शनिवार, जून 16, 2012

'गरीबी' को सरकारी शब्दकोष से बाहर करने की तैयारी

'आम आदमी' सिर्फ बहाना है गरीबों को किनारे करने और 'खास आदमी' को आगे बढाने का  

यह तो गरीबों और गरीबी में कुछ ऐसी बात है कि वे मिथकीय फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी ही राख से बार-बार जी उठते हैं. अन्यथा सरकारों, सत्तारुढ़ पार्टियों और नेताओं-अफसरों का वश चलता तो गरीब और गरीबी कब के खत्म हो चुके होते.
यह किसी से छुपा नहीं है कि उत्तर उदारीकरण दौर खासकर ९० के दशक और उसके बाद के वर्षों में बिना किसी अपवाद के सभी रंगों और झंडों की सरकारों और सत्तारुढ़ पार्टियों ने ‘गरीबी’ शब्द को सरकारी और राजनीतिक शब्दकोष से हटाने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है.
इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में न सिर्फ गरीबी की परिभाषा और गरीबी रेखा के आकलन के साथ छेड़छाड़ की गई है बल्कि आंकड़ों में गरीबी को कम से कम दिखाने की हरसंभव कोशिश की गई है.
लेकिन माफ कीजिए, यह सिर्फ योजना आयोग और उसके उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया की ‘गरीबी और गरीबों’ से मुक्ति पाने की हड़बड़ी और व्यग्रता का मामला भर नहीं है बल्कि सच यह है कि सत्ता के खेल में शामिल मुख्यधारा की सभी राजनीतिक पार्टियां ‘गरीबी और गरीबों’ से पीछा छुड़ाने के लिए व्यग्र हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि आज ‘गरीब और गरीबी’ शब्द अधिकांश राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के शब्दकोष से गायब हो चुके हैं या उसे हटाने की कोशिशें जारी हैं. उदाहरण के लिए, भाजपा के राजनीतिक शब्दकोष में पहले भी ‘गरीबी’ शब्द उपयोग से बाहर और किसी कोने-अंतरे में पड़ा शब्द रहा है लेकिन ‘इंडिया शाइनिंग’ के बाद तो ‘गरीबी’ शब्द उसके लिए एक बहिष्कृत और अभिशप्त शब्द हो गया.

लेकिन खुद को गरीबों की सबसे बड़ी हमदर्द और गरीबनवाज़ पार्टी बतानेवाली कांग्रेस ने भी ९० के दशक के बाद बहुत बारीकी और चतुराई के साथ ‘गरीबी’ शब्द से पीछा छुडा लिया. यह सिर्फ संयोग नहीं था कि ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ गरीबी और गरीबों के जरिये सत्ता की राजनीति करनेवाली कांग्रेस ने २००४ के चुनावों से ठीक पहले ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ शब्द का इस्तेमाल शुरू कर दिया.
कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस के राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ शब्द की विदाई और उसकी जगह ‘आम आदमी’ शब्द का आना सिर्फ शब्दों के हेरफेर भर का मसला नहीं था. यह कांग्रेस की राजनीति और उसके राजनीतिक सोच में आए बड़े बदलाव का संकेत था.
इस बदलाव का निहितार्थ यह था कि कांग्रेस ने ९० के दशक के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और ‘इंडिया शाइनिंग’ के कोरस के बीच देश की आर्थिकी, समाज और राजनीति में आए बदलावों के मद्देनजर यह मान लिया कि ‘गरीबी’ अब कोई मुद्दा नहीं रहा क्योंकि आर्थिक सुधारों के कारण गरीबों की दशा में उल्लेखनीय सुधार हुआ है और उनकी संख्या तेजी से कम हुई है.
लगातार तीन आम/मध्यावधि चुनाव हार चुकी कांग्रेस को लगने लगा कि ‘गरीबी’ के नारे में वह राजनीतिक लाभांश नहीं रह गया है जो ७०-८० के दशक तक सत्ता तक पहुँचने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता था. पार्टी के रणनीतिकारों के यह लगने लगा कि गरीबों के बजाय अब तेजी से उभरते और मुखर मध्य और निम्न मध्यवर्ग को लक्षित करना ज्यादा जरूरी है और उसके लिए बेहतर शब्द ‘गरीबी’ नहीं बल्कि ‘आम आदमी’ है जो गरीबों के साथ-साथ मध्यवर्ग को भी अपने अंदर समेट लेता है.

इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस ने अपने राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ को रखने का फैसला किया. २००४ के आम चुनावों में कांग्रेस ने नारा दिया: “कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ.”
कांग्रेस को इसका राजनीतिक फायदा भी मिला. कांग्रेस उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की मार से त्रस्त गरीबों के साथ-साथ मध्यवर्ग खासकर निम्न मध्यवर्ग को अपनी ओर खींचने में कामयाब रही. नतीजा, कांग्रेस ने न सिर्फ अनुमानों के विपरीत बेहतर प्रदर्शन किया बल्कि उसके नेतृत्व में गठित यू.पी.ए सत्ता में भी पहुँच गई.
हालाँकि कांग्रेस ने वैचारिक-राजनीतिक तौर पर अपने नारों और कार्यक्रमों से ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ रखते हुए अपने राजनीतिक आधार को व्यापक बनाने और उसमें गरीबों के साथ-साथ मध्य और निम्न मध्यवर्ग को जोड़ने की कोशिश की थी लेकिन व्यवहार में यह उसके एजेंडे से गरीबों की विदाई और उनकी जगह ज्यादा मुखर और मांग करनेवाला मध्यवर्ग के हावी होते जाने के रूप में सामने आया.

हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार खासकर यू.पी.ए-दो के एजेंडे पर गरीबों के मुद्दे और सवाल हाशिए पर जाने लगे और मध्यवर्ग को खुश करने के लिए आर्थिक सुधारों को तेज करने पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा.

यह सच है कि यू.पी.ए-एक सरकार के कार्यकाल में नरेगा जैसी योजनाएं गरीबों के लिए शुरू की गईं और इस आधार पर कुछ विश्लेषक और कांग्रेस नेता दावा करते नहीं थकते हैं कि कांग्रेस अभी भी गरीबों के साथ खड़ी है. लेकिन यह एक बहुत बड़ा भ्रम है.
तथ्य यह है कि यू.पी.ए सरकार के आठ सालों के कार्यकाल में जितना आर्थिक-भौतिक फायदा मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग को मिला है, उसका १० फीसदी भी गरीबों और निम्न मध्यवर्ग को नहीं मिला है. अपनी गरीबनवाजी का गुण गाने के लिए जिस नरेगा का इतना अधिक हवाला दिया जाता है, उसकी सच्चाई यह है कि उसके लिए केन्द्र सरकार औसतन हर साल ३५ से ४० हजार करोड़ रूपये खर्च करती है. वह भी गरीबों तक पूरा नहीं पहुँचता है.
लेकिन दूसरी ओर इसी दौरान मध्य और उच्च मध्यवर्ग को बजट में टैक्स छूटों/रियायतों के रूप में परोक्ष-अपरोक्ष रूप से हर साल औसतन दो से ढाई लाख करोड़ रूपये का सालाना उपहार मिलता रहा. केन्द्र सरकार और उसके सार्वजनिक उपक्रमों के कोई १.८ करोड़ कर्मचारियों और अफसरों को छठे वेतन आयोग के वेतन वृद्धि के रूप में ५० हजार करोड़ रूपये से अधिक का लाभ दिया गया.

यही नहीं, यू.पी.ए सरकार ‘आम आदमी’ के नाम पर हर साल देश के बड़े कारपोरेट समूहों, अमीरों और मध्यवर्ग को सालाना टैक्स छूटों/रियायतों में पांच लाख करोड़ रूपये से ज्यादा का तोहफा दे रही है.

इससे साफ़ है कि ‘आम आदमी’ की सरकार वास्तव में किसकी सरकार है और कांग्रेस के लिए ‘आम आदमी’ के मायने क्या हैं? सच यह है कि गरीबों को अर्थनीति से बाहर करने के लिए ‘आम आदमी’ को आड़ की तरह इस्तेमाल किया गया है.
लेकिन पिछले आठ सालों के अनुभवों से यह साफ़ हो चुका है है कि ‘आम आदमी’ के नाम पर ‘खास आदमी’ की अर्थनीति को आगे बढ़ाया जा रहा है. इसलिए यह हैरानी की बात नहीं है कि कांग्रेस के राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ बेदखल हो चुकी है और उसी के स्वाभाविक और तार्किक विस्तार के तहत बाकी का बचा-खुचा काम योजना आयोग में बैठे मोंटेक सिंह आहलुवालिया पूरा कर रहे हैं.
उनके नेतृत्व में योजना आयोग गरीबी को न सिर्फ आंकड़ों में सीमित करने में जुटा है बल्कि योजनाओं/नीतियों से भी गरीबों को बाहर करने में लगा हुआ है. उनके इन प्रयासों को कांग्रेस नेतृत्व और यू.पी.ए सरकार का पूरा समर्थन हासिल है.

इसका सबूत यह है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक न सिर्फ पिछले तीन सालों से लटका हुआ है बल्कि उसमें से गरीबों को बाहर रखने के लिए हर दांव आजमाया जा रहा है. लेकिन मुश्किल यह है कि गरीबी को राष्ट्रीय एजेंडे से बाहर कर देने और हाशिए पर धकेल देने की तमाम कोशिशों के बावजूद गरीब और गरीबी का मुद्दा लौट-लौटकर राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने लग रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि २२ रूपये और ३२ रूपरे की गरीबी रेखा को देश पचा नहीं पा रहा है. यही नहीं, देश भर में ‘जल-जमीन-जंगल’ के हक के लिए गरीबों की लड़ाइयों ने भी नव उदारवादी अर्थनीति के उन समर्थकों को गहरा झटका दिया है जो गरीबी और गरीबों को बीती बात मान चुके थे.
असल में, वे भूल गए कि गरीब उस फीनिक्स पक्षी की तरह से हैं जो अपनी ही राख से फिर-फिर जी उठते हैं. आश्चर्य नहीं कि गरीब फिर-फिर दस्तक दे रहे हैं और पूरा सत्ता प्रतिष्ठान हिला हुआ है. उसे मजबूरी में ही सही, अपमानजनक और मजाक बन चुकी गरीबी रेखा पर पुनर्विचार के लिए तैयार होना पड़ रहा है.

साफ़ है कि गरीब और गरीबी के सवाल इतनी आसानी से शासक वर्गों का पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं.

('राष्ट्रीय सहारा' के 16 जून के हस्तक्षेप परिशिष्ट में प्रकाशित आलेख) 

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