शुक्रवार, अक्टूबर 14, 2011

गरीबी ही नहीं, बढ़ती गैर बराबरी भी बड़ा मुद्दा है

अमीरों और गरीबों के बीच खाई तेजी से बढ़ रही है


योजना आयोग की शहरों में ३२ रूपये और गाँवों में २६ रूपये प्रतिदिन की गरीबी रेखा ने राष्ट्रीय जनमानस को झकझोर कर रख दिया है. इसके खिलाफ पूरे देश में हैरानी, गुस्से और प्रतिवाद के तीखे सुर सामने आए हैं. यह स्वाभाविक भी है. सवाल उठ रहे हैं कि क्या इसमें दोनों जून भरपेट भोजन भी संभव है?

खासकर हाल के वर्षों में जिस तरह से खाद्य वस्तुओं और जिंसों के अलावा बुनियादी जरूरत की सभी चीजों और सेवाओं की महंगाई आसमान छू रही है, उसके कारण आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है. यही कारण है है कि कई विश्लेषक इसे गरीबी नहीं, भूखमरी रेखा कह रहे हैं.

लेकिन इस हवाई गरीबी रेखा ने पूरे देश को इसलिए भी चौंकाया है क्योंकि गरीबी निरंतर असह्य होती जा रही है. इसकी वजह यह है कि देश के तेजी से बदलते आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य में दिन पर दिन गरीबों का जीना मुहाल होता जा रहा है.

पिछले डेढ़-दो दशकों में देश में जिस तरह से अमीरों और गरीबों के बीच की खाई तेजी से बढ़ी और चौड़ी हुई है, उसके कारण गरीबी का दंश और गहरा और तीखा हुआ है. यह किसी से छुपा नहीं है कि देश में एक ओर अरबपतियों की संख्या और उनकी दौलत में दिन दूनी, रात चौगुनी बढोत्तरी हो रही है, वहीँ दूसरी ओर, गरीबों की हालत बाद से बदतर होती जा रही है.

असल में, पिछले कुछ दशकों खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के डेढ़ दशक में देश में जिस तरह से आर्थिक गैर बराबरी और विषमता बढ़ी है, उसके कारण गरीबी अधिक चुभने लगी है. ७० और कुछ हद तक ८० के दशक शुरूआती वर्षों तक देश में गरीबी और अमीरी के बीच इतना गहरा और तीखा फर्क नहीं दिखाई देता था, जितना आज दिखने लगा है.

इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में पारंपरिक अमीरों के अलावा नई आर्थिक नीतियों का फायदा उठाकर एक नया दौलतिया वर्ग पैदा हुआ है जिसकी अमीरी और उसके खुले प्रदर्शन ने गरीबों और निम्न मध्यम वर्गों में गहरी वंचना का अहसास भर दिया है.

इसकें कोई शक नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में तेजी आई है. वह दो से तीन फीसदी के हिंदू वृद्धि दर के दौर से बाहर निकलकर सात से नौ फीसदी रफ़्तार वाले हाई-वे पर पहुँच गई है. इस तेज वृद्धि दर के साथ देश में बड़े पैमाने पर सम्पदा और समृद्धि भी पैदा हुई है.

लेकिन इसके साथ ही, यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि यह समृद्धि कुछ ही हाथों में सिमटकर रह गई है. इसका समान और न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हुआ है. इसका नतीजा यह हुआ है कि इस दौर में जहाँ अमीरों और उच्च मध्यवर्ग की संपत्ति और समृद्धि में तेजी से इजाफा हुआ है, वहीँ गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की स्थिति और खराब हुई है.

सच तो यह है कि पिछले एक दशक में अमीरी अश्लीलता की हद तक और गरीबी अमानवीयता की हद तक पहुँच गई है. इसे देखने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है. आप देश के बड़े महानगरों और शहरों के शापिंग माल्स में चले जाइए. वहां देश-दुनिया के बड़े-बड़े ब्रांडों के उपभोक्ता सामानों की मौजूदगी और उनकी चमक-दमक आँखें चौंधियाने के लिए काफी हैं.

यही नहीं, आज देश में दुनिया के सबसे बड़े लक्जरी ब्रांड्स और उनके उत्पाद मौजूद हैं और अच्छा कारोबार कर रहे हैं. उनके कारण आज लन्दन-पेरिस-न्यूयार्क और दिल्ली-मुंबई-बेंगलुरु-हैदराबाद में कोई खास फर्क नहीं रह गया है.

नतीजा, देश में अमीरों और उच्च मध्यवर्ग के उपभोग स्तर और दुनिया के अन्य मुल्कों के अमीरों के उपभोग स्तर में कोई खास फर्क नहीं रह गया है. आज देश में बड़े अंतर्राष्ट्रीय ब्रांडों की लाखों-करोड़ों की घड़ियाँ, कारें, ज्वेलरी, सूट, फोन सहित भांति-भांति के इलेक्ट्रानिक साजों-सामान और यहाँ तक कि खाने-पीने की चीजें भी उपलब्ध हैं.

जाहिर है कि इनके उपभोगकर्ताओं की संख्या और उनके उपभोग की भूख दोनों बढ़ी है. सबसे बड़ी बात यह है कि यह सब अब दबे-छिपे नहीं बल्कि खुलकर और सबको दिखाकर हो रहा है. देश के एक बड़े उद्योगपति का ४५०० करोड़ रूपये का आलीशान बंगला हो या दूसरे उद्योगपति का प्राइवेट जेट या तीसरे की निजी लक्जरी नौका या चौथे की पांच करोड़ की कार.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह सूची बहुत लंबी हो सकती है. लेकिन यहाँ इनके उल्लेख का अर्थ सिर्फ इतना है कि जिस देश में कोई ७८ फीसदी से अधिक लोग २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजर-बसर करने के लिए अभिशप्त हों, वहां अमीरी की यह तड़क-भड़क और उसका खुला प्रदर्शन सामाजिक-आर्थिक अश्लीलता नहीं तो और क्या है?

देश में बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी और विषमता का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सबसे अमीर १० फीसदी लोग देश के कुल उपभोग व्यय का ३१ फीसदी गड़प कर जाते हैं, सबसे अमीर और उच्च मध्यवर्ग के २० फीसदी लोग कुल उपभोग व्यय के ४५ फीसदी चट कर जाते हैं जबकि सबसे गरीब १० फीसदी लोगों के हिस्से कुल उपभोग व्यय का मात्र ३.६ फीसदी हिस्सा आता है.

यहाँ तक कि खुद प्रधानमंत्री को कुछ साल पहले उद्योगपतियों के सम्मेलन में कहना पड़ा कि इस तरह का ‘दिखावे का उपभोग’ समाज के लिए अच्छा नहीं है और इससे बचा जाना चाहिए. यह और बात है कि खुद प्रधानमंत्री ने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया बल्कि उनकी सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण यह सामाजिक-आर्थिक अश्लीलता सफलता का पैमाना बनती जा रही है.

यही नहीं, इस दौर में आज़ादी के आंदोलन के दौर में बने सादगी, संतोष और मितव्ययिता जैसे सामाजिक-राजनीतिक मूल्य लगातार बेमानी होते चले गए हैं. नए मूल्य यह हैं - ‘ग्रीड इज गुड’ यानी लालच अच्छी बला है, मोक्ष का रास्ता उपभोग, और अधिक उपभोग है और कर्ज लेकर घी पीएं.

आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों में समावेशी विकास के नारों के बीच देश में गैर बराबरी बेतहाशा बढ़ी है. तथ्य यह है कि अगर आज इस देश में नरेगा के तहत मिलनेवाली न्यूनतम मजदूरी १०० रूपये प्रतिदिन (मासिक ३००० रूपये) और कारपोरेट क्षेत्र के अधिकांश सी.इ.ओ की १० लाख से एक करोड़ रूपये मासिक की तनख्वाह को आधार मानें तो देश में आय के स्तर पर गैर बराबरी बढ़ते-बढ़ते ३००:१, ५००:१ के अनुपात और यहाँ तक कि १०००:१ के असह्य स्तर से भी ऊपर पहुँच गई है. यहाँ तक कि भारत सरकार के सबसे आला अधिकारियों यानी सचिवों की मासिक तनख्वाह और नरेगा की मासिक मजदूरी के बीच ५००:१ का अनुपात बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी का एक और उदाहरण है.

याद रहे कि देश में योजना की शुरुआत में १०:१ के आर्थिक गैर बराबरी अनुपात को कुछ हद तक बर्दाश्त लायक माना गया था. इसी तरह, मैनजमेंट गुरु पीटर ड्रकर ने कारपोरेट क्षेत्र के लिए २०:१ का अनुपात सुझाया था लेकिन आय और उपभोग के स्तर पर मौजूदा गैर बराबरी को देखते लगता है कि यह किसी सतयुग की बात है.

यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि इस दौर में तेज आर्थिक विकास के बावजूद न सिर्फ रोजगार के अवसर नहीं बढ़े हैं बल्कि रोजगार की गुणवत्ता में भी गिरावट आई है. देश में अभी भी कुल श्रम शक्ति का ९२ फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करने और उससे गुजर चलने के लिए बाध्य है.

यही नहीं, सी.ई.ओ से लेकर सरकारी नौकरशाहों की तनख्वाहों में भारी इजाफा हुआ है लेकिन न्यूनतम मजदूरी गरीबी रेखा की तरह अतीत में अंटकी हुई है. निजी क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ है लेकिन उसमें रोजगार के संविदाकरण और अस्थाईकरण के अलावा श्रम कानूनों का उल्लंघन बढ़ा है.

दूसरी ओर, कृषि क्षेत्र पर आबादी के साठ प्रतिशत की निर्भरता के बावजूद कुल जी.डी.पी में उसका हिस्सा घटता हुआ मात्र १४ फीसदी रह गया है. मतलब ६० फीसदी आबादी को देश की कुल आय में सिर्फ १४ फीसदी हिस्सा मिल रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस सबके कारण गैर बराबरी बढ़ती और बर्दाश्त से बाहर होती जा रही है.

योजना आयोग की गरीबी (गल्प) रेखा इसलिए और चुभने और बेमानी लगने लगी है.

('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर १४ अक्तूबर को प्रकाशित लेख)

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