गुरुवार, अक्टूबर 06, 2011

क्या अमीरों पर टैक्स बढ़ाया जाना चाहिए?


यूरोप और अमेरिका की तरह भारतीय अमीरों को भी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझनी होगी




वैश्विक आर्थिक संकट के गहराते बादलों के बीच अमेरिका और यूरोप में अमीरों पर और अधिक टैक्स लगाने को लेकर एक दिलचस्प बहस शुरू हो गई है. अमेरिकी अरबपति वारेन बफे ने अमीरों पर और अधिक टैक्स लगाने की वकालत की है. बफे ने अपने घरेलू टैक्स ढांचे की इस बात के लिए तीखी आलोचना की है कि अरबपति होने के बावजूद उनपर लगनेवाली प्रभावी टैक्स दर उनकी निजी सचिव की आय पर लगनेवाली टैक्स दर से कम है.

बफे की तर्ज पर ही फ़्रांस के १६ सबसे अमीरों और जर्मनी के ५० सुपर अमीरों ने सार्वजनिक रूप से अपनी सरकारों से अमीरों पर टैक्स बढ़ाने की मांग की है.

यही नहीं, इटली में फेरारी कार बनानेवाली कम्पनी के मालिक लुका मोंटज़मेलो ने भी अमीरों को अधिक कर देने का समर्थन किया है. इससे न सिर्फ अमीरों पर टैक्स बढ़ाने की मांग ने जोर पकड़ा है बल्कि अमेरिका के अलावा यूरोप में इटली और फ़्रांस की सरकारों ने इस दिशा में कदम भी बढ़ा दिया है.

माना जा रहा है कि भारी कर्ज, घाटे के साथ अपनी देनदारियों पर डिफाल्ट की आशंकाओं के बीच फंसी यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं ने स्थिति को सँभालने के लिए जिस तरह से अपने खर्चों में बड़े पैमाने पर कटौतियां की हैं, उसका सीधा असर सार्वजनिक सेवाओं और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर पड़ा है जिसके कारण आम लोगों का रहन-सहन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है.
आम लोग खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं. उन्हें लगने लगा है कि वित्तीय-आर्थिक संकट का सारा बोझ उनपर थोप दिया गया है जबकि अमीरों को पहले की तरह कम टैक्स देना पड़ रहा है. उनकी आय उसी तेजी से बढ़ रही है. बड़ी कंपनियों के मालिकों और उनके टॉप मैनेजरों की तनख्वाहों, बोनस और लाभांशों से होनेवाली आय में कोई कटौती नहीं हुई है. यही नहीं, सरकारी खजाने की कीमत पर दिए गए बेल आउट पैकेज का सारा लाभ भी बड़े कार्पोरेट्स और अमीर उठा रहे हैं.

जाहिर है कि इससे अमेरिका खासकर यूरोप में सामाजिक-राजनीतिक असंतोष बढ़ रहा है. लोगों का गुस्सा सड़कों पर फूट रहा है. यहाँ तक कि अमेरिका में कारपोरेट ताकत के प्रतीक वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करने का अभियान जोर पकड़ रहा है. इस तरह एक तो करेला, उसपर नीम चढ़ा की तर्ज पर आर्थिक संकट तेजी से राजनीतिक अस्थिरता और संकट की ओर बढ़ने लगा है. आर्थिक संकट और फिर से वैश्विक मंदी की आशंकाओं के बीच राजनीतिक अस्थिरता से बुरी खबर और कोई नहीं हो सकती है.

इसे वारेन बफे जैसे अरबपति अमीरों से ज्यादा बेहतर और कौन जानता है? उन्हें अच्छी तरह से पता है कि जन भावनाएं किधर जा रही हैं. आश्चर्य नहीं कि अमेरिका में दो तिहाई से ज्यादा लोग अमीरों पर टैक्स बढ़ाने के पक्ष में हैं. यही हाल यूरोप का भी है. इस मांग के पक्ष में बहुत ठोस तथ्य और तर्क भी हैं.

तथ्य यह है कि पिछले ३० वर्षों में अमेरिका और यूरोप समेत भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में न सिर्फ अमीरों और कार्पोरेट्स की आय पर लगनेवाले टैक्स की दरों में काफी कमी आई है बल्कि करों में छूटों और रियायतों के कारण प्रभावी टैक्स दरें और कम हो गई हैं.

उदाहरण के लिए, अमेरिका में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल से शुरू हुई टैक्स दरों में कटौती के कारण अधिकतम टैक्स दर ७० प्रतिशत से घटकर २८ प्रतिशत तक आ गई जबकि ब्रिटेन में मार्गरेट थैचर के कार्यकाल में १९७९ से १९८८ के बीच अधिकतम टैक्स दर ८३ फीसदी से घटकर ४० फीसदी रह गई.

यही नहीं, वर्ष २००७ में अधिकांश अमीर देशों में कारपोरेट टैक्स दर औसतन २८ फीसदी थी जो कि ८० के दशक में औसतन ४० फीसदी के आसपास थी. आश्चर्य नहीं कि इस बीच अमीरों की आय में तेजी से वृद्धि हुई है. अकेले अमेरिका में एक फीसदी सर्वाधिक अमीर देश के वास्तविक जी.डी.पी के ५८ फीसदी को गड़प कर जा रहे हैं.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि ऐसे अनेकों महत्वपूर्ण तथ्यों और तर्कों ने विकसित देशों में मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने के लिए अमीरों पर और अधिक टैक्स लगाने के पक्ष में मजबूत जनमत तैयार कर दिया है.

लेकिन अब यह बहस भारत भी पहुँच गई है. पूर्व वित्त मंत्री और मौजूदा गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने आल इंडिया मैनेजमेंट एसोसियेशन के सम्मेलन में अमीरों को और अधिक टैक्स देने के लिए तैयार रहने को कहा है. ये वही चिदंबरम हैं जिन्होंने ९७-९८ में संयुक्त मोर्चा सरकार और बाद में यू.पी.ए सरकार के वित्त मंत्री के बतौर आयकर और कारपोरेट टैक्स की दरों में भारी कटौती की थी. उनके कुछ बजटों को कारपोरेट क्षेत्र आज भी ड्रीम बजट के रूप में याद करता है.

लेकिन यूरोप और अमेरिका के उलट अभी देश को किसी भारतीय वारेन बफे का इंतज़ार है जो आगे बढ़कर अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने की वकालत करे. सच यह है कि चिदंबरम के प्रस्ताव पर भारतीय अमीरों और कार्पोरेट्स की प्रतिक्रिया बहुत ठंडी है.

यही नहीं, भारतीय अमीरों और कार्पोरेट्स की लंबे समय से यह शिकायत है कि उनपर टैक्स का बहुत ज्यादा बोझ है. हर बजट से पहले उद्योग जगत टैक्स दरों में कटौती के लिए लाबीइंग करता हुआ दिखाई पड़ता है. इसलिए यह तय है कि भारत में अमीरों और कार्पोरेट्स पर टैक्स बढ़ाने का इन वर्गों की ओर से विरोध होगा.

लेकिन इस सच्चाई से शायद ही कोई इनकार कर सके कि भारत में भी बढ़ते राजकोषीय घाटे और सामाजिक क्षेत्र की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी राजस्व को बढ़ाना बहुत जरूरी हो गया है. यह इसलिए भी जरूरी है कि भारत में आय कर और कारपोरेट टैक्स की अधिकतम दरें अधिकांश विकसित देशों और विकासशील देशों की तुलना में काफी कम हैं. यही नहीं, भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात भी दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में बहुत कम है.

इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि आयकर और कारपोरेट टैक्स की अधिकतम दर ३३ फीसदी होने के बावजूद विभिन्न छूटों और रियायतों के कारण भारत में अमीरों खासकर कारपोरेट क्षेत्र पर लगनेवाली प्रभावी टैक्स दर सिर्फ २३ फीसदी रह जाती है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, विभिन्न प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में अनेक छूटों और रियायतों के कारण केन्द्र सरकार ने वर्ष २००९-१० में कोई पांच लाख करोड़ रूपये से अधिक का राजस्व गँवा दिया.

जाहिर है कि यह स्थिति न सिर्फ अस्वीकार्य है बल्कि लंबे समय तक नहीं चल सकती है. भारत के सुपर अमीरों को भी त्याग करने के लिए आगे आना होगा. आखिर उनकी समृद्धि देश की तरक्की और समृद्धि पर टिकी है. अमेरिका और यूरोप के अरबपतियों को यह अहसास हो चुका है. भारतीय अमीर इससे कब तक आँख चुराएंगे?

('राजस्थान पत्रिका' में ५ अक्तूबर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित मुख्य लेख)

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