बुधवार, अक्तूबर 19, 2011

चैनलों की चर्चाओं में आग कम और शोर ज्यादा है

चैनलों का ‘दरिद्र’ लोकतंत्र




न्यूज चैनलों की चर्चाओं और बहसों में दिलचस्पी जगजाहिर है. आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजी और हिंदी के अधिकांश न्यूज चैनलों पर चर्चाओं और बहसों के नियमित दैनिक कार्यक्रम हैं. इन कार्यक्रमों के महत्व को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि अधिकांश चैनलों पर रात को प्राइम टाइम पर ये चर्चाएँ और बहसें होती हैं.

एक हिंदी न्यूज चैनल को को सिर्फ बहस से संतोष नहीं हुआ तो उसने हर दिन शाम को महाबहस की शुरुआत कर दी है. लेकिन कार्यक्रम के नाम पर मत जाइए, महाबहस में भी ‘बहस’ उतनी और वैसी ही होती है जितनी किसी भी और चैनल के बहस में होती है.

कहने को इन दैनिक चर्चाओं में उस दिन के सबसे महत्वपूर्ण खबर/घटनाक्रम पर चर्चा होती है. लेकिन आमतौर पर यह चैनल की पसंद होती है कि वह किस विषय पर प्राइम टाइम चर्चा करना चाहता है. हालांकि इन चर्चाओं/बहसों में ज्यादातर मौकों पर ‘तू-तू, मैं-मैं’ या शोर-शराबा ही होता है और भले ही अक्सर उनसे कुछ खास निकलता नहीं दिखता है.

लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि लोकतंत्र में ये चर्चाएँ कई कारणों से महत्वपूर्ण होती हैं. ये चर्चाएँ न सिर्फ दर्शकों को घटनाओं/मुद्दों के बारे में जागरूक करती हैं और जनमत तैयार करती हैं बल्कि लोकतंत्र में वाद-संवाद और विचार-विमर्श के लिए मंच मुहैया कराती हैं.

लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही बड़ा सच है कि लोकतांत्रिक समाजों में मीडिया खासकर न्यूज मीडिया इन चर्चाओं और बहसों के जरिये ही कुछ घटनाओं और मुद्दों को आगे बढ़ाते हैं और उन्हें राष्ट्रीय/क्षेत्रीय एजेंडे पर स्थापित करने की कोशिश करते हैं.

मीडिया का एजेंडा सेटिंग सिद्धांत यह कहता है कि समाचार मीडिया कुछ घटनाओं/मुद्दों को अधिक और कुछ को कम कवरेज देकर लोकतान्त्रिक समाजों में राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक बहसों/चर्चाओं का एजेंडा तय करता है. इस तरह वह देश-समाज की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक प्राथमिकताओं का भी एजेंडा तय कर देता है.

निश्चय ही, न्यूज मीडिया के इस एजेंडा सेटिंग एजेंडे को अपने देश में न्यूज चैनल कुछ हद तक अपनी कवरेज और कुछ हद तक प्राइम टाइम चर्चाओं/बहसों के जरिये आगे बढ़ा रहे हैं. जाहिर है कि इस कारण इन चर्चाओं का राजनीतिक महत्व बहुत बढ़ जाता है.

इन चर्चाओं का महत्व इसलिए भी और बढ़ता जा रहा है क्योंकि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों के विस्तार और बढ़ती पहुँच के साथ राजनीति ज्यादा से ज्यादा माध्यमीकृत (मेडीएटेड) होती जा रही है. कहने की जरूरत नहीं है कि न्यूज मीडिया खासकर चैनल प्रदर्शन के एक ऐसे मंच के रूप में उभर रहे हैं जहाँ सुबह-दोपहर और खासकर शाम और रात में प्रदर्शनात्मक राजनीति को खुलकर अपना जलवा दिखाने का मौका मिलता है.

इस सच्चाई को सरकार, बड़े राजनीतिक दल और कारपोरेट समूह अच्छी तरह समझते हैं. यही कारण है कि वे न सिर्फ इन चर्चाओं को गंभीरता से लेते हैं बल्कि इन चर्चाओं को अपने अनुकूल मोड़ने और प्रतिकूल परिस्थितियों की भी अपने मुताबिक व्याख्या करने के लिए तेजतर्रार प्रवक्ताओं को उतारते हैं जिनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे सरकार/पार्टी/कारपोरेट समूह के पक्ष में जनमत बनाने के लिए तथ्यों/तर्कों/विचारों की ‘स्पिन’ कराने में माहिर होते हैं.

पी.आर के विशेषज्ञ इन प्रवक्ताओं को उनकी इस खूबी के कारण स्पिन डाक्टर भी कहा जाता है. आजकल राजनीति, सरकार और कारपोरेट जगत में ऐसे स्पिन डाक्टर्स की खूब मांग है.

तथ्य यह है कि न्यूज चैनलों के कारण सरकार/ विभिन्न राजनीतिक दलों/कारपोरेट समूहों में ऐसे माहिर, घाघ, बातों के जादूगर स्पिन डाक्टर्स की एक ऐसी जमात पैदा हो गई है जिनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे चैनलों की चर्चाओं में चर्चा को घुमाने के उस्ताद हैं.

खासकर राजनीतिक दलों में ऐसे बहुतेरे नेता पैदा हो गए हैं जिनकी अपनी कोई राजनीतिक जमीन नहीं है या जिन्होंने जमीन पर कोई राजनीति नहीं की है लेकिन दैनिक प्रेस ब्रीफिंग और टी.वी चर्चाओं/बहसों में हिस्सा लेकर अपनी-अपनी पार्टियों में बड़े नेता बन गए हैं.

लेकिन ऐसा लगता है कि खुद चैनल अपनी बहसों/चर्चाओं के कार्यक्रमों को बहुत महत्व नहीं देते हैं, सिवाय इस बात के कि ये कार्यक्रम चैनल के सबसे कम खर्च में तैयार होनेवाले कार्यक्रम होते हैं और उसका अच्छा-ख़ासा एयर टाइम भर देते हैं. एक तो अधिकांश चैनलों में इन बहसों/चर्चाओं के एंकर तैयारी करके नहीं आते हैं.

सवालों और टिप्पणियों में समझ तो दूर की बात है कि सामान्य जानकारी का भी अभाव दिखाई देता है. अक्सर सवाल अटपटे और चलताऊ किस्म के होते हैं. लगता है कि जैसे किसी तरह से टाइम पास किया जा रहा है. यही नहीं, इन चर्चाओं/बहसों में अतिथि भी जाने-पहचाने और उनके उत्तर/टिप्पणियां भी पूर्व निश्चित होते हैं.

इन कारणों से ये चर्चाएँ धीरे-धीरे एक दैनिक रुटीन में बदल गई हैं. इनसे इनमें बोरियत भी बढ़ती जा रही है. हालांकि कई बार इन चर्चाओं की बोरियत को खत्म करने के लिए सुनियोजित तरीके से गर्मी पैदा करने की भी कोशिश होती है लेकिन वह गर्मी वैचारिक रूप से बिना किसी उत्तेजक अंतर्वस्तु के वास्तव में, एक पूर्वनिश्चित नाटक में बदल जाती है.

इसकी वजह यह है कि इन चर्चाओं/बहसों का वैचारिक दायरा इतना सीमित और संकीर्ण होता है कि उसमें देश में सक्रिय राजनीतिक-वैचारिक धाराओं की विविधता और बहुलता नहीं दिखाई पड़ती है. यही नहीं, बिना किसी अपवाद के इन चर्चाओं के पैनलों में दक्षिण, मध्य-दक्षिण और अनुदारवादियों का दबदबा होता है.

आश्चर्य नहीं कि महत्वपूर्ण राजनीतिक चर्चाओं में कांग्रेस और भाजपा और बहुत हुआ तो कभी-कभार सरकारी लेफ्ट को पैनल में बुला लिया जाता है. आतंकवाद और सुरक्षा मामलों पर होनेवाली चर्चाओं में आक्रामक सैन्य जनरलों की तूती बोलती है.

इसी तरह, आर्थिक मुद्दों पर चर्चा में नव उदारवादी विशेषज्ञों की भरमार होती है. इससे काफी हद तक चैनलों के राजनीतिक-वैचारिक झुकाव का पता चलता है. लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि चैनलों का लोकतंत्र कितना सीमित, संकीर्ण और दरिद्र है.

('तहलका' के ३१ अक्तूबर के अंक में प्रकाशित)

1 टिप्पणी:

yashmax32 ने कहा…

अब टी.वी न्यूज चैनल पर लगभग सभी के सभी चैनल वाले टी.आर.पी, बेमतलब की बहस, छोटी सी खबर हो हौवा बना के सनसनी फैलाना देखिये रात ८ बजे फला फला अब आदमी रात ८ तक सोचता है क्या है ये जैसे ८ बजा तो देखा तो धोनी ५ लीटर ढूध पीते है, रोज ये खबर है.

कही कोई मारा, कही आग लगी, किसी ने कुछ कहा भाई लोगो ने खली बैठे नेता भाई और चंद बुद्धजीवियो को बुला के एक बहस शुरू, नेता लोग मस्त माइक पहन के चिल्लाना शुरू और जनता में से किसी ने सच या तीखा सवाल पूछा तो जवाब देने में ............और ये सब कुछ कर के चैनल वालो का पूरा फायदा है, प्राइम टाइम के नाम पर.

बड़े अफ़सोस की बात ये है की सच में जो होना चाहिए वो होता नहीं है, लोकतंत्र का एक मजबूत पाया मीडिया है और देश की समस्याओ को ओर ध्यान खीचना मीडिया का काम है जनता के सहयोग से, ऐसा नहीं है देश में मीडिया के चलते बदलाव नहीं आया है, मीडिया ने बहुत कुछ किया है, मीडिया की ही देन है जो कई घोटाले और अपराधो का खुलासा हुआ और मीडिया उसके लिए प्रसंसा की पात्र है, परन्तु आज कही ना कही उसमे कुछ ना कुछ कमी तो है.