सवाल भूखों की दो जून की रोटी के लिए जी.डी.पी के १.३ फीसदी खर्च का है
दूसरी और आखिरी किस्त
सवाल यह है कि यह जानते हुए भी कि बजट में सब्सिडी में कटौती के बावजूद वास्तविकता में उसमें बढोत्तरी हो रही है, प्रणब मुखर्जी इतने परेशान क्यों हैं कि उनकी नींद उड़ गई है? असल में, वे इस सब्सिडी को लेकर उतने परेशान नहीं हैं जितने खाद्य सब्सिडी को लेकर बेचैन हैं.
उनकी नींद इस बात से उड़ी हुई है कि आनेवाले बजट में प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के मद्देनजर खाद्य सब्सिडी का बजट बढ़ना तय है. मोटे अनुमानों के मुताबिक, खाद्य सुरक्षा कानून के लागू होने की स्थिति में खाद्य सब्सिडी के मौजूदा ६० हजार करोड़ रूपये के बजट में कोई २५ से ३५ हजार करोड़ रूपये की वृद्धि हो सकती है.
हालांकि वित्त मंत्री ने राजनीतिक संकोच में यह खुलकर नहीं कहा है लेकिन यह किसी से छुपा नहीं है कि वित्त मंत्रालय खाद्य सब्सिडी में इस ‘भारी वृद्धि’ को लेकर खुश नहीं है. सच यह है कि खाद्य सब्सिडी में वृद्धि के डर से खाद्य सुरक्षा कानून का खुद यू.पी.ए सरकार के अंदर दबे-छुपे खासा विरोध हो रहा है.
कृषि मंत्री शरद पवार तो अपनी नाखुशी कई मौकों पर खुलकर जाहिर कर चुके हैं. यही कारण है कि पिछले डेढ़-दो सालों में इस प्रस्तावित कानून को अमल में आने से रोकने और उसे कमजोर और सीमित करने की हरसंभव कोशिश की गई है.
हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए-२ सरकार का खाद्य सुरक्षा का यह सबसे महत्वाकांक्षी कानून/कार्यक्रम पिछले ढाई सालों से विभिन्न मंत्रालयों/समितियों के खींचतान में फंसा रहा. इस दौरान इसे रोकने और कमजोर करने की भरपूर कोशिश की गई. इसके लिए सबसे अधिक खाद्य सब्सिडी के बजट में संभावित ‘भारी बढोत्तरी’ को मुद्दा बनाया गया.
यहाँ तक कि इसके खिलाफ एक व्यापक कुप्रचार अभियान शुरू कर दिया गया जिसमें बहुत सोचे-समझे तरीके से खाद्य सुरक्षा के कानून के लागू होने के बाद खाद्य सब्सिडी के बजट में दो से तीन गुनी वृद्धि के आकलन पेश किये जाने लगे. सरकार के एक बड़े अफसर तो इसका बजट छह लाख करोड़ रूपये तक ले गए.
कहने की जरूरत नहीं है कि खाद्य सब्सिडी में ‘भारी वृद्धि’ के इन काल्पनिक अनुमानों के पीछे असली मकसद वित्तीय घाटे में भारी बढ़ोत्तरी और इस कारण ‘वित्तीय ध्वंस’ का हौव्वा खड़ा करना था ताकि खाद्य सुरक्षा कानून को रोका और लटकाया जा सके. हालांकि इसमें नया कुछ भी नहीं है.
इससे पहले भी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और किसानों की कर्ज माफ़ी के मुद्दे पर भी इसी तरह का अभियान चलाया गया था. इस बार निशाने पर खाद्य सुरक्षा कानून है. चिंता की बात यह है कि इस अभियान में प्रधानमंत्री के बाद अब खुद वित्त मंत्री भी शामिल हो गए हैं.
मजे की बात यह है कि खुद कृषि मंत्रालय के खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग का अनुमान है कि इस कानून को लागू करने में मौजूदा बजट प्रावधान की तुलना में सिर्फ २७ हजार करोड़ रूपये अधिक खर्च होंगे. यही नहीं, ज्यादातर तार्किक अनुमानों में इस कानून को लागू करने के लिए अधिकतम ९५ हजार करोड़ से लेकर १.१० लाख करोड़ रूपये खर्च होने का आकलन है.
यह रकम जी.डी.पी के १.४ फीसदी के आसपास बैठती है. सवाल यह है कि क्या खुद को दुनिया की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति के रूप में पेश कर रहा देश अपने भूखे लोगों के लिए दो जून के भोजन के लिए भी जी.डी.पी का १.४ फीसदी खर्च नहीं कर सकता है?
सवाल यह भी उठता है कि क्या वित्त मंत्री की नींद कभी इस तथ्य से भी उड़ती है कि देश में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कोई ३० करोड़ से अधिक भारतीय ऐसे हैं जिन्हें एक जून भी भरपेट भोजन नहीं मिलता है? क्या उन्हें भी प्रधानमंत्री की तरह यह राष्ट्रीय शर्म महसूस होती है कि देश में कोई ४२ फीसदी बच्चे कुपोषण (भूख का दूसरा नाम) के शिकार हैं?
क्या वित्त मंत्री को इस बात से बेचैनी होती है कि देश में कोई ७८ फीसदी लोग प्रतिदिन २० रूपये से कम की आय पर गुजर करने को मजबूर हैं? क्या उनकी नींद इस बात से भी उड़ती है कि आसमान छूती महंगाई के बीच आम आदमी कैसे जी रहा है?
कहना मुश्किल है कि इन और इन जैसे अनेकों कड़वी सच्चाइयों से वित्त मंत्री की नींद पर असर पड़ता है या नहीं लेकिन इतना तय है कि ये किसी भी संवेदनशील इंसान की नींद उड़ाने के लिए काफी हैं.
गाँधी जी ने कहा था कि कोई भी फैसला करने से पहले सबसे आखिरी पायदान पर खड़े आदमी की सोचो कि क्या वह उसके आंसू पोंछ पायेगा? क्या प्रणब मुखर्जी को गाँधी की यह जंत्री याद है? बजट का इंतज़ार कीजिये.
('जनसत्ता' के १५ फरवरी के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख की दूसरी किस्त)
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सवाल यह है कि यह जानते हुए भी कि बजट में सब्सिडी में कटौती के बावजूद वास्तविकता में उसमें बढोत्तरी हो रही है, प्रणब मुखर्जी इतने परेशान क्यों हैं कि उनकी नींद उड़ गई है? असल में, वे इस सब्सिडी को लेकर उतने परेशान नहीं हैं जितने खाद्य सब्सिडी को लेकर बेचैन हैं.
उनकी नींद इस बात से उड़ी हुई है कि आनेवाले बजट में प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के मद्देनजर खाद्य सब्सिडी का बजट बढ़ना तय है. मोटे अनुमानों के मुताबिक, खाद्य सुरक्षा कानून के लागू होने की स्थिति में खाद्य सब्सिडी के मौजूदा ६० हजार करोड़ रूपये के बजट में कोई २५ से ३५ हजार करोड़ रूपये की वृद्धि हो सकती है.
हालांकि वित्त मंत्री ने राजनीतिक संकोच में यह खुलकर नहीं कहा है लेकिन यह किसी से छुपा नहीं है कि वित्त मंत्रालय खाद्य सब्सिडी में इस ‘भारी वृद्धि’ को लेकर खुश नहीं है. सच यह है कि खाद्य सब्सिडी में वृद्धि के डर से खाद्य सुरक्षा कानून का खुद यू.पी.ए सरकार के अंदर दबे-छुपे खासा विरोध हो रहा है.
कृषि मंत्री शरद पवार तो अपनी नाखुशी कई मौकों पर खुलकर जाहिर कर चुके हैं. यही कारण है कि पिछले डेढ़-दो सालों में इस प्रस्तावित कानून को अमल में आने से रोकने और उसे कमजोर और सीमित करने की हरसंभव कोशिश की गई है.
हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए-२ सरकार का खाद्य सुरक्षा का यह सबसे महत्वाकांक्षी कानून/कार्यक्रम पिछले ढाई सालों से विभिन्न मंत्रालयों/समितियों के खींचतान में फंसा रहा. इस दौरान इसे रोकने और कमजोर करने की भरपूर कोशिश की गई. इसके लिए सबसे अधिक खाद्य सब्सिडी के बजट में संभावित ‘भारी बढोत्तरी’ को मुद्दा बनाया गया.
यहाँ तक कि इसके खिलाफ एक व्यापक कुप्रचार अभियान शुरू कर दिया गया जिसमें बहुत सोचे-समझे तरीके से खाद्य सुरक्षा के कानून के लागू होने के बाद खाद्य सब्सिडी के बजट में दो से तीन गुनी वृद्धि के आकलन पेश किये जाने लगे. सरकार के एक बड़े अफसर तो इसका बजट छह लाख करोड़ रूपये तक ले गए.
कहने की जरूरत नहीं है कि खाद्य सब्सिडी में ‘भारी वृद्धि’ के इन काल्पनिक अनुमानों के पीछे असली मकसद वित्तीय घाटे में भारी बढ़ोत्तरी और इस कारण ‘वित्तीय ध्वंस’ का हौव्वा खड़ा करना था ताकि खाद्य सुरक्षा कानून को रोका और लटकाया जा सके. हालांकि इसमें नया कुछ भी नहीं है.
इससे पहले भी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और किसानों की कर्ज माफ़ी के मुद्दे पर भी इसी तरह का अभियान चलाया गया था. इस बार निशाने पर खाद्य सुरक्षा कानून है. चिंता की बात यह है कि इस अभियान में प्रधानमंत्री के बाद अब खुद वित्त मंत्री भी शामिल हो गए हैं.
मजे की बात यह है कि खुद कृषि मंत्रालय के खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग का अनुमान है कि इस कानून को लागू करने में मौजूदा बजट प्रावधान की तुलना में सिर्फ २७ हजार करोड़ रूपये अधिक खर्च होंगे. यही नहीं, ज्यादातर तार्किक अनुमानों में इस कानून को लागू करने के लिए अधिकतम ९५ हजार करोड़ से लेकर १.१० लाख करोड़ रूपये खर्च होने का आकलन है.
यह रकम जी.डी.पी के १.४ फीसदी के आसपास बैठती है. सवाल यह है कि क्या खुद को दुनिया की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति के रूप में पेश कर रहा देश अपने भूखे लोगों के लिए दो जून के भोजन के लिए भी जी.डी.पी का १.४ फीसदी खर्च नहीं कर सकता है?
सवाल यह भी उठता है कि क्या वित्त मंत्री की नींद कभी इस तथ्य से भी उड़ती है कि देश में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कोई ३० करोड़ से अधिक भारतीय ऐसे हैं जिन्हें एक जून भी भरपेट भोजन नहीं मिलता है? क्या उन्हें भी प्रधानमंत्री की तरह यह राष्ट्रीय शर्म महसूस होती है कि देश में कोई ४२ फीसदी बच्चे कुपोषण (भूख का दूसरा नाम) के शिकार हैं?
क्या वित्त मंत्री को इस बात से बेचैनी होती है कि देश में कोई ७८ फीसदी लोग प्रतिदिन २० रूपये से कम की आय पर गुजर करने को मजबूर हैं? क्या उनकी नींद इस बात से भी उड़ती है कि आसमान छूती महंगाई के बीच आम आदमी कैसे जी रहा है?
कहना मुश्किल है कि इन और इन जैसे अनेकों कड़वी सच्चाइयों से वित्त मंत्री की नींद पर असर पड़ता है या नहीं लेकिन इतना तय है कि ये किसी भी संवेदनशील इंसान की नींद उड़ाने के लिए काफी हैं.
गाँधी जी ने कहा था कि कोई भी फैसला करने से पहले सबसे आखिरी पायदान पर खड़े आदमी की सोचो कि क्या वह उसके आंसू पोंछ पायेगा? क्या प्रणब मुखर्जी को गाँधी की यह जंत्री याद है? बजट का इंतज़ार कीजिये.
('जनसत्ता' के १५ फरवरी के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख की दूसरी किस्त)
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