शुक्रवार, अक्तूबर 07, 2011

संकट में फंसती वैश्विक अर्थव्यवस्था

यू.पी.ए सरकार को अपनी निश्चिंतता और आत्मविश्वास से बाहर निकलना होगा    



वैश्विक अर्थव्यवस्था पर एक बार फिर से संकट के बादल मंडराते हुए दिखाई दे रहे हैं. दिन पर दिन यह आशंका जोर पकड़ती जा रही है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था दोबारा आर्थिक मंदी की चपेट में आ सकती है. खुद विश्व बैंक के अध्यक्ष राबर्ट जोलिक और मुद्रा कोष की प्रमुख क्रिस्टिन लगार्ड ने भी स्वीकार किया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के फिर से लड़खड़ाने के खतरे बढ़ते जा रहे हैं. इस मामले में दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं खासकर यूरोपीय और अमेरिकी अर्थव्यवस्था से आ रहे संकेत बहुत निराशाजनक हैं.


वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बढ़ते खतरे का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अभी पिछले सप्ताह अमेरिकी केन्द्रीय बैंक- फेडरल रिजर्व ने यह स्वीकार किया कि पिछली मंदी से उबरने की कोशिश कर रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार की रफ़्तार न सिर्फ अपेक्षा से बहुत धीमी है बल्कि उसे पटरी पर आने में उम्मीद से कहीं अधिक यानी कई बरसों का समय लग सकता है.

हालांकि फेडरल रिजर्व ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए ४०० अरब डालर से अधिक के मौद्रिक उपायों की घोषणा की है लेकिन अधिकांश विश्लेषकों को लगता है कि इन उपायों से संकट नहीं दूर होनेवाला है.

वित्तीय बाजार को यह सच्चाई मालूम है. आश्चर्य नहीं कि फेडरल रिजर्व की इन घोषणाओं के तुरंत बाद अमेरिकी शेयर बाजारों से लेकर यूरोपीय और एशियाई शेयर बाजारों में भारी गिरावट दर्ज की गई है. यहाँ तक कि भारतीय बाजार भी इससे अछूते नहीं रहे.

असल में, फेडरल रिजर्व के मौद्रिक उपायों की सीमाएं उजागर हो चुकी हैं. मुश्किल यह है कि फेडरल रिजर्व के इन उपायों में नया कुछ नहीं है और वह इन्हें पिछले तीन-साढ़े तीन वर्षों में कई बार आजमा चुका है. इसका बहुत फायदा नहीं हुआ है.

एक बार हाथ जला चुके बैंक कर्ज देने में अतिरिक्त सतर्कता बरत रहे हैं जबकि पिछले संकट के दौरान घर गंवाने से लेकर भारी देनदारी की मार झेल चुके आम अमेरिकी भी कर्ज लेने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं.

इस कारण माना जा रहा है कि फेड के ताजा उपाय अँधेरे में तीर चलाने की तरह हैं. लेकिन उससे भी बड़ी मुश्किल यह है कि मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने के लिए फेड के तरकश में अब और कोई तीर नहीं बचा है.

असल में, मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट वर्ष २००७-०८ के वित्तीय संकट से कई मायनों में अलग और अधिक खतरनाक है. पहली बात यह है कि पिछली बार का संकट मूलतः अमेरिका और उसके निजी वित्तीय संस्थाओं/बैंकों के जोखिमपूर्ण उधारियों के कारण पैदा हुआ था. इससे पूरे वित्तीय ढांचे की स्थिरता पर खतरा मंडराने लगा था.

लेकिन इस बार संकट यूरोप के कई देशों खासकर ग्रीस, आयरलैंड, पुर्तगाल और कुछ हद तक स्पेन और इटली जैसे देशों के अपनी देनदारियों को चुकाने में नाकाम रहने के डर से पैदा हुआ है. इस आशंका मात्र से वित्तीय बाजार में खलबली मची हुई है.

खासकर यह डर बढ़ता जा रहा है कि अगले कुछ दिनों में यूरोपीय संघ ने ग्रीस की अर्थव्यवस्था को ढहने से बचाने के लिए ठोस फैसला नहीं किया तो ग्रीस का अपनी देनदारियों पर डिफाल्ट करना तय है. यही नहीं, ग्रीस के बाद अगले कुछ सप्ताहों और महीनों में आयरलैंड और पुर्तगाल समेत कुछ और यूरोपीय देशों के सामने भी डिफाल्ट करने का खतरा होगा.

लेकिन यूरोपीय देशों का राजनीतिक नेतृत्व संकट से निपटने के लिए वित्तीय घाटे को कम करने और सरकारी खर्चों में भारी कटौती करने की रणनीति पर चल रहा है जिससे समस्या और गंभीर होती जा रही है.

इस रणनीति का असर यह हुआ है कि इन अर्थव्यवस्थाओं की गति और धीमी हुई है और दूसरी ओर, लोगों का गुस्सा सड़कों पर निकल रहा है. आर्थिक अस्थिरता के साथ-साथ राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ रही है.

दूसरी ओर, विश्व अर्थव्यवस्था की इंजन माने जानेवाली अमेरिकी अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ़्तार से यह उम्मीद भी खत्म होने लगी है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार का सकारात्मक असर यूरोप और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. रही-सही कसर चीन और भारत जैसे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं की सुस्त पड़ती रफ़्तार के साथ पूरी हो गई है.

सन्देश साफ है कि संकट आ चुका है और उससे भारत भी अछूता नहीं रहेगा. इसके संकेत मिलने लगे हैं. आर्थिक वृद्धि की दर धीमी पड़ रही है. खासकर मैन्युफक्चरिंग और बुनियादी उद्योग क्षेत्र की वृद्धि की गति में काफी गिरावट दर्ज की गई है. शेयर बाज़ार में अस्थिरता बढ़ती जा रही है. रूपये की कीमत में तेज गिरावट के कारण आयात खासकर पेट्रोलियम का आयात मंहगा हो रहा है.

अभी तक निर्यात में भारी वृद्धि दिखाई दे रही थी लेकिन वैश्विक मंदी की आशंकाओं के बीच उसका धीमा पड़ना तय मना जा रहा है. दूसरी ओर, मुद्रास्फीति की दर रिजर्व बैंक के तमाम मौद्रिक उपायों के बावजूद अभी भी काफी ऊंचाई पर बनी हुई है.

इससे भारत के सामने दोहरी समस्या खड़ी हो गई है. चुनौती यह है कि किस तरह मुद्रास्फीति पर काबू पाते हुए विकास की रफ़्तार को बनाए रखा जाए? कहने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार को दोनों मोर्चों पर एक साथ पहल करनी होगी.

पहला यह कि घरेलू मांग को गति देने के लिए सार्वजनिक निवेश खासकर इन्फ्रास्ट्रक्चर और सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में बढ़ाना होगा ताकि अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिले, लोगों की आय बढ़े और घरेलू मांग बनी रहे. इस कारण उसे वित्तीय घाटे की चिंता फिलहाल भूल जानी चाहिए.

दूसरे, सरकार को मुद्रास्फीति से निपटने के लिए केवल मौद्रिक नीतियों पर निर्भर रहने के बजाय आपूर्ति पक्ष खासकर खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति पर अधिक जोर देना चाहिए. अच्छी खबर यह है कि इस साल मानसून अच्छा रहा है और रबी की फसल अच्छी रहने की उम्मीद है.

लेकिन मुश्किल यह है कि घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार नीतिगत पक्षाघात की शिकार हो गई है और कोई फैसला नहीं कर पा रही है. सरकार का पूरा जोर अपने राजनीतिक बचाव और मंत्रियों के झगडे में जाया हो रहा है. उसके मौजूदा रवैये से लगता नहीं है कि वैश्विक आर्थिक संकट के मद्देनजर भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट का मुद्दा उसकी प्राथमिकताओं में कहीं है.

अगर यही हाल जारी रहा तो भारतीय अर्थव्यवस्था को लड़खड़ाने से बचाना संभव नहीं होगा. चिंता की बात यह है कि इसके संकेत मिलने लगे हैं.


('सरिता' में १५ अक्तूबर के अंक में प्रकाशित आलेख)


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