आखिर सूरिंजे का 'अपराध' क्या है?
कन्नड़ न्यूज चैनल- कस्तूरी के रिपोर्टर नवीन सूरिंजे पिछले तीन महीने से जेल में हैं. उनका ‘अपराध’ यह है कि उन्होंने कर्नाटक में भाजपा राज में ‘नैतिक पुलिस’ की स्वयंभू भूमिका निभानेवाले लम्पट हिंदू कट्टरपंथी संगठनों की गुंडागर्दी का पर्दाफाश किया है.
रिपोर्टों के मुताबिक, सूरिंजे ने मंगलूर में एक निजी हालीडे-होम में जन्मदिन की पार्टी मना रहे युवा लड़के-लड़कियों के एक समूह पर हमला करने और उन्हें बेइज्जत करनेवाले हिंदू जागरण वेदिके के ५० से ज्यादा कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी को कैमरे में कैद किया और उसे चैनल पर दिखाया जिसके कारण मजबूरी में पुलिस को नैतिकता के उन ४३ ठेकेदारों को गिरफ्तार करना पड़ा.
अगर सूरिंजे ने उस घटना की कैमरे पर रिकार्डिंग नहीं की होती और उसे चैनल पर दिखाया नहीं होता तो पहले के तमाम मामलों की तरह इस बार भी ये गुंडे बच निकलते. उसकी रिपोर्टिंग के कारण ही यह मामला राष्ट्रीय मीडिया में आया और उसके दबाव में मंगलूर पुलिस को उन गुंडों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी.
क्या पत्रकार पुलिस का एजेंट है या उसका काम सच्चाई को सामने लाना है? अगर पत्रकारों ने ऐसी सूचनाएं पहले पुलिस को देनी शुरू कर दीं तो कितने लोग उसे सूचनाएं देंगे? क्या यह सच नहीं है कि कई बार पुलिस से निराश लोग पत्रकारों को सूचनाएं देते हैं?
कन्नड़ न्यूज चैनल- कस्तूरी के रिपोर्टर नवीन सूरिंजे पिछले तीन महीने से जेल में हैं. उनका ‘अपराध’ यह है कि उन्होंने कर्नाटक में भाजपा राज में ‘नैतिक पुलिस’ की स्वयंभू भूमिका निभानेवाले लम्पट हिंदू कट्टरपंथी संगठनों की गुंडागर्दी का पर्दाफाश किया है.
रिपोर्टों के मुताबिक, सूरिंजे ने मंगलूर में एक निजी हालीडे-होम में जन्मदिन की पार्टी मना रहे युवा लड़के-लड़कियों के एक समूह पर हमला करने और उन्हें बेइज्जत करनेवाले हिंदू जागरण वेदिके के ५० से ज्यादा कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी को कैमरे में कैद किया और उसे चैनल पर दिखाया जिसके कारण मजबूरी में पुलिस को नैतिकता के उन ४३ ठेकेदारों को गिरफ्तार करना पड़ा.
लेकिन सूरिंजे को इस ‘गलती’ की सजा यह मिली कि पुलिस ने उन्हें इस
मामले में ४४वां अभियुक्त बना दिया. उनपर आरोप लगाया गया कि वे भी इस साजिश में
शामिल थे क्योंकि पूर्व जानकारी के बावजूद सूरिंजे ने पुलिस को इसकी जानकारी नहीं
दी.
यही नहीं, मंगलूर पुलिस ने सूरिंजे पर वे सभी आरोप लगा दिए जो इस शर्मनाक घटना
के लिए जिम्मेदार संगठन और उसके ४३ लम्पटों पर लगाए गए हैं. हालाँकि इनमें से कई
आरोपों को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हटा दिया है लेकिन उसने सूरिंजे को यह कहते
हुए जमानत देने से इनकार कर दिया है कि उन्होंने पूर्व जानकारी के बावजूद पुलिस को
इसकी सूचना क्यों नहीं दी?
सूरिंजे का अपने बचाव में कहना है कि उन्हें इस घटना की सूचना पहले से
नहीं थी; उन्हें उस इलाके के एक नागरिक से इसकी जानकारी मिली; उन्होंने मंगलूर के
पुलिस कमिश्नर और स्थानीय सब-इन्स्पेक्टर को फोन किया था लेकिन उन दोनों ने फोन
नहीं उठाया और न काल-बैक किया; इस घटना के दौरान हिंदू जागरण वेदिके के लम्पटों की
तादाद इतनी अधिक थी कि वे उन्हें रोकने में सक्षम नहीं थे और उस स्थिति में इस
गुंडागर्दी का पर्दाफाश करने के लिए उसकी रिकार्डिंग के अलावा उनके पास कोई विकल्प
नहीं था.
सूरिंजे की इस सफाई को न तो पुलिस ने और न ही कर्नाटक उच्च न्यायालय
स्वीकार किया. ध्यान रहे कि यह मामला पिछले गुवाहाटी की उस शर्मनाक घटना के बाद
सामने आया है जिसमें रात में एक पब से बाहर निकल रही एक युवा लड़की के कपड़े फाड़ने
और उसके साथ दुर्व्यवहार करनेवाले लफंगों-गुंडों को प्रोत्साहित करने और उसकी
साजिश रचनेवालों में एक स्थानीय चैनल का रिपोर्टर भी शामिल पाया गया था.
निश्चय
ही, यह टी.वी पत्रकारिता के लिए न सिर्फ गहरे शर्म और कलंक का मामला था बल्कि इसने
टी.आर.पी के लिए चैनलों में सनसनीखेज ‘खबरें’ गढ़ने की आपराधिक साजिश रचने तक पहुँच
जाने की खतरनाक प्रवृत्ति को उजागर किया था.
लेकिन सवाल यह है कि क्या गुवाहाटी और मंगलूर के मामले एक ही तरह के
हैं? मंगलूर से आ रही रिपोर्टों के मुताबिक, सूरिंजे को वास्तव में हिंदू
कट्टरपंथी संगठनों की युवा लड़के-लड़कियों को ‘नैतिकता’ सिखाने के नामपर की जानेवाली
गुंडागर्दी के पर्दाफाश की सजा दी गई है. अगर सूरिंजे ने उस घटना की कैमरे पर रिकार्डिंग नहीं की होती और उसे चैनल पर दिखाया नहीं होता तो पहले के तमाम मामलों की तरह इस बार भी ये गुंडे बच निकलते. उसकी रिपोर्टिंग के कारण ही यह मामला राष्ट्रीय मीडिया में आया और उसके दबाव में मंगलूर पुलिस को उन गुंडों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी.
पी.यू.सी.एल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अकेले दक्षिण कन्नड़ा जिले में
२००७ से अब तक ‘नैतिक पुलिसिंग’ के नामपर मारपीट, दुर्व्यवहार और अपमानित करने के
१४० मामले सामने आए हैं लेकिन पिछले साल जुलाई की इस घटना को छोड़कर बाकी किसी
मामले में दोषी पकड़े नहीं गए.
सवाल यह है कि ऐसे मामलों को सामने लाने और दोषियों
की पहचान करने में मदद करनेवाले नवीन सूरिंजे जैसे पत्रकारों को ही फंसाने की
कोशिश की जाएगी तो कितने पत्रकार यह जोखिम उठाएंगे?
सवाल यह भी है कि क्या पत्रकारों को ऐसे सभी मामलों की पूर्व सूचना
पुलिस को देनी चाहिए? लेकिन अगर पुलिस खुद राजनीतिक कारणों से कार्रवाई करने में
अक्षम हो और उसकी अपराधियों से परोक्ष सहमति हो तो पत्रकार को क्या करना चाहिए?
क्या पत्रकार पुलिस का एजेंट है या उसका काम सच्चाई को सामने लाना है? अगर पत्रकारों ने ऐसी सूचनाएं पहले पुलिस को देनी शुरू कर दीं तो कितने लोग उसे सूचनाएं देंगे? क्या यह सच नहीं है कि कई बार पुलिस से निराश लोग पत्रकारों को सूचनाएं देते हैं?
साफ़ है कि यह सिर्फ नवीन सूरिंजे का मामला नहीं है बल्कि इससे पत्रकार
और पत्रकारिता के कई बुनियादी सवाल जुड़े हैं. लेकिन अफसोस यह कि इस मुद्दे पर
राष्ट्रीय मीडिया खासकर न्यूज चैनल न जाने क्यों खामोश हैं.
('तहलका' के 15 फ़रवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी: http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/1622.html )
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