सोमवार, अक्टूबर 03, 2011

जलते तेलंगाना की आग से और मत खेलिए


तेलंगाना एक विचार है और उसका समय आ गया है



तेलंगाना एक बार फिर उबल रहा है. अलग राज्य की मांग को लेकर पिछले बीस दिनों से आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र के दस जिलों सहित राजधानी हैदराबाद में हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं. पूरे तेलंगाना इलाके में अनिश्चितकालीन बंद, हड़ताल और विरोध प्रदर्शनों के कारण सब कुछ ठप्प है.

इस इलाके के सरकारी कर्मचारी, वकील, शिक्षक-छात्र, खदान मजदूर और आम लोगों सहित सभी राजनीतिक पार्टियों के विधायक-सांसद-मंत्री इस अनिश्चितकालीन हड़ताल में शामिल हैं. एक तरह से सिविल नाफरमानी की स्थिति है. इससे पहले, इस साल फ़रवरी और मार्च में भी ऐसे ही हालात बन गए थे.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि तेलंगाना की स्थिति बहुत गंभीर है और केन्द्र की यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस नेतृत्व के अनिर्णय के कारण स्थिति विस्फोटक होती जा रही है. हालत यह हो गई है कि इस आंदोलन के कारण आंध्र प्रदेश की किरण कुमार रेड्डी सरकार पूरी तरह से पंगु सी हो गई है. खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बीते शनिवार को स्वीकार किया कि तेलंगाना की स्थिति गंभीर है.

लेकिन मसले के हल में और समय लगने और राजनीतिक पार्टियों से और चर्चा करने की बात कह के उन्होंने जाहिर कर दिया है कि केन्द्र सरकार की इस मसले के तत्काल हल में कोई दिलचस्पी नहीं है.

साफ है कि इस मसले के हल को लेकर कांग्रेस नेतृत्व अब भी न सिर्फ ‘कन्फ्यूज्ड’ और अगंभीर है बल्कि वह इसे लटकाए रखकर आंदोलन को थकाने और भ्रमित करने की रणनीति पर चल रहा है. गृह मंत्री पी. चिदंबरम के शब्दों में कहें तो ‘फैसला न लेना भी एक फैसला है.’ यह संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के लिए आन्दोलनों से निपटने का कांग्रेस का पुराना और आत्मघाती खतरनाक तरीका है.

इससे इस पूरे मामले के शांति, सौहार्द और न्यायोचित तरीके से सुलझने के बजाय बिगड़ने का खतरा बढ़ता जा रहा है. ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने अपने पुराने अनुभवों से कुछ नहीं सीखा है. याद रहे, उसके संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की राजनीति के कारण ही ८० के दशक में पंजाब और असम जैसी गंभीर समस्याएं पैदा हो गईं थीं.

असल में, कोई दो साल पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के. चंद्रशेखर राव के अनिश्चितकालीन अनशन के बाद गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने तेलंगाना बनाने की प्रक्रिया शुरू करने का आश्वासन दिया था. लेकिन कांग्रेस की खुद की अंदरूनी राजनीति के कारण जल्दी ही न सिर्फ तटीय आंध्र और रायलसीमा इलाके में तेलंगाना बनाए जाने के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया बल्कि यू.पी.ए सरकार भी अपने वायदे से मुकरने लगी.

इसके बाद से उसकी पूरी कोशिश इस मामले को टालने और लटकाने की रही है. इसे टालने के लिए ही जस्टिस श्रीकृष्ण समिति का गठन किया गया. हालांकि एक राजनीतिक मसले का तकनीकी हल नहीं होता लेकिन यू.पी.ए सरकार ने इसे विशेषज्ञों के मत्थे थोप दिया.

लेकिन अपनी इन सीमाओं के बावजूद जस्टिस श्रीकृष्ण समिति ने तेलंगाना मुद्दे की गेंद को फिर से केन्द्र सरकार के पाले में डाल दिया. अब फैसला कांग्रेस और मनमोहन सिंह सरकार को करना है. लेकिन कांग्रेस इस मुद्दे पर कोई साफ और नीतिगत निर्णय लेने के बजाय अपने निहित राजनीतिक स्वार्थों के कारण मामले को लटकाने और अपने पुराने राजनीतिक दांव-पेंच पर उतर आई है. कहने की जरूरत नहीं है कि तेलंगाना के मुद्दे पर एक बार फिर ऐसी राजनीतिक गलती देश को बहुत भारी पड़ सकती है.

असल में, तेलंगाना मुद्दे पर कांग्रेस अपनी अवसरवादी और संकीर्ण स्वार्थों की राजनीति के कारण फंस गई है. कांग्रेस के लिए आंध्र प्रदेश में दांव बहुत उंचे हैं. कांग्रेस के सबसे अधिक करीब ३५ सांसद आंध्र से ही आते हैं. देश के बड़े राज्यों में कांग्रेस की सत्ता केवल आंध्र प्रदेश में ही है क्योंकि महाराष्ट्र में वह एन.सी.पी के साथ गठबंधन सरकार चला रही है. दक्षिण भारत में आंध्र एकमात्र राज्य है जहां कांग्रेस को भविष्य की राजनीति के लिहाज से सबसे अधिक उम्मीदें हैं.

जाहिर है कि कांग्रेस आंध्र गंवाने का जोखिम नहीं ले सकती है लेकिन आंध्र की सत्ता को बचाने के लिए कांग्रेस जिस तरह का दांव-पेंच कर रही है, उसके कारण वह न सिर्फ राजनीतिक रूप से आंध्र और तेलंगाना दोनों गंवाने के कगार पर पहुंच गई है बल्कि दोनों खित्तों को आग में भी झोंकती दिखाई पड़ रही है. इसकी वजह यह है कि कांग्रेस इस मुद्दे पर एक सैद्धांतिक और नीतिगत रूख अपनाने के बजाय अपने राजनीतिक फायदे-नुकसान की राजनीति के आधार पर मामले को लटकाने और उलझाने की आत्मघाती राजनीति कर रही है.

दरअसल, कांग्रेस दूर तक नहीं देख पा रही है. उसकी राजनीति तात्कालिकता और अवसरवाद से संचालित हो रही है. इसके कारण आंध्र प्रदेश में वह सच और न्याय के पक्ष को अनदेखा करने की कोशिश कर रही है. क्या यह सच नहीं है कि तेलंगाना को अलग राज्य बनाने का मुद्दा आंध्र कांग्रेस के घोषणापत्र और यू.पी.ए – प्रथम के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल था? क्या यह अवसरवाद नहीं है कि उस समय कांग्रेस ने तेलंगाना राष्ट्र समिति (टी.आर.एस) का समर्थन लेने के लिए अलग राज्य का वायदा किया था लेकिन बाद में मुकर गई?

कांग्रेस और वामपंथी दलों को इस बात पर जरूर विचार करना चाहिए कि क्या कारण है कि तेलंगाना अलग राज्य बनाए जाने का एक लोकतान्त्रिक आंदोलन भाजपा और टी.आर.एस जैसी सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी और अवसरवादी शक्तियों के हाथ में चला गया है? कांग्रेस ही क्यों, तेलंगाना के मुद्दे पर लगभग हर पार्टी का अवसरवादी और दोमुंहा रवैया उजागर हो चुका है.

आज भाजपा तेलंगाना को अलग राज्य बनाए जाने की सबसे बड़ी चैम्पियन बन रही है लेकिन क्या यह सच नहीं है कि अपने चुनाव घोषणापत्र में वायदे के बावजूद उसने वर्ष २००० में झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के साथ तेलंगाना को अलग राज्य नहीं बनाया? तथ्य यह है कि भाजपा उस समय केन्द्र में अपनी सरकार बचाने के लिए पीछे हट गई. वाजपेयी सरकार चन्द्र बाबू नायडू की टी.डी.पी के समर्थन से चल रही थी.

इसी तरह, खुद टी.डी.पी का अवसरवाद यह है कि उसने पिछले चुनावों में अपनी डूबती नैय्या को बचाने के लिए टी.आर.एस के साथ समझौता करके चुनाव लड़ा लेकिन अब तेलंगाना के मुद्दे पर दाएं-बाएं कर रहे हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दलों को इस अवसरवादी राजनीति का यह खामियाजा भुगतना पड़ रहा है कि आन्ध्र में सभी पार्टियां दो हिस्सों में बंट गई हैं. यही नहीं, उनकी इस अवसरवादी राजनीति के कारण आंध्र प्रदेश में तेलंगाना और राज्य के अन्य हिस्सों – तटीय आंध्र और रायलसीमा के बीच गृह युद्ध के आसार पैदा हो गए हैं.

लेकिन इस सबके बावजूद सच यह है कि अलग राज्य के रूप में तेलंगाना के गठन को अब और नहीं टाला जा सकता है. तेलंगाना एक ऐसी ऐतिहासिक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सच्चाई और विचार है जिसका समय आ गया है.

तेलंगाना शुरू से ही यहां तक कि तेलुगु भाषी राज्य के रूप में आंध्र के गठन से पहले से ही यह एक राजनीतिक रूप से स्वतंत्र, सांस्कृतिक रूप से अलग और आर्थिक रूप से सक्षम इकाई रहा है. इस सच्चाई को जितनी जल्दी स्वीकार किया जायेगा, वह आंध्र और पूरे देश के लिए उतना ही अच्छा होगा क्योंकि इस अपरिहार्य फैसले को टालने या लटकाने के नतीजे किसी के लिए भी अच्छे नहीं होंगे.

अच्छा तो यह होता कि यू.पी.ए सरकार इस पूरे मुद्दे पर तदर्थवादी और अवसरवादी तरीके से फैसला करने के बजाय द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करती और ऐसी सभी मांगों पर खुले और लोकतान्त्रिक तरीके से विचार का माहौल बनाती. तेलंगाना ने यह अवसर दिया है. इससे एक नई राह निकल सकती है. इसे गंवाना नहीं चाहिए.

('नया इंडिया' के ३ अक्तूबर'११ के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख का पूर्ण रूप)

1 टिप्पणी:

yashmax32 ने कहा…

क्या बात कर रहे है आप? मुद्दा खत्म हो जायेगा तो रोटी कहा सेकेगे भाई? जनता है यार कब से मर रही है और मरती रहेगी मरने दो.......मुद्दा है तो सही बस