहुतेरे समर्थकों और शुभचिंतकों को निराशा हुई है जो
उससे अर्थनीति के मामले में एक वैकल्पिक दृष्टिकोण और दर्शन की अपेक्षा कर रहे थे.
हालाँकि पार्टी के विचारक और मुख्य प्रवक्ता योगेन्द्र का कहना है कि आप २० सदी की
विचारधाराओं और वैचारिक खेमों- वाम और दक्षिण में विश्वास नहीं करती है और उन्हें
भारत के लिए प्रासंगिक नहीं मानती है.
यह भी कि आप किसी भी पूर्व निर्धारित आर्थिक
नीति के पैकेज से सहमत नहीं है और देश की जरूरतों के मुताबिक हर आर्थिक समस्या का
घरेलू समाधान ढूंढने की कोशिश करेगी.
केजरीवाल भी कह चुके हैं कि वे वाम और दक्षिण के वैचारिक विभाजनों में यकीन
नहीं करते हैं और समस्याओं का जहाँ से भी समाधान मिलेगा, उसे लेने में उन्हें
परहेज नहीं होगा.
इन दावों और बयानों से ऐसा भ्रम होता है कि आप वाम और दक्षिण से अलग
एक वैकल्पिक राजनीतिक-आर्थिक वैचारिकी की वकालत कर रहा है. लेकिन सच यह है कि वाम
और दक्षिण के वैचारिक विभाजनों और नीतिगत पैकेजों को ख़ारिज करने का जुबानी दावा
करते हुए भी आम आदमी पार्टी वास्तव में एक दक्षिणपंथी आर्थिक एजेंडे यानी मुक्त
बाजार की नव उदारवादी अर्थनीति को ही नए पैकेज में पेश करने की कोशिश कर रही है.
लेकिन उसकी भाषा और मुहावरे इतने जाने-पहचाने हैं कि इसे छिपा पाना मुश्किल है. वैसे आप इसे छुपाना भी नहीं चाहती है. इसकी वजह यह है कि वह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स का भरोसा और समर्थन जीतने के लिए बेचैन है.
इस मायने में कांग्रेस, भाजपा और आप यानी तीनों पार्टियां नव उदारवादी
अर्थनीति के साथ खड़ी हैं और फर्क सिर्फ कुछ मामलों में जोर और प्रस्तुति भर का है.
उदाहरण के लिए, कांग्रेस नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को गरीबों को कुछ मामूली
राहतों (जैसे मनरेगा, भोजन के अधिकार आदि) के साथ लागू करने के पक्ष में है जबकि
भाजपा-नरेन्द्र मोदी उसे बिना किसी बाधा और गरीबों को राहत देने जैसे सब्सिडी बोझ
के बगैर लागू करना चाहते हैं.
वहीँ आप का दावा है कि वह इसे बिना याराना (क्रोनी)
पूंजीवाद के लागू करना चाहती है. यही नहीं, नव उदारवादी अर्थनीति को लागू करने के
मामले में आप वास्तव में भाजपा और नरेन्द्र मोदी के ज्यादा करीब खड़ी है.
असल में, आम आदमी पार्टी के नेताओं और रणनीतिकारों को लगता है कि शासन
की पार्टी (पार्टी आफ गवर्नेंस) बनने के लिए बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स का भरोसा
जीतना जरूरी है. इसके बिना सत्ता में पहुंचना और खासकर सरकार चला पाना मुश्किल है.
यही कारण है कि आप के नेता सी.आई.आई से लेकर मुम्बई के निवेशकों और गुलाबी अखबारों तक यह सफाई देते घूम रहे हैं कि वे उद्यमियों के खिलाफ नहीं हैं, उल्टे वे भ्रष्टाचार खत्म करके बिजनेस करने के लिए अनुकूल माहौल बनाना चाहते हैं.
यही नहीं, खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई की अनुमति देने के शीला दीक्षित सरकार के फैसले को पलटने, निजी बिजली वितरण कंपनियों का सी.ए.जी से आडिट कराने और के.जी. बेसिन गैस मामले में एफ.आई.आर दर्ज कराने जैसे फैसलों से बेचैन कारपोरेट जगत को आश्वस्त करने के लिए केजरीवाल और यादव लगातार कह रहे हैं कि ये उनकी नीति नहीं बल्कि चुनिंदा मामलों में लिए गए फैसले भर हैं.
लेकिन सवाल यह है कि क्या नव उदारवादी अर्थनीति से याराना पूंजीवाद या
भ्रष्टाचार को अलग किया जा सकता है? बिलकुल नहीं, भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म
का सीधा सम्बन्ध नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से है.
सच यह है कि इन सुधारों के साथ
भ्रष्टाचार का भी पूरी तरह से उदारीकरण हो गया है. इसका सुबूत यह है कि आज़ादी के
बाद से भारत से जो कालाधन अवैध तरीके से देश से बाहर गया, उसका ६८ प्रतिशत अकेले
१९९१ के आर्थिक सुधारों के बाद से गया है. ग्लोबल फिनान्सियल इंटीग्रिटी
(जी.एफ.आई) रिपोर्ट’२०१३ के मुताबिक, १९४८ से २००८ के बीच अवैध तरीके से भारत से
लगभग २१३ अरब डालर की रकम विदेशों में खासकर आफशोर बैंकों में चली गई.
अगर इस रकम को मुद्रास्फीति के साथ एडजस्ट करें तो भ्रष्ट और
घोटालेबाज मंत्रियों, नेताओं, अफसरों, उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों और
माफियाओं ने इन साठ वर्षों में कोई ४६२ अरब डालर की रकम लूटकर विदेशों में भेज
दिया. लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका ६८ प्रतिशत यानी ३१४ अरब डालर आर्थिक
सुधारों के शुरू होने के बाद गए हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक, १९९१ के आर्थिक सुधारों के पहले जहां प्रति वर्ष औसतन ९.१ प्रतिशत की दर से अवैध कालाधन विदेशी बैंकों में जा रहा था, वह सुधारों की शुरुआत के बाद उछलकर सीधे १६.४ प्रतिशत सालाना की दर से जाने लगा. यही नहीं, इस रिपोर्ट के अनुसार, २००२ से २००८ के बीच औसतन हर साल १६ अरब डालर यानी ७३६ अरब रूपये का कालाधन अवैध तरीके से देश से बाहर चला गया.
असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ भ्रष्टाचार में वृद्धि कई
कारणों से हुई है. पहली बात तो यह है कि यह धारणा अपने आप में एक मिथ है कि
लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म हो जाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा.
सच यह है कि
भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है. लाइसेंस-कोटा-परमिट राज भी एक
तरह का नियंत्रित पूंजीवाद था, जिसमें हर लाइसेंस-कोटे-परमिट की कीमत थी. लेकिन
नियंत्रित और बंद अर्थव्यवस्था होने के कारण दांव इतने उंचे नहीं थे, जितने आज हो
गए हैं. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में भी लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म नहीं हुआ
बल्कि कुछ मामलों में उसका रूप थोड़ा बदल गया है जबकि कुछ में वह अब भी वही पुराना
लाइसेंस-कोटा-परमिट है. अलबत्ता, अब उनका आकार बहुत बढ़ गया है.
दूसरे, उदारीकरण के इस दौर में कंपनियों की ताकत बहुत ज्यादा बढ़ गई
है. खासकर बड़ी विदेशी पूंजी के आने के बाद उनकी मोलतोल की क्षमता बेतहाशा बढ़ गई
है. यह इसलिए हुआ है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत राज्य को बड़ी पूंजी के
हितों का सबसे बड़ा संरक्षक, हितैषी, उसके हितों को आगे बढ़ानेवाला और उसके निवेश और
मुनाफे की राह से रोड़े हटानेवाला बना दिया गया. नव उदारवादी पूंजीवादी सुधारों के तहत राजनीति और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के बीच ऐसा गठबंधन तैयार हुआ है जिसने राज्य को कार्पोरेट्स की सेवा में लगा दिया है. राज्य की भूमिका अब देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए सार्वजनिक संसाधनों खासकर दुर्लभ प्राकृतिक और अन्य संसाधनों को मनमाने तरीके से औने-पौने दामों में मुहैया कराना रह गया है.
इसके लिए नव उदारवादी सुधारों के तहत ऐसी नीतियां तैयार की गईं हैं जो
कीमती और दुर्लभ सार्वजनिक संसाधनों को कार्पोरेट्स के हवाले करने का रास्ता साफ
करती हैं. कहने का अर्थ यह कि भ्रष्टाचार और घोटालों से इतर कार्पोरेट्स के पक्ष
में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसे कानूनी अर्थों में भ्रष्टाचार नहीं माना जाता है
क्योंकि वह सब कानून और नियमों के अनुकूल है.
सच पूछिए तो पिछले दो दशकों में
उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक हितों की कीमत पर जिस तरह से
देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाया गया है, उससे बड़ा घोटाला और कोई नहीं
है.
इस नए निजाम में सबसे ज्यादा जोर कंपनियों के मनमाने मुनाफे को बढ़ाने
पर है और इसके लिए उन्हें जो रियायतें और छूट दी जा सकती हैं, बिना किसी
शर्म-संकोच के दी जा रही हैं. उदाहरण के लिए, हर साल बजट में कंपनियों और
कारोबारियों को विभिन्न तरह के टैक्सों में अरबों रूपये की छूट दी जा रही है जो एक
तरह की सब्सिडी ही है. असल में, पिछले डेढ़-दो दशकों में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को ‘तेज विकास दर और भारत को आर्थिक महाशक्ति’ बनाने की आड़ में आगे बढ़ाया गया है, उसने वास्तव में गरीबों, किसानों, आदिवासियों, दलितों और आम आदमी के हितों की कीमत पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी द्वारा बेशकीमती सार्वजनिक संसाधनों- जल, जंगल, जमीन और खनिजों की बेशर्म लूट का रास्ता साफ़ किया है.
सच पूछिए तो यह सिर्फ याराना पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) नहीं बल्कि
मूलतः यह लुटेरा पूंजीवाद (रोबर कैपिटलिज्म) है. लेकिन इसमें हैरान होने की जरूरत
नहीं है. यह पूंजीवाद का कोई विपथगमन (एबेरेशन) नहीं बल्कि अन्तर्निहित चरित्र है.
इसका इलाज मुक्त बाजार और वि-नियमन (डी-रेगुलेशन) नहीं है बल्कि ये इसके ही
स्वाभाविक सहोदर हैं.
केजरीवाल और आम आदमी पार्टी नीतिगत रूप से इसका विकल्प पेश
किये बिना सिर्फ ईमानदार राजनीति के प्रस्ताव से समाधान का दावा कर रही है लेकिन
वे भूल रहे हैं कि ईमानदार तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी हैं लेकिन वे कहाँ
भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा पाए?
याद रहे, मार्क्स ने कहा था कि राजनीति, अर्थनीति का ही संकेंद्रित
रूप है. साफ़ है कि केजरीवाल जिस नव उदारवादी अर्थनीति की बीन बजाकर कार्पोरेट्स को
लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, वह राजनीतिक रूप से भी उन्हें उसी याराना पूंजीवाद की
गोद में बैठा देगी. उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि आप अर्थनीति के मामले में जो मध्य-दक्षिण (सेंटर-राईट) पोजिशनिंग की कोशिश कर रही है, वह उन्हें बहुत दूर नहीं ले जा पाएगी. इसकी वजह यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में मध्य-दक्षिण जगह खाली नहीं है. क्या उन्हें पता है कि वह जगह भाजपा और नरेन्द्र मोदी ने पहले से ही भर दी है? वहां मोदी से प्रतियोगिता करके उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा.
केजरीवाल चाहे या न चाहें लेकिन उनके सामने बाएं मुड़ने या मोदी की 'हवा' में उड़ जाने के अलावा कोई
विकल्प नहीं है.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 22 फ़रवरी को प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित आलेख)
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