बड़ी आवारा पूंजी के
हितों की प्रवक्ता बन गई हैं क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां
जैसीकि आशंका जाहिर की जा रही थी, क्रेडिट रेटिंग
एजेंसी स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स (एस एंड पी) ने पिछले सप्ताह भारत की ‘सार्वभौम
रेटिंग’ को ‘स्थिर’ (बी.बी.बी प्लस) से एक पायदान नीचे गिराते हुए ‘नकारात्मक’
(बी.बी.बी माइनस) श्रेणी में डाल दिया है जो ‘कबाड़’ (जंक) श्रेणी से सिर्फ एक
पायदान ऊपर है.
एस एंड पी ने इस फैसले के लिए भारत की लगातार बिगड़ती राजकोषीय
स्थिति, चालू खाते का बढ़ता घाटा, वृद्धि दर में गिरावट और आर्थिक सुधारों की धीमी
गति आदि को कारण बताते हुए चेतावनी दी है कि अगर स्थिति में जल्दी सुधार नहीं हुआ
तो वह उसकी रेटिंग को और नीचे गिराकर जंक यानी ‘निवेश लायक नहीं’ की श्रेणी में
डाल सकता है.
हालाँकि एस एंड पी के इस फैसले पर गुलाबी अखबारों
और आवारा पूंजी की प्रतिनिधि वित्तीय संस्थाओं के शोर-शराबे और घबराहट का माहौल
बनाने की कोशिश की लेकिन आशंका के विपरीत इस फैसले के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था
पर आसमान नहीं टूट पड़ा. यहाँ तक कि शेयर बाजार और मुद्रा बाजार में भी रोजमर्रा के
उतार-चढाव के बावजूद काफी हद तक स्थिरता बनी हुई है.
यही कोई चार-पांच साल पहले की
बात होती तो शेयर और मुद्रा बाजार में कोहराम मच जाता और स्थिति को संभालने में
सरकार के हाथ-पैर फूल जाते. लेकिन इन बीते वर्षों में मिसिसिपी से लेकर डैन्यूब और
गंगा तक में बहुत पानी बह चुका है और रेटिंग एजेंसियों का पानी काफी उतर चुका है.
खासकर २००७-०८ के अमेरिकी कर्ज संकट के दौरान
दर्जनों वित्तीय संस्थाओं और बैंकों के धराशाई होने के बाद क्रेडिट रेटिंग
एजेंसियों की साख भी पाताल में पहुँच गई क्योंकि इन एजेंसियों ने इन बैंकों और
वित्तीय संस्थाओं को आकर्षक रेटिंग दे रखी थी.
वैसे क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों पर
बहुत पहले से ही बड़े कारपोरेट समूहों, वित्तीय संस्थाओं और बैंकों के साथ मिलीभगत,
जोड़तोड़ और हितों के टकराव के आरोप लगते रहे हैं. एनरान से लेकर फ्रेडी मैक तक और
अमेरिकी वित्तीय संकट के लिए जिम्मेदार जहरीले बांडों (सी.डी.ओ) जैसे अनेकों मामलों
में यह पाया गया कि क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने उन्हें काफी ऊँची रेटिंग दी हुई
थी.
यही कारण है कि अमेरिकी कर्ज संकट और उसके कारण
पैदा हुए वैश्विक आर्थिक संकट में उनकी सीधी भूमिका के सामने आने के बाद उनके
कामकाज को लेकर दुनिया भर में बहस शुरू हो गई और उन्हें भी रेगुलेट करने की मांग
उठने लगी.
नतीजा यह कि पिछले दो-तीन सालों से क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां कुछ ज्यादा
ही सतर्क और अति सक्रिय दिखने की कोशिश करने लगी हैं. अपनी खोई हुई साख हासिल करने
के लिए वे कुछ ज्यादा ही तेजी और हड़बड़ी में देशों की सार्वभौम रेटिंग और कुछ हद तक
उनकी कंपनियों की क्रेडिट रेटिंग में कटौती करने लगी हैं.
आश्चर्य नहीं कि पिछले साल जब स्टैण्डर्ड एंड
पुअर्स ने १९४१ के बाद पहली बार अमेरिका की सार्वभौम क्रेडिट रेटिंग को
सर्वश्रेष्ठ रेटिंग ए.ए.ए से एक दर्जा घटाकर ए.ए प्लस कर दिया तो उससे अमेरिकी
अर्थव्यवस्था ढह नहीं गई.
उल्टे इसके लिए उसे अमेरिकी सरकार से ढेरों गालियाँ
सुननी पड़ीं. यही नहीं, सार्वभौम रेटिंग में कटौती से न तो निवेशकों को कोई फायदा
हुआ और न ही पटरी पर लौटने की कोशिश कर रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कोई मदद मिली.
उल्टे इससे अनिश्चितता और अस्थिरता और बढ़ गई.
हैरानी की बात नहीं है कि हाल के महीनों में
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों पर आर्थिक संकट में फंसे देशों की आर्थिक स्थिति को और
बिगाड़ने के आरोप लगे हैं. खासकर कई यूरोपीय देशों और उनके बैंकों-वित्तीय संस्थाओं
और कार्पोरेट्स की क्रेडिट रेटिंग में कटौती के फैसलों की खासी आलोचना हुई है.
इस
आरोप में काफी हद तक सच्चाई है क्योंकि मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक यथार्थ को
नजरंदाज करते हुए और सिर्फ बड़े निवेशकों के मुनाफे को ध्यान में रखते हुए क्रेडिट
रेटिंग में कटौती से स्थिति में सुधार के बजाय संकट और गहरा हुआ है. असल में,
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी और बड़ी आवारा पूंजी के
साथ नाभिनालबद्ध हैं और वे बड़े देशी-विदेशी निवेशकों खासकर आवारा पूंजी की
प्रतिनिधि विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) के हितों को आगे बढ़ाने के लिए काम
करती हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि भारत की सार्वभौम
रेटिंग में कटौती के स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स के फैसले को इसी सन्दर्भ में देखा जाना
चाहिए. इस फैसले का उद्देश्य भारत की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाना और
अर्थव्यवस्था को सही दिशा में ले जाना नहीं बल्कि अपने देशी-विदेशी ग्राहकों खासकर
एफ.आई.आई और बड़े देशी-विदेशी कार्पोरेट्स समूहों के लिए अधिक से अधिक मुनाफे की
गारंटी और निवेश के लिए अनुकूल स्थितियां बनाना है.
यही कारण है कि एस.एंड.पी ने
भारत की क्रेडिट रेटिंग में कटौती के कारण गिनाते और रेटिंग को बेहतर बनाने के लिए
यू.पी.ए सरकार के सामने वही एजेंडा रखा है जो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के
पैरोकार तमाम मंचों से उठाते रहते हैं.
एस.एंड.पी की मांग है कि यू.पी.ए सरकार राजकोषीय
घाटे में कटौती के लिए सख्त कदम उठाये यानी पेट्रोल, खाद्य और उर्वरक सब्सिडियों और
सामाजिक क्षेत्र के खर्चों में कटौती करे; आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाते हुए
बैंकिंग, बीमा और खुदरा व्यापार जैसे क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोले और
चालू खाते के घाटे को कम करने के लिए विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के ठोस उपाय
करे.
सवाल है कि इन फैसलों से किसे फायदा होगा? क्या भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे
बड़ी समस्याएं यही हैं? जाहिर है कि नहीं. सच यह है कि एस.एंड.पी बड़ी देशी-विदेशी
पूंजी के हितों को आगे बढ़ाने के लिए एक तरह से भयादोहन करने की कोशिश कर रही है.
इसके जरिये वह सरकार को वे फैसले करने के लिए मजबूर कर रही है जिनके नतीजे
राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक तौर पर देश के लिए बहुत घातक साबित हो सकते हैं.
तथ्य यह है कि मौजूदा अनिश्चित वैश्विक आर्थिक
परिदृश्य में भारतीय अर्थव्यवस्था यू.पी.ए सरकार की कथित ‘नीतिगत लकवे’ की स्थिति के
बावजूद लगभग ७ प्रतिशत की रफ़्तार से बढ़ रही है. इस समय सबसे बड़ी जरूरत
अर्थव्यवस्था में निवेश बढाने की है ताकि अर्थव्यवस्था की वृद्धि की गति को तेज
करने के साथ-साथ रोजगार के नए अवसर पैदा हों और घरेलू मांग में वृद्धि हो. निवेश
में गिरावट के कारण ही औद्योगिक उत्पादन लड़खड़ा रहा है. आधारभूत क्षेत्र की वृद्धि
दर मार्च में गिरकर २ फीसदी पर पहुँच गई है.
लेकिन मुश्किल यह है कि इस समय
देशी-विदेशी निजी क्षेत्र नए निवेश करने से हिचक रहा है और सरकार से तमाम
उचित-अनुचित रियायतों की मांग कर रहा है. इस गतिरोध को तोड़ने के लिए जरूरी है कि
राजकोषीय घाटे की चिंता छोडकर सरकार खुद सार्वजनिक निवेश में भारी वृद्धि करे ताकि
उससे पैदा होनेवाली मांग को पूरा करने के लिए निजी क्षेत्र भी निवेश करने को
प्रोत्साहित हो.
यह ठीक है कि राजकोषीय घाटे और खासकर चालू खाते
के घाटे में बढोत्तरी चिंता की बात है लेकिन इसमें घबराने और दबाव में उल्टे-सीधे
फैसले करने की जरूरत नहीं है. सच पूछिए तो अगर राजकोषीय घाटा उत्पादक निवेश के
कारण बढ़ रहा है तो यह ज्यादा चिंता की बात नहीं है.
इसके उलट अगर रेटिंग एजेंसियों
की सलाह के मुताबिक, अर्थव्यवस्था की जरूरतों की अनदेखी करते हुए राजकोषीय घाटे
में जबरदस्ती कटौती की कोशिश की गई तो इससे आम आदमी पर बोझ बढ़ने के साथ मांग और
निवेश दोनों पर नकारात्मक असर हो सकता है जो अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में और
गिरावट की वजह बन सकता है. इससे सरकार की टैक्स आय में और कमी और उसके कारण
राजकोषीय घाटा और बढ़ सकता है.
दूसरी ओर, यह राजनीतिक उथल-पुथल को भी जन्म दे सकता
है जो अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से पटरी से उतार सकता है.
इस तरह यह एक दुश्चक्र में फंसने की तरह होगा. ८०
और ९० के दशक में लातिन अमेरिका और अफ्रीका समेत एशिया के अनेकों देशों ने विश्व
बैंक-मुद्रा कोष की अगुवाई में ‘वाशिंगटन सहमति’ के नामपर पर इसे भुगता है और इन
दिनों यूनान, स्पेन, पुर्तगाल और इटली जैसे देशों को इस पीड़ादायक प्रक्रिया से
गुजरना पड़ रहा है.
आश्चर्य नहीं कि इन दिनों यूरोप में आर्थिक संकट से निपटने के
नामपर जिस तरह से आमलोगों के सामाजिक सुरक्षा में कटौती की जा रही है और उनपर बोझ
डाला जा रहा है, उसपर गंभीर सवाल उठने लगे हैं.
आखिर राजकोषीय घाटे में कटौती के लिए अमीरों और
कार्पोरेट्स पर टैक्स में बढोत्तरी क्यों नहीं की जाये? भारत में भी चालू वित्तीय
वर्ष के बजट में टैक्स रियायतों/छूटों में कोई ५.४० लाख करोड़ की सब्सिडी अमीरों और
कार्पोरेट्स को दी गई है. एस.एंड.पी इसमें कटौती की सिफारिश क्यों नहीं करती है?
साफ़ है कि उसका एजेंडा भारतीय अर्थव्यवस्था की बेहतरी नहीं बल्कि अपने ग्राहकों के
लिए अधिक से अधिक मुनाफे की व्यवस्था करना है. इसलिए इन नाकाम रेटिंग एजेंसियों से
सावधान रहने और उनके झांसे में आने की जरूरत नहीं है.
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है
कि अर्थव्यवस्था के साथ सब कुछ अच्छा चल रहा है और सरकार को कुछ करने की जरूरत
नहीं है. जरूरत घरेलू आर्थिक समस्याओं की घरेलू समाधान खोजने की है जिसके केन्द्र
में बड़ी पूंजी के मुनाफे की परवाह कम और आम आदमी के हितों की चिंता अधिक हो.
('दैनिक भास्कर' के 2 मई के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)
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