एन.डी.टी.वी, इंडिया टुडे, अमर उजाला, नई दुनिया, प्रभात खबर आदि से लेकर दर्जनों छोटी कंपनियों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है
यही नहीं, रिलायंस नगद जमा कंपनी के मामले में भी देश की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है जिसके पास 30 सितम्बर’11 को लगभग 14 अरब डालर यानी 70000 करोड़ रूपये का नगद जमा था जिसके इस वित्तीय वर्ष के आखिर तक बढ़कर 25 अरब डालर (125000 करोड़ रूपये) हो जाने का अनुमान है.
यही नहीं, रिलायंस के पास आई.पी.एल की मुंबई इंडियन टीम है. वह इसीलिए खेल के चैनल और साथ ही, केबल नेटवर्क कंपनियों को भी खरीदने की कोशिश में है.
असल में, यह पूंजीवाद का सहज चरित्र है जिसमें बड़ी मछली, छोटी मछली को निगल जाती है. इसी तरह बड़ी पूंजी धीरे-धीरे छोटी और मंझोली पूंजी को निगलती और बड़ी होती जाती है. अमेरिका में यह प्रक्रिया 70 के दशक के मध्य में शुरू हुई और 80 और 90 के दशक में आकर पूरी हो गई जहां आज सिर्फ छह बड़ी मीडिया कंपनियों का पूरे अमेरिकी मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर एकछत्र राज है जबकि 1983 तक वहां लगभग 50 बड़ी मीडिया कम्पनियाँ थीं.
उदाहरण के लिए, एन.डी.टी.वी समूह, इंडिया टुडे समूह, अमर उजाला समूह, नई दुनिया समूह, प्रभात खबर समूह आदि से लेकर दर्जनों छोटी कंपनियों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है.
("कथादेश" के फरवरी'१२ अंक में प्रकाशित लेख की दूसरी किस्त...इंतज़ार कीजिये तीसरी और आखिरी किस्त का...)
दूसरी किस्त
आश्चर्य नहीं कि टी.वी-18 को रिलायंस की शरण
में जाना पड़ा है. इसकी भी वजह यह है कि पिछले कुछ वर्षों में प्रतियोगिता में आगे
रहने के लिए उसने बाजार से काफी पैसा उगाहा है. इसमें दुनिया की सबसे बड़ी दस
मीडिया कंपनियों में से एक वायाकाम भी शामिल है जिसके साथ संयुक्त उपक्रम में
नेटवर्क-18 ने ‘कलर्स’ नामक
मनोरंजन चैनल की शुरुआत की है.
लेकिन इस प्रक्रिया में नेटवर्क-18/टी.वी-18 पर 1300 करोड़ रूपये से
अधिक का कर्ज भी हो गया था और साथ ही, उसे और विस्तार के लिए आगे भी और पूंजी की
जरूरत थी. ऐसे में, उसने रिलायंस का दामन थामा और इसके साथ ही, मीडिया उद्योग में
देश की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी के सीधे प्रवेश का रास्ता खुल गया.
जाहिर है कि रिलायंस कोई मामूली कंपनी
नहीं है. बाजार पूंजीकरण के लिहाज से वह लगभग 257089 करोड़ रूपये की कंपनी है जिसका अर्थ यह हुआ कि
उसके आगे अधिकांश मीडिया कम्पनियाँ बहुत बौनी हैं. यहाँ तक कि शेयर बाजार में
लिस्टेड सभी मीडिया और मनोरंजन कंपनियों के मौजूदा कुल पूंजीकरण को भी जोड़ दिया
जाए तो रिलायंस के पूंजीकरण के आधे से भी कम हैं. यही नहीं, रिलायंस नगद जमा कंपनी के मामले में भी देश की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है जिसके पास 30 सितम्बर’11 को लगभग 14 अरब डालर यानी 70000 करोड़ रूपये का नगद जमा था जिसके इस वित्तीय वर्ष के आखिर तक बढ़कर 25 अरब डालर (125000 करोड़ रूपये) हो जाने का अनुमान है.
मजे की बात यह है कि बाजार में इस बाबत
कयास लगाये जा रहे हैं कि रिलायंस इतने अधिक नगद जमा का क्या और कैसे इस्तेमाल
करेगा? उसपर दबाव है कि वह इस पैसे कोई अधिक से अधिक मुनाफा देनेवाले
उद्योगों/कारोबारों में इस्तेमाल करे. इसका अर्थ यह है कि अगर रिलायंस अपने नगद
जमा का 10 फीसदी भी मीडिया
और मनोरंजन कारोबार में लगाये तो जी नेटवर्क और सन नेटवर्क को छोडकर वह सभी टी.वी
कंपनियों को खरीद सकता है.
इसमें कोई शक नहीं है कि मुकेश अंबानी का इरादा 4 जी ब्राडबैंड सेवा
में सबसे बड़े खिलाड़ी बनने के जरिये एक ओर दूरसंचार के बेहद लुभावने कारोबार में
पैठ बनाने का है और दूसरी ओर, उसे मीडिया उद्योग से जोड़कर मनोरंजन कारोबार पर
कब्ज़ा जमाने का है.
असल में, मुकेश अंबानी और रिलायंस की
दूरसंचार और मीडिया/मनोरंजन उद्योग पर बहुत पहले से नजर है. रिलायंस की सहयोगी
कंपनी इंफोटेल ब्राडबैंड ने पिछले साल 13000 करोड़ रूपये चुकाकर 4 जी सेवाओं के लिए अखिल भारतीय लाइसेंस लिया है और उसकी योजना है कि वह
उपभोक्ताओं को 3500 रूपये की सस्ती
टैबलेट उपलब्ध कराएगा, जिसपर ब्राडबैंड के जरिये इंटरनेट से लेकर
वीडियो/टी.वी/फिल्म जैसी सभी सेवाएं सस्ती दर पर उपलब्ध होंगी. यही नहीं, रिलायंस के पास आई.पी.एल की मुंबई इंडियन टीम है. वह इसीलिए खेल के चैनल और साथ ही, केबल नेटवर्क कंपनियों को भी खरीदने की कोशिश में है.
यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि
दुनियाभर में खासकर अमेरिका समेत कई विकसित देशों में सक्रिय बड़ी बहुराष्ट्रीय
मीडिया कम्पनियाँ वास्तव में बड़े उद्योग समूहों की उपांग है. उदाहरण के लिए,
दुनिया की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक (जी.ई) है जिसके मीडिया कारोबार
के दर्जनों चैनल और अन्य मीडिया उत्पाद है लेकिन यह उसका मुख्य कारोबार नहीं है.
वह अमेरिका की छठी सबसे बड़ी कंपनी है और उसका मुख्य कारोबार उर्जा, टेक्नोलोजी
इन्फ्रास्ट्रक्चर, वित्त, उपभोक्ता सामान आदि क्षेत्रों में है. ऐसे कई और उदाहरण
हैं.
दूसरी ओर, दुनिया की कई ऐसी बड़ी
बहुराष्ट्रीय मीडिया कम्पनियाँ हैं जिन्होंने पिछले दो-ढाई दशकों में दर्जनों छोटी
और मंझोली मीडिया कंपनियों को अधिग्रहीत या समावेशन (एक्विजेशन और मर्जर) के जरिये
गड़प कर लिया है. असल में, यह पूंजीवाद का सहज चरित्र है जिसमें बड़ी मछली, छोटी मछली को निगल जाती है. इसी तरह बड़ी पूंजी धीरे-धीरे छोटी और मंझोली पूंजी को निगलती और बड़ी होती जाती है. अमेरिका में यह प्रक्रिया 70 के दशक के मध्य में शुरू हुई और 80 और 90 के दशक में आकर पूरी हो गई जहां आज सिर्फ छह बड़ी मीडिया कंपनियों का पूरे अमेरिकी मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर एकछत्र राज है जबकि 1983 तक वहां लगभग 50 बड़ी मीडिया कम्पनियाँ थीं.
संकेत साफ़ है. भारत में भी मीडिया और
मनोरंजन उद्योग में रिलायंस जैसी बड़ी कंपनी के उतरने और स्टार नेटवर्क जैसी विदेशी
बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनी (रूपर्ट मर्डोक के न्यूज इंटर-नेशनल की उपांग) की
सक्रियता के अलावा बेनेट कोलमैन, जी नेटवर्क और सन नेटवर्क जैसे बड़े और प्रभावशाली
खिलाडियों की मौजूदगी के कारण बड़े उथल-पुथल से इनकार नहीं किया जा सकता है.
सच
पूछिए तो मीडिया उद्योग में रिलायंस के नेटवर्क-18 और इनाडु समूह के साथ हुए डील के बाद जिस तरह से
बेनेट कोलमैन (टाइम्स समूह) खेल चैनल निम्बस को खरीदने की कोशिश कर रहा है या
स्टार क्षेत्रीय चैनलों को खरीदने में जुटा हुआ है, उसे देखते हुए हैरानी नहीं
होगी कि आनेवाले महीनों में ऐसे कई और बड़े सौदों की घोषणा हो.
इसका अर्थ यह हुआ कि आनेवाले महीनों और
वर्षों में छोटी, मंझोली और यहाँ तक कि कुछ बड़ी मीडिया कंपनियों के लिए तीखी
प्रतियोगिता में टिके रहना बहुत मुश्किल होता चला जाएगा. खासकर उन मीडिया कंपनियों
को बहुत मुश्किल होनेवाली है जो इक्का-दुक्का न्यूज चैनलों या एक अखबार/पत्रिका या
रेडियो चैनल पर टिकी कम्पनियाँ हैं और किसी बड़े उद्योग या मीडिया समूह का हिस्सा
नहीं हैं. उदाहरण के लिए, एन.डी.टी.वी समूह, इंडिया टुडे समूह, अमर उजाला समूह, नई दुनिया समूह, प्रभात खबर समूह आदि से लेकर दर्जनों छोटी कंपनियों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है.
("कथादेश" के फरवरी'१२ अंक में प्रकाशित लेख की दूसरी किस्त...इंतज़ार कीजिये तीसरी और आखिरी किस्त का...)
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