शुक्रवार, फ़रवरी 08, 2013

अमीरों पर ज्यादा टैक्स से मुंह क्यों चुरा रही है सरकार?

अर्थव्यवस्था के संकट के दौरान उसका सारा बोझ गरीब और आम आदमी ही क्यों उठाये?

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी. रंगराजन ने अगले बजट से ठीक पहले सुपर अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने की वकालत करके जैसे बर्र के छत्ते को छेड़ दिया है. जैसीकि आशंका थी, रंगराजन की इस प्रस्ताव को समूचे कारपोरेट जगत ने एक सुर से खारिज कर दिया है.
यही नहीं, कारपोरेट जगत के दोनों प्रमुख लाबी संगठनों- सी.आई.आई और फिक्की ने वित्त मंत्री से बजट पूर्व चर्चा में ऐसी किसी भी कोशिश से बचने की सलाह दी है. इसके इकलौते अपवाद विप्रो के मुखिया और सुपर अमीरों में से एक अजीम प्रेमजी रहे जिन्होंने इसे राजनीतिक रूप से जरूरी बताया.
दूसरी ओर, आर्थिक सुधारों के समर्थक अर्थशास्त्रियों ने भी रंगराजन के इस सुझाव का यह कहते हुए विरोध किया है कि इससे सुपर अमीर देश छोड़कर कम टैक्स वाले देशों का रुख कर लेंगे. कारपोरेट जगत भी इस राय से सहमत है. हैरानी की बात यह है कि वित्त मंत्री पी. चिदंबरम खुद इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी सुरों में बोलते नजर आ रहे हैं.

एक ओर विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए हांगकांग और सिंगापुर में रोड-शो के दौरान चुनिन्दा निवेशकों से चर्चा में उन्होंने स्थिर टैक्स दरों और निवेशकों के अनुकूल बजट का वायदा किया लेकिन दूसरी ओर अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने के सुझाव पर अपनी स्पष्ट राय देने से बचते हुए चर्चा की जरूरत भी बताई है.

चिदंबरम के बयान से साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार इस मुद्दे पर दुविधा में है. खुद वित्त मंत्री कारपोरेट जगत और सुपर अमीरों को नाराज करने का जोखिम नहीं लेना चाहते हैं. वे जानते हैं कि कारपोरेट जगत यू.पी.ए सरकार से आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में हुई देरी और हिचक से पहले ही नाराज है. उसका विश्वास और समर्थन जीतने के लिए ही सरकार ने पिछले चार महीनों में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले तमाम फैसले किये हैं.
इसके तहत अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और उसे अधिक से अधिक रियायतें देने से लेकर राजकोषीय घाटा कम करने के लिए सब्सिडी में कटौती के जरिये आमलोगों पर बोझ बढ़ाने जैसे फैसले शामिल हैं.
लेकिन मुश्किल यह है कि गरीबों और आमलोगों पर बोझ बढ़ाने और सब्सिडी में कटौती के बावजूद राजकोषीय घाटे में कोई खास कमी नहीं हुई है. दूसरी ओर, चिदंबरम ने विदेशी निवेशकों को वायदा किया हुआ है कि वे न सिर्फ चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ५.३ फीसदी के भीतर रखेंगे बल्कि अगले साल के बजट में इसे और घटाकर जी.डी.पी के ४.८ फीसदी करेंगे.

लेकिन यह लक्ष्य हासिल करना आसान नहीं है क्योंकि चुनावी वर्ष होने के नाते उनपर लोकलुभावन घोषणाओं/कार्यक्रमों को शुरू करने का भी दबाव है. इसके लिए चिदंबरम को टैक्स संग्रह में बढ़ोत्तरी से सरकार की आय बढ़ाने के उपाय करने पड़ेंगे क्योंकि आमलोगों खासकर गरीबों पर बोझ डालने की भी एक सीमा है.           

यही कारण है कि वित्त मंत्री को अपनी सोच के बरक्स अमीरों पर अधिक टैक्स के सुझाव पर विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा है. अन्यथा वह वैचारिक तौर पर नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के समर्थक हैं जो अमीरों और कारपोरेट पर टैक्स में कटौती की वकालत करती है ताकि अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका सीमित की जा सके और अमीर/कारपोरेट बढ़ी आय का पुनर्निवेश करके अर्थव्यवस्था को गति दे सकें.
याद रहे कि चिदंबरम ने ही १९९७-९८ में कार्पोरेट्स और अमीरों का वह ड्रीम बजट पेश किया था जिसमें टैक्स दरों में कटौती की गई थी. वही टैक्स दरें आज भी जारी हैं और सुपर अमीर और कार्पोरेट्स इससे मालामाल भी हुए हैं.  
जाहिर है कि वे इसमें किसी भी बढ़ोत्तरी के लिए तैयार नहीं हैं और न ही उन रियायतों/छूटों को छोड़ने के लिए तैयार हैं जिनके कारण पिछले साल मध्यवर्ग, अमीरों और कारपोरेट जगत को टैक्सों में लगभग ५.१५ लाख करोड़ रूपये की छूट मिली. यह एक तरह से अमीरों और कार्पोरेट्स को सब्सिडी है जोकि साल दर साल बढ़ती ही जा रही है.

तथ्य यह है कि इन छूटों/रियायतों के कारण कंपनियों के लिए प्रभावी टैक्स दर मात्र २३ फीसदी रह जाती है जबकि घोषित टैक्स दर ३० फीसदी है. इसके बावजूद भारतीय कार्पोरेट्स और सुपर अमीर टैक्स दरों में मामूली बढ़ोत्तरी के सुझाव पर नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं और देश छोड़ने तक की धमकी दे रहे हैं.

दूसरी ओर वे यह भी चाहते हैं कि वैश्विक आर्थिक संकट के बीच डगमगा रही भारतीय अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए यू.पी.ए सरकार बढ़ते राजकोषीय घाटे को कम करने के वास्ते सख्त फैसले करे, सब्सिडी में कटौती करे, मनरेगा जैसी योजनाओं को खत्म या सीमित करे और खाद्य सुरक्षा जैसी योजनाएं शुरू करने से बचे.
साफ़ है कि कार्पोरेट्स और सुपर अमीर अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए खुद कोई कुर्बानी देने को तैयार नहीं हैं लेकिन वे गरीबों, निम्न मध्यवर्ग और आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ लादने और उनके हकों में कटौती के सरकार पर दबाव डालने में सबसे आगे हैं.
सवाल यह है कि अर्थव्यवस्था के संकट के दौरान उसका सारा बोझ गरीब और आम आदमी ही क्यों उठाये? यह किसी से छुपा नहीं है कि अर्थव्यवस्था जब बेहतर प्रदर्शन करती है तो उसका सबसे ज्यादा फायदा अमीरों और कार्पोरेट्स को ही होता है.

ऐसे में, अर्थव्यवस्था को संकट से निकालने के लिए क्या सुपर अमीरों और कार्पोरेट्स को ज्यादा टैक्स चुकाकर अपना योगदान नहीं करना चाहिए? यही वह सवाल है जो पिछले कई महीनों से दुनिया भर में गूंज रहा है. यह मांग लगातार जोर पकड़ रही है कि कार्पोरेट्स और सुपर अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाया जाए.

असल में, यूरोप से लेकर अमेरिका तक में मंदी और आर्थिक संकट से निपटने के नामपर जिस तरह से किफायतशारी (आस्ट्रिटी) लागू की गई है, उससे आमलोगों में भारी गुस्सा है क्योंकि जहाँ एक ओर, सामाजिक कल्याण की योजनाओं और सेवाओं में कटौती की गई है और आमलोगों पर बोझ लादा गया है, वहीँ दूसरी ओर, कार्पोरेट्स और सुपर अमीरों को सार्वजनिक धन से अरबों-खरबों डालर बेल-आउट पैकेज दिए गए हैं जिससे उनके बड़े अधिकारी और प्रोमोटर्स लाखों डालर के पे-पैकेज और बोनस लेकर मजे उड़ा रहे हैं.
इसके खिलाफ लोग सड़कों पर उतर रहे हैं और यूरोप से लेकर अमेरिका तक में राजनीतिक तौर पर इन सुधारों को लोगों के गले उतरना मुश्किल होता जा रहा है.     
मजे की बात यह है कि इस सच्चाई और बढ़ते राजनीतिक संकट को यूरोप के सुपर अमीर समझ रहे हैं. यही कारण है कि अमेरिकी सुपर अमीर वारेन बफे से लेकर फ़्रांस के १६ सबसे अमीरों और जर्मनी के ५० सुपर अमीरों ने सार्वजनिक रूप से अपनी सरकारों से अमीरों पर टैक्स बढ़ाने की मांग की है.

पिछले सप्ताह ही अमेरिकी कांग्रेस ने सुपर अमीरों पर टैक्स बढ़ाने पर सहमति की मुहर लगाई है. इसके अलावा फ़्रांस समेत और कई देशों की सरकारों ने अमीरों पर टैक्स में बढ़ोत्तरी का फैसला किया है या उसपर गंभीरता से विचार कर रहे हैं. लेकिन हैरानी की बात यह है कि भारत के सुपर अमीर और कार्पोरेट्स अभी भी इस जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहे हैं. 

लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत में भी बढ़ते राजकोषीय घाटे और सामाजिक क्षेत्र की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी राजस्व को बढ़ाना बहुत जरूरी हो गया है. यह इसलिए भी जरूरी है कि भारत में आय कर और कारपोरेट टैक्स की अधिकतम दरें अधिकांश विकसित देशों और विकासशील देशों की तुलना में काफी कम हैं.
यही नहीं, भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात खासकर प्रत्यक्ष करों और जी.डी.पी का अनुपात दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में बहुत कम है. मजे की बात यह है कि राजकोषीय घाटे में कमी लाने के उपाय सुझाने के लिए वित्त मंत्री पी. चिदंबरम द्वारा गठित केलकर समिति ने भी सब्सिडी में कटौती के साथ-साथ टैक्स/जी.डी.पी के अनुपात को बढ़ाने की सिफारिश की थी.    
लेकिन हैरानी की बात यह है कि केलकर समिति की इस सिफारिश पर चर्चा भी नहीं हो रही है जबकि सब्सिडी में कटौती की उसकी सिफारिशों को दो कदम आगे बढ़कर जोरशोर से लागू किया जा रहा है. यहाँ तक कि खुद को आम आदमी की सरकार बतानेवाली यू.पी.ए सरकार की भी हिम्मत नहीं पड़ रही है कि वह सुपर अमीरों और कार्पोरेट्स को ज्यादा टैक्स की मांग के पक्ष में खुलकर खड़ी हो.

इसके उलट वह अमीरों और कार्पोरेट्स को खुश करने में जुटी है. लेकिन इसके कारण आम आदमी की नाराजगी बढ़ रही है. अच्छी बात यह है कि देर से ही सही, सुपर अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने की बहस भारत खासकर भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति निर्माताओं के बीच भी पहुँच गई है.

वे इससे अधिक दिनों तक मुंह नहीं चुरा सकते हैं क्योंकि गरीबों पर बोझ और अमीरों की मौज की अर्थनीति पर सवाल उठने लगे हैं. यह अर्थनीति गरीबों और आम आदमी के धैर्य की परीक्षा ले रही है और इसके पहले कि उनका धैर्य जवाब दे, सुपर अमीरों और सरकार में बैठे उनके शुभचिंतकों को सतर्क हो जाना चाहिए.
 
('शुक्रवार' के फ़रवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित आलेख)       

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