यू.पी.ए सरकार ऊंट
की तरह रेत में मुंह छिपकर तूफ़ान के गुजरने का इंतज़ार कर रही है
('राजस्थान पत्रिका' के 6 जून के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख: http://epaper.patrika.com/41109/patrika-bhopal/06-06-2012#page/10/2 )
मुश्किलों में फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट गहराता जा रहा है.
अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आनेवाली बुरी खबरों का सिलसिला जारी है.
अर्थव्यवस्था की सेहत का हाल बतानेवाले सभी संकेतक उसकी लगातार बिगड़ती स्थिति की
ओर इशारा कर रहे हैं. ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, पिछले वित्तीय वर्ष की आखिरी
तिमाही (जनवरी-मार्च) में जी.डी.पी की वृद्धि दर गिरकर मात्र ५.३ प्रतिशत रह गई.
यह अर्थव्यवस्था की पिछले नौ वर्षों में किसी भी तिमाही में सबसे धीमी रफ़्तार थी.
इसका नतीजा यह हुआ कि वर्ष २०११-१२ में जी.डी.पी की वृद्धि दर पहले के अनुमान ६.९
फीसदी से गिरकर ६.५ फीसदी रह गई है. याद रहे कि उससे ठीक एक वर्ष पहले यानी
२०१०-११ में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर ८.४ फीसदी तक पहुँच गई थी.
निश्चय ही, पिछले वित्तीय वर्ष की चौथी और आखिरी तिमाही में जी.डी.पी
की वृद्धि दर में तेज गिरावट ने साफ़ कर दिया है कि अर्थव्यवस्था ढलान पर है और
पटरी से उतर चुकी है. यह गिरावट न तो अपवाद है और न ही किसी एक तिमाही तक सीमित
परिघटना है. तथ्य यह है कि अर्थव्यवस्था में चारों तिमाही में गिरावट दर्ज की गई
है.
लेकिन अर्थव्यवस्था का संकट सिर्फ वृद्धि दर में गिरावट तक सीमित नहीं है.
संकट की गंभीरता का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि एक ओर वृद्धि दर तेजी से गिर
रही है और दूसरी ओर, मुद्रास्फीति की दर रिजर्व बैंक की तमाम कोशिशों के बावजूद
काबू में नहीं आ रही है.
यही नहीं, निर्यात में भारी गिरावट दर्ज की गई है और बढते व्यापार
घाटे के साथ-साथ चालू खाते का घाटा बढ़कर जी.डी.पी के चार फीसदी तक पहुँच गया है. इसके
अलावा वैश्विक आर्थिक संकट खासकर अमेरिका और यूरोप में गहराते आर्थिक-वित्तीय संकट
के कारण विदेशी संस्थागत निवेशक (एफ.आई.आई) भारतीय बाजारों से पूंजी निकलकर
सुरक्षित ठिकाने का रूख कर रहे हैं.
इससे रूपये पर दबाव इस हद तक बढ़ गया है कि वह
पिछले दो महीनों से भी कम समय में १० फीसदी से ज्यादा लुढ़क गया है और इन दिनों रोज
गिरावट के नए रिकार्ड बना रहा है. यही हाल शेयर बाजार का भी है जो हांफ रहा है.
इस बीच, जले पर नमक छिडकने की तरह स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स जैसी अंतर्राष्ट्रीय
रेटिंग एजेंसियों ने भारत की निवेश रेटिंग में कटौती करके उसे नकारात्मक श्रेणी
में डाल दिया है. यही नहीं, गुलाबी अखबार और आर्थिक विश्लेषक मौजूदा आर्थिक स्थिति
की तुलना १९९१ के आर्थिक संकट से करने लगे हैं. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था के लिए
खतरे की घंटी बज चुकी है.
लेकिन स्थिति की गंभीरता को समझते हुए भी यू.पी.ए सरकार
और उसके आर्थिक मैनेजर यह दावा करते हुए अपनी पीठ ठोंकने में लगे हैं कि जी.डी.पी
की वृद्धि दर में तेज गिरावट के बावजूद अर्थव्यवस्था की ६.५ प्रतिशत की वृद्धि दर
अन्य देशों की तुलना में न सिर्फ बेहतर है बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की
सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है.
लेकिन यह सच्चाई से मुंह चुराने की कोशिश है. इस कोशिश में यू.पी.ए
सरकार अर्थव्यवस्था की दीवार पर लिखे चेतावनी सन्देश को अनदेखा करने और अपनी जवाबदेही
से बचने की जुगत कर रही है. आश्चर्य नहीं कि वे मौजूदा संकट के लिए वैश्विक आर्थिक
संकट खासकर यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के संकट को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.
असल में,
अर्थव्यवस्था के मैनेजरों में न सिर्फ इस संकट के कारणों बल्कि उससे अधिक उसके
समाधान को लेकर भ्रम की स्थिति है. इस कारण उन्होंने इस संकट के आगे घुटने टेक दिए
हैं और ऊंट की तरह रेत में सिर छिपाकर तूफ़ान के गुजरने का इंतज़ार कर रहे हैं.
सरकार के इस रवैये का सबूत यह है कि बीते सप्ताह वित्त मंत्रालय ने
अर्थव्यवस्था के बारे में जो लेखा-जोखा पेश किया है , उसमें संकट की गंभीरता को
स्वीकार करते हुए भी उम्मीद जाहिर की गई है कि चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की
वृद्धि दर ७.६ फीसदी तक रहेगी बशर्ते मानसून सामान्य रहे, पेट्रोलियम की कीमतें
स्थिर रहें और वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्थिरता बनी रहे.
साफ़ है कि अर्थव्यवस्था
के मैनेजरों की सारी उम्मीदें इंद्र देव की कृपा, भारतीय अर्थव्यवस्था की
जीवनीशक्ति और वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार पर टिकी हुई हैं. सरकार
अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए अपनी ओर से कोई बड़ी पहल करने के लिए तैयार
नहीं दिख रही है.
साफ़ है कि अर्थव्यवस्था के मैनेजर मुंगेरीलाल के हसीन सपने देख रहे
हैं. उन्हें लगता है कि पिछले कुछ महीनों में मुद्रास्फीति दर में कमी आई है और यह
प्रवृत्ति जारी रही तो रिजर्व बैंक को ब्याज दरों में कटौती करने में सहूलियत होगी
जिससे निवेश में बढोत्तरी का रास्ता साफ़ होगा और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी.
लेकिन अर्थव्यवस्था से जुड़े तथ्य उल्टी कहानी कह रहे हैं. सच यह है कि
मुद्रास्फीति की दर पिछले साल के मुकाबले कम जरूर हुई है लेकिन पिछले दो महीनों
में न सिर्फ उसमें फिर से तेजी का रूख दिखाई पड़ रहा है बल्कि अभी भी वह आम आदमी के
साथ अर्थव्यवस्था और रिजर्व बैंक के लिए सिरदर्द बनी हुई है.
लेकिन महंगाई के आगे यू.पी.ए सरकार की लाचारी किसी से छिपी नहीं है.
आश्चर्य नहीं कि सरकार मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए अपनी ओर से कुछ भी करने को
तैयार नहीं है. उसने यह जिम्मा पूरी तरह से रिजर्व बैंक के हवाले कर दिया है.
रिजर्व बैंक को मुद्रास्फीति से निपटने के लिए ब्याज दरों में बढोत्तरी के अलावा
और कोई उपाय नहीं सूझता है. ब्याज दरों में १३ बार से अधिक और ३.७५ फीसदी की
वृद्धि का नतीजा वृद्धि दर में गिरावट के रूप में सामने है. लेकिन मजे की बात यह
है कि मुद्रास्फीति के तेवर में कोई कमी नहीं आई है. साफ़ है कि मर्ज पहचाने बगैर
दवा देने का नतीजा यही होता है.
चिंता की बात यह है कि ऊँची मुद्रास्फीति और गिरती विकास दर खासकर
औद्योगिक विकास दर के बीच अर्थव्यवस्था के मुद्रास्फीतिजनित मंदी यानी स्टैगफ्लेशन
के चंगुल में फंसने का खतरा पैदा हो गया है. यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जब
कोई अर्थव्यवस्था स्टैगफ्लेशन के चंगुल में फंस जाती है तो यह स्थिति वहाँ के
आमलोगों के लिए भारी आर्थिक तकलीफें, आर्थिक संकट और राजनीतिक अस्थिरता लेकर आती है
और इस पीड़ादायक स्थिति से निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है. सन्देश बिलकुल साफ़ है.
यू.पी.ए सरकार को इस संकट से निपटने के लिए न सिर्फ तुरंत बड़ी आर्थिक पहलकदमी लेनी
होगी बल्कि उन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से बाहर देखना होगा जिनके कारण यह संकट
आया है.
अफसोस की बात यह है कि इतने गंभीर संकट से मुकाबले के लिए वित्त
मंत्री के पास पिटे-पिटाए मितव्ययिता कार्यक्रम (आस्ट्रीटी) और पेट्रोल की कीमतों
में भारी वृद्धि जैसे कथित कड़े फैसलों के अलावा और कुछ नहीं है. लगता है कि
उन्होंने यूरोपीय आर्थिक संकट से कोई सबक नहीं सीखा है जहाँ बड़ी आवारा पूंजी के
दबाव में शुरू किये गए मितव्ययिता उपायों का नतीजा यह हुआ है कि आर्थिक संकट और
गहरा गया है.
वे भूल रहे हैं कि गिरती हुई वृद्धि दर को संभलने के लिए इस समय
अर्थव्यवस्था में उत्पादक निवेश बढ़ाने की जरूरत है. चूँकि निजी पूंजी इस निवेश के
लिए आगे आने में हिचक रही है तो जरूरत सार्वजनिक निवेश में भारी वृद्धि की है.
इससे निजी क्षेत्र की हिचक भी टूटेगी.
सवाल यह है कि क्या सरकार
इसके लिए तैयार है?('राजस्थान पत्रिका' के 6 जून के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख: http://epaper.patrika.com/41109/patrika-bhopal/06-06-2012#page/10/2 )
1 टिप्पणी:
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