सोमवार, मई 21, 2012

‘सत्यमेव जयते’ का सच

सामाजिक क्रांति के नाम पर कहीं प्रतिक्रांति की वजह न बन जाए "सत्यमेव जयते"
सत्य की महिमा कौन नहीं जानता? कहते हैं कि सच परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं. गाँधी आजीवन ‘सत्य के साथ प्रयोग’ करते रहे और बहुतों का मानना है कि उनके सत्याग्रह ने अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया.
आज़ाद भारत के निर्माताओं ने शायद इसे ही ध्यान में रखकर राष्ट्र का आदर्श वाक्य चुना: ‘सत्यमेव जयते’. जल्दी ही थाने-कचहरियों से लेकर तमाम सरकारी इमारतों और दफ्तरों पर तीन सिंहों के सिर वाले अशोक स्तंभ के ठीक नीचे यह आदर्श वाक्य चुन दिया गया: ‘सत्यमेव जयते’.
यह और बात है कि इन सरकारी इमारतों में सच का गला सबसे ज्यादा घोंटा गया. समय के साथ सच परेशान ही नहीं, पराजित दिखने लगा. कुछ इस हद तक कि लोगों की निराशा और हताशा बेकाबू होने लगी. उनका गुस्सा अलग-अलग शक्लों में फूटने लगा.

इस तरह स्टेज पूरी तरह सेट हो चुका था. ‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत...’ यानी अब भारत को जरूरत थी, एक अवतार की जो उसे इस अधर्म से निकाले और सत्य की जीत में खोई आस्था को बहाल करे.

लेकिन अब समय बदल चुका है. यह कलियुग यानी मीडियायुग है. इस युग में अवतार पैदा नहीं होता बल्कि गढा जाता है. अब ईश्वरीय गुणों वाले महानायक देवलोक से नहीं आते, टी.वी स्टूडियो या ओ.बी में जन्म लेते हैं. वे आसमान से नहीं उतरते बल्कि आकाश-तरंगों से घर-घर पहुँच जाते हैं.
मानिए या नहीं, आज मीडिया ही नायक बनाता है, वही खलनायक तय करता है और दोनों के बीच वाकयुद्ध का मंच भी मीडिया ही होता है. यह नायक कोई भी हो सकता है. इस तरह मीडिया के कंधे पर चढ़ पहले अन्ना हजारे आये, भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध का एलान करते हुए. उनके पास भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए एक जादू की छड़ी थी: लोकपाल.
रातों-रात 24x7 ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें भ्रष्टाचार से आज़ादी दूँगा’ के नारे चैनलों पर गूंजने लगे. नतीजा, चैनलों पर देश हिलने लगा, भावनाएं उबलने लगीं. लगा कि क्रांति अब हुई कि तब हुई. लेकिन अफ़सोस क्रांति नहीं हुई. हाँ, लोगों के मन का गुबार जरूर निकल गया. अलबत्ता, थोड़ी कसक रह गई.
अब वह कसक पूरी करने अभिनेता आमिर खान आए हैं, एयरटेल और एक्वागार्ड के सौजन्य से स्टार प्लस और दूरदर्शन पर ‘सत्यमेव जयते’ लेकर. यह कहते हुए कि ‘जब दिल पर लगेगी, तभी बात बनेगी’, यह रियलिटी-टाक शो हर रविवार को दिन में ११ बजे दिखाया जायेगा.

बहुत सचेत तरीके से याद दिलाया जा रहा है कि यह रविवार का वही समय है जब दो-ढाई दशक पहले रामायण-महाभारत दिखाए जाते थे और शहरों में सड़कें सूनी हो जाया करती थीं. जबरदस्त प्रचार और मार्केटिंग अभियान के साथ शुरू हुए ‘सत्यमेव जयते’ के पहले एपीसोड में आमिर ने कन्या भ्रूण हत्या के मुद्दे को खूब जोरशोर से उठाया.
इसमें क्या नहीं है? एक ज्वलंत मुद्दा है. ओफ्रा विनफ्रे शैली में पीडितों की सच्ची आपबीतियां और आमिर का पर्सनल टच और स्टारडम है. डाक्टरों की पोल खोलने वाला एक पुराना स्टिंग और उसके पत्रकारों की हकीकत बयानी है. कन्या भ्रूण हत्या के सामाजिक पहलुओं और डाक्टरी खेल पर विशेषज्ञों की राय थी. कुछ तथ्य और तर्क थे और बहुत ज्यादा भावनाएं और आंसू थे.

सबसे बढ़कर मुद्दे का तुरता और आसान ‘फास्टफूड’ समाधान है. इस तरह दर्शकों के लिए विरेचन
(कैथार्सिस) का पूरा इंतजाम है. यही नहीं, इसके पीछे स्टार जैसा चैनल/मीडिया समूह और उसकी टीम है जो करोड़ों खर्च करके बनाये गए इतने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को असफल नहीं होने दे सकती.     
नतीजा, जैसाकि दावा था, ‘बात दिल पर ही लगी’ और मीडिया पंडितों की मानें तो ‘बात बन भी गई.’ ‘सत्यमेव जयते’ को टी.वी का नया गेम चेंजर माना जा रहा है. किसी को यह व्यावसायिक टी.वी पर लोकसेवा प्रसारण की वापसी दिखाई दे रही है. कोई इसे टी.वी में सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास जगना बता रहा है.

कुछ अति उत्साहियों को इसमें कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ एक नई सामाजिक क्रांति की शुरुआत दिखाई दे रही है. टी.वी और आमिर खान को इस सामाजिक क्रांति का माध्यम बताया जा रहा है. चलिए, मान लिया कि टी.वी का ह्रदय परिवर्तन होने लगा है. लेकिन यह भी तो बताइए कि रातों-रात टी.वी की अंतरात्मा कैसे जग गई?

यह सवाल इसलिए भी बनता है कि कल तक टी.वी को उसकी सामाजिक जिम्मेदारी की याद दिलाने पर चैनलों के जो संपादक/प्रबंधक उसे लोगों के मनोरंजन और बहलाव का माध्यम बताते नहीं थकते थे और दुनियावी परेशानियों में उलझे अपने दर्शकों को गंभीर मुद्दों से और परेशान करने के लिए तैयार नहीं थे, उनके अचानक ह्रदय परिवर्तन की वजह क्या है?

यह सवाल इसलिए भी मौजूं है क्योंकि महिला अधिकारों और जागरूकता की बातों के बावजूद चैनलों और खुद स्टार पर अब भी सामाजिक रूप से ऐसे अनुदार और प्रतिगामी धारावाहिकों की भरमार है जिसमें महिलाओं की पितृ-सत्तात्मक/सामंती जकड़बंदियों का महिमामंडन होता है.

हैरानी की बात नहीं है कि आमिर के कन्या भ्रूण हत्या पर ‘सामाजिक क्रांतिकारी’ शो का नतीजा शंकराचार्य और धर्मगुरुओं की इस मांग के रूप में सामने आया कि गर्भपात पर पूरी तरह से रोक लगाया जाए.

अब यह कौन याद दिलाये कि महिला आंदोलन ने लंबी लड़ाई के बाद अपने शरीर पर अपना हक और बच्चा पैदा करने या न करने का यानी गर्भपात का अधिकार पाया! इस अधिकार का मिलना सामाजिक क्रांति थी. लेकिन यहाँ तो इसे छीनने की मांग उठने लगी है.

लेकिन इसका मौका ‘सत्यमेव जयते’ ने ही दिया है. आखिर कन्या भ्रूण हत्या जैसे जटिल और गंभीर सामाजिक अपराध के लिए आमिर ने जैसे कुछ लालची डाक्टरों, अल्ट्रासाउंड मशीनों, बेटा चाहनेवाले सास-ससुर-पतियों को खलनायक और जिम्मेदार ठहराकर कानून के कड़ाई से पालन और अपराधियों के खिलाफ फास्ट ट्रैक कोर्ट का आसान समाधान पेश कर दिया, उससे और क्या उम्मीद की जा सकती है?

गोया जब डाक्टर और अल्ट्रा साउंड मशीनें नहीं थीं, बेटियों की हत्याएं नहीं होती थीं! और यह भी कि लोग कुलदीपक क्यों चाहते हैं? जाहिर है कि आमिर का ‘सत्य’ उस पितृ सत्तात्मक सामंती-पूंजीवादी ढांचे तक नहीं पहुँच पाया या नहीं पहुंचना चाहता था जो महिलाओं को समाज और परिवार में अवांछित या एक वस्तु भर बना देता है.
माफ करिये लेकिन कहना पड़ेगा कि इस ढांचे को तोड़े और चुनौती दिए बगैर कन्या भ्रूण हत्या से लेकर दहेज हत्या तक महिलाओं के खिलाफ होनेवाले अत्याचारों को रोकना मुश्किल है. लेकिन ‘सत्यमेव जयते’ का सच इससे मुंह चुराता दिखता है?
यह व्यावसायिक टी.वी की सीमा है. वह सामाजिक क्रांति का नहीं, उपभोक्ता क्रांति का माध्यम है. वह बदलाव का नहीं, यथास्थिति का माध्यम है. वह उसे चुनौती नहीं दे सकता जिससे उसे खाद-पानी मिलता है और इसीलिए वह सत्य में नहीं, आधे-अधूरे और सतही ‘सच’ में हल खोजता है जो वास्तव में, असली हल नहीं, हल का आभास भर होता है. अफ़सोस, सत्य एक बार फिर पराजित होता दिख रहा है. 
("तहलका" के 15 मई के अंक में प्रकाशित स्तम्भ का असंपादित हिस्सा..इसका थोडा संक्षिप्त हिस्सा 'तहलका' के 3 मई के अंक में छपा है) 

3 टिप्‍पणियां:

स्वर्ण सुमन ने कहा…

यह वास्तविकता से ज्यादा भ्रम पैदा कर रहा है. बाज़ार और मीडिया ने पहले हमारे कल्चर को इंडस्ट्री में तब्दील किया और अब वो इससे एक कदम आगे जाकर हमारे इमोशन को कमोडिफिकेशन में बदल रहा है. हमें ‘भावनात्मक मनोरंजन’ परोस रहा है.

मैंने भी 'सत्यमेव जयते या स्टारमेव जयते' नाम से लेख यहाँ लिखा है- http://swarnsuman.blogspot.in/2012/05/blog-post_404.html

स्वर्ण सुमन ने कहा…

यह वास्तविकता से ज्यादा भ्रम पैदा कर रहा है. बाज़ार और मीडिया ने पहले हमारे कल्चर को इंडस्ट्री में तब्दील किया और अब वो इससे एक कदम आगे जाकर हमारे इमोशन को कमोडिफिकेशन में बदल रहा है. हमें ‘भावनात्मक मनोरंजन’ परोस रहा है.
मैंने भी इस विषय पर 'सत्यमेव जयते या स्टारमेव जयते' नाम से लेख यहाँ लिखा है -
http://swarnsuman.blogspot.in/2012/05/blog-post_404.html

योगेश कुमार 'शीतल' ने कहा…

एक अलग नजरिये से "सत्यमेव जयते" को दिखाने वाला लेख. लेख के कुछ वाक्य को ट्विट कर रहा हूं सर बिना साभार लिखे.