गुरुवार, मई 17, 2012

‘नीतिगत लकवे’ का निहितार्थ

कार्पोरेट हितों को आगे बढ़ने का यह सुनियोजित प्रचार अभियान है


मार्च महीने में औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक में ३.५ फीसदी की गिरावट की खबर आते ही इस गिरावट के लिए यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत लकवे’ को जिम्मेदार ठहराते हुए सामूहिक रुदन और तेज हो गया है. इसके साथ ही कथित रूप से रूके हुए आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की मांग का कर्कश कोरस भी कान के पर्दे फाड़ने लगा है.
हालाँकि इन आरोपों में नया कुछ नहीं है. पिछले डेढ़-दो सालों खासकर २ जी समेत भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों के सामने आने के बाद से आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकामी और कई नीतिगत मामलों में अनिर्णय या निर्णय को लागू कराने में नाकामयाबी को लेकर यू.पी.ए सरकार पर ‘नीतिगत लकवे’ के आरोप लगते रहे हैं.
लेकिन नई बात यह है कि पिछले कुछ महीनों में इस कोरस के सुर न सिर्फ कानफोडू ऊँचाई तक पहुँच गए हैं बल्कि खुद सरकार के अंदर से भी ऐसे सुर सामने आने लगे हैं. हालत यह हो गई है कि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो देशी-विदेशी पूंजी के प्रतिनिधि, उनके थिंक टैंक, समूचा कारपोरेट जगत, आर्थिक-राजनीतिक विश्लेषक, गुलाबी अखबार और विपक्ष सभी सरकार पर उसके कथित नीतिगत लकवे के लिए चौतरफा हमला कर रहे हैं.
हद तो यह हो गई कि खुद वित्त मंत्री के सलाहकार कौशिक बसु भी अमेरिका में विदेशी निवेशकों के सामने आर्थिक सुधारों के रुकने और सरकार के ‘नीतिगत लकवे’ का शिकार होने का रोना रोते दिखाई पड़े.
यही नहीं, अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ़्तार से लेकर उसकी सभी समस्यायों का ठीकरा भी इसी ‘नीतिगत लकवे’ पर फोड़ा जा रहा है. मजे की बात यह है कि खुद प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक सार्वजनिक तौर पर भले ही नीतिगत लकवे के आरोपों को नकार रहे हों लेकिन वे भी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने और कड़े फैसले लेने में आ रही कठिनाइयों को दबी जुबान में स्वीकार करते हैं.

वे इसके लिए गठबंधन राजनीति की मजबूरियों को जिम्मेदार भी ठहरा रहे हैं. साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार सार्वजनिक तौर पर चाहे जितना इनकार करे लेकिन खुद सरकार के अंदर नीतिगत लकवे के आरोपों से काफी हद तक सहमति है. इस धारणा को वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु के इस बयान ने और दृढ कर दिया कि अब आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले कठिन फैसले २०१४ के आम चुनावों के बाद ही संभव हो पायेंगे.
लेकिन क्या सचमुच यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत लकवे’ की शिकार है? यह कुछ हद तक सही है कि यू.पी.ए सरकार देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों की इच्छा के मुताबिक नव उदारवादी सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकाम रही है.
खासकर बड़ी पूंजी के मनमाफिक खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई., श्रम कानूनों को और ढीला करने और उदार छंटनी नीति की इजाजत देने, बैंक-बीमा आदि क्षेत्रों में ७४ फीसदी से अधिक विदेशी पूंजी की अनुमति से लेकर बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को जमीन, स्पेक्ट्रम से लेकर खदानों तक सार्वजनिक संसाधनों को आने-पौने दामों में मुहैया करने और सब्सिडी में कटौती और इस तरह आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ डालने जैसे फैसले करने या उससे ज्यादा उन्हें लागू कराने में सरकार कामयाब नहीं हुई है.
ऐसा नहीं है कि सरकार ये फैसले नहीं करना चाहती है. इसके उलट तथ्य यह है कि उसने अपने तईं हर कोशिश की है, कई फैसले किये भी लेकिन कुछ यू.पी.ए गठबंधन के अंदर के राजनीतिक अंतर्विरोधों और कुछ आमलोगों के खुले विरोध के कारण लागू नहीं कर पाई.
इस तथ्य को अनदेखा करना मुश्किल है कि पिछले दो-तीन वर्षों में देशभर में जिस तरह से बड़ी कंपनियों के प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन अधिग्रहण से लेकर खनिजों के दोहन के लिए जंगल और पहाड़ सौंपने का आम गरीबों, आदिवासियों, किसानों ने खुला और संगठित प्रतिरोध किया है, उसके कारण ९० फीसदी प्रोजेक्ट्स में काम रूका हुआ है.
यही नहीं, आर्थिक सुधारों के नाम पर सब्सिडी में कटौती और लोगों पर बोझ डालने के खिलाफ भी जनमत मुखर हुआ है. राजनीतिक दलों को कड़े फैसलों की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ रही है.
इस कारण न चाहते हुए भी राजनीतिक दलों को पैर पीछे खींचने पड़े हैं. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि गरीबों-किसानों-आदिवासियों की इस खुली बगावत से कैसे निपटें? हालाँकि सरकारों ने अपने तईं कुछ भी उठा नहीं रखा है. सैन्य दमन से लेकर जन आन्दोलनों को तोड़ने, बदनाम करने और खरीदने के हथियार आजमाए जा रहे हैं.
उडीशा से लेकर छत्तीसगढ़ तक कई जगहों पर सार्वजनिक संसाधनों की खुली लूट के खिलाफ खड़े गरीबों और उनके जनतांत्रिक आन्दोलनों को नक्सली और माओवादी बताकर कुचलने और उन्हें देश की ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ घोषित करके दमन करने की कोशिशें बड़े पैमाने पर जारी हैं.  
दूसरी ओर, जैतापुर से लेकर कुडनकुलम तक शांतिपूर्ण आन्दोलनों को ‘विकास विरोधी’ और ‘विदेशी धन समर्थित’ आंदोलन बताकर बदनाम करने, उन्हें तोड़ने और उनका दमन करने का सुनियोजित अभियान भी जारी है.
यही नहीं, हरियाणा से लेकर तमिलनाडु तक बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों और उनकी फैक्टरियों में मजदूरों का खुलेआम शोषण हो रहा है, श्रम कानूनों को सरेआम ठेंगा दिखाते हुए उन्हें यूनियन बनाने और अपने मांगे उठाने तक का अधिकार नहीं दिया जा रहा है और हड़ताल के साथ तो आतंकवादी घटना की तरह व्यवहार किया जा रहा है. सच यह है कि कार्पोरेट्स की मनमर्जी के मुताबिक श्रम सुधार अभी भले नहीं हुए हों लेकिन व्यवहार में श्रम कानूनों को बेमानी बना दिया गया है.

सरकार की मंशा का अंदाज़ा हाल में घोषित राष्ट्रीय मैन्युफैक्चरिंग नीति से भी लगाया जा सकता है जिसके तहत बननेवाले राष्ट्रीय मैन्युफैक्चरिंग जोन में श्रम कानून लागू नहीं होंगे. इससे पहले सेज के तहत भी ऐसे ही प्रावधान किये गए थे. साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार ने बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के हितों को आगे बढ़ाने के लिए कोई कोर कसर नहीं उठा रखा है.
इसका सुबूत यह भी है कि पिछले कुछ महीनों में वित्तीय पूंजी को कई रियायतें देने के अलावा खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई की इजाजत देने का भी फैसला किया. यह और बात है कि खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई के मुद्दे पर तृणमूल सरीखे सहयोगी दलों और देशव्यापी विरोध के कारण उसे कदम पीछे खींचने पड़े लेकिन उसके साथ यह भी सच है कि एकल ब्रांड में १०० फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत मिल गई है.
यही नहीं, ‘नीतिगत लकवे’ की छवि को तोड़ने के लिए सरकार की बेचैनी का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि टैक्स कानूनों में छिद्रों का फायदा उठाकर टैक्स देने से बचनेवाली कंपनियों से निपटने के लिए वित्त मंत्री ने बजट में जिस जी.ए.ए.आर (गार) का प्रस्ताव किया था, उसे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के दबाव में अगले साल के लिए टालने का एलान कर दिया है.
इसके बावजूद बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स खुश नहीं हैं. यू.पी.ए सरकार पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कंपनियों की ओर से भांति-भांति की रियायतों और कई मामलों में परस्पर विरोधी दबाव हैं. हाल के महीनों में ये दबाव इतने अधिक बढ़ गए हैं कि सरकार कोई फैसला नहीं ले पा रही है या फैसलों को लागू नहीं करा पा रही है. लेकिन गुलाबी मीडिया इसे ‘नीतिगत लकवा’ नहीं मानता है.  
उदाहरण के लिए, दूरसंचार क्षेत्र को ही लीजिए. २ जी मामले में १२२ लाइसेंसों के रद्द होने के बाद जिस तरह से देशी और खासकर विदेशी कंपनियों ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया और सरकार को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने पर मजबूर किया, उससे पता चलता है कि ‘नीतिगत लकवे’ का स्रोत क्या है?
इसी तरह दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने २ जी स्पेक्ट्रम की नीलामी के लिए आधार मूल्य तय करते हुए जो सिफारिशें दी हैं, उसके खिलाफ   देश की सभी बड़ी टेलीकाम कंपनियों ने युद्ध सा छेड दिया है. उनकी लाबीइंग की ताकत के कारण सरकार की घिग्घी बंध गई है. सरकार फैसला नहीं कर पा रही है. वोडाफोन के मामले में टैक्स लगाने को लेकर सरकार टिकी हुई जरूर है लेकिन जिस तरह से उसे वापस लेने को लेकर उसपर देश के अंदर और बाहर दबाव पड़ रहा है, उससे साफ़ है कि सरकार के लिए बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नियंत्रित करना कितना मुश्किल होता जा रहा है.
एक और उदाहरण देखिये. कृष्णा-गोदावरी बेसिन से गैस के उत्पादन के मामले रिलायंस न सिर्फ सरकार पर गैस की कीमत बढ़ाने के लिए जबरदस्त दबाव डाल रही है बल्कि भयादोहन के लिए जान-बूझकर गैस का उत्पादन गिरा दिया है. लेकिन शुरूआती के बाद अब सरकार रिलायंस की अनुचित मांगों के आगे झुकती हुई दिख रही है.
ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें कंपनियों के दबाव के आगे सरकार या तो समर्पण कर दे रही है, उनके हितों
के मुताबिक नीतियां बना रही है या फिर कंपनियों के आपसी टकराव में कोई फैसला नहीं कर पा रही है. सच यह है कि अर्थव्यवस्था का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसके बारे में नीतियां स्वतंत्र और जनहित में बन रही हों. इसके उलट मंत्रालयों से लेकर योजना आयोग और नियामक संस्थाओं तक हर समिति में या तो कारपोरेट प्रतिनिधि खुद मौजूद हैं या लाबीइंग के जरिये नीतियां बनाई या बदली जा रही हैं.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला-लौह अयस्क जैसे सार्वजनिक संसाधनों को औने-पौने दामों पर देशी-विदेशी कारपोरेट क्षेत्र को हवाले करने के घोटालों का पर्दाफाश होने और जमीन पर बढते जन प्रतिरोध के कारण यू.पी.ए सरकार के लिए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के नाम पर इस कारपोरेट लूट को खुली छूट देनेवाले फैसले लेने में बहुत मुश्किल हो रही है. कारपोरेट जगत और उसके प्रवक्ता इसे ही ‘नीतिगत लकवा’ बता रहे हैं.                 
असल में, यह एक बहुत सचेत और नियोजित प्रचार अभियान है जिसका मकसद नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पक्ष में माहौल बनाना, उसके विरोधियों को खलनायक घोषित करना और सरकार और उसके आर्थिक मैनेजरों पर इन कारपोरेट समर्थित सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने का दबाव बनाना है.
इस अभियान के कारण सरकार इतनी अधिक दबाव में है कि वह ‘नीतिगत लकवे’ के आरोपों को गलत साबित करने के लिए बिना सोचे-समझे और हड़बड़ी में देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों को खुश करने के लिए फैसले कर रही है.
दूसरी ओर, इस अभियान का दबाव है कि सरकार वित्तीय घाटे में कटौती करके नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के चक्कर में न सिर्फ पेट्रोल-डीजल से लेकर उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि की तैयारी कर रही है बल्कि खाद्य सुरक्षा विधेयक को लटकाए हुए है.
सच पूछिए तो असली ‘नीतिगत लकवा’ यह है कि यू.पी.ए सरकार रिकार्ड छह करोड़ टन अनाज भण्डार के बावजूद उसे गरीबों और भूखे लोगों तक पहुंचाने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि इससे वित्तीय घाटा बढ़ जाएगा और आवारा पूंजी नाराज हो जायेगी.
इसी तरह कारपोरेट की ओर से भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास विधेयक को और हल्का करने का दबाव के कारण वह लटका हुआ है. यही नहीं, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा का मुद्दा हो या सभी नागरिकों के लिए पेंशन का सवाल हो या फिर सबके लिए स्वास्थ्य के अधिकार का मुद्दा हो- सरकार इन वायदों को पूरा करने और नीतिगत फैसला करने से बचने के लिए संसाधनों की कमी का रोना रो रही है.
लेकिन कारपोरेट क्षेत्र और अमीरों को ताजा बजट में भी ५.४० लाख करोड़ रूपये की टैक्स छूट और रियायतें देते हुए उसे संसाधनों की कमी का ख्याल नहीं आता है. क्या यह ‘नीतिगत लकवा’ नहीं है?
('जनसत्ता' में सम्पादकीय पृष्ठ पर 17 मई को प्रकाशित लेख)       

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