चिदंबरम का सारा जोर विदेशी आवारा पूंजी और बड़े
कार्पोरेट्स को खुश करने और आमलोगों पर बोझ डालने पर है
पहली क़िस्त
लेकिन चिदंबरम पर सबसे ज्यादा दबाव स्टैण्डर्ड एंड पुअर, मूडी, फिच जैसी वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का है जिनकी निगाहें इस बजट पर लगी हुई हैं. इन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की मांग है कि वित्त मंत्री अपने वायदे के मुताबिक बजट में राजकोषीय घाटे को कम करने की ठोस और विश्वसनीय योजना पेश करें. ऐसा न होने पर वे भारत की क्रेडिट रेटिंग गिराकर ‘कबाड़’ (जंक) स्थिति में डाल देंगी.
इस कारण यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि बजट में सबसे अधिक जोर राजकोषीय घाटे को कम करने पर होगा. इसका अर्थ यह हुआ कि इस बजट के केन्द्र में चुनाव से ज्यादा राजकोषीय घाटे यानी आमलोगों खासकर गरीबों को पांच साल में एक बार मिलनेवाली राहत से ज्यादा बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हितों का ख्याल रखा जाएगा.
इसके तहत पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस, उर्वरकों की कीमतों से लेकर बिजली और रेल किरायों में बढ़ोत्तरी की गई है जिसका सबसे अधिक बोझ मध्य वर्ग से लेकर गरीबों पर पड़ा है.
राजकोषीय घाटे पर अंकुश के पैरोकारों का यह भी तर्क है कि यह सरकारों की फिजूलखर्ची का नतीजा है जिसके कारण न सिर्फ मुद्रास्फीति बढ़ती है बल्कि अर्थव्यवस्था में कई विसंगतियाँ पैदा हो जाती है. लेकिन इन सभी तर्कों के पीछे मूल तर्क यह है कि अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका सीमित होनी चाहिए क्योंकि सरकार की तुलना में निजी क्षेत्र ज्यादा कुशल, सक्षम और जिम्मेदार है.
लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार इसका इसलिए विरोध करते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि अर्थव्यवस्था में राज्य यानी सरकार की सीमित और निजी पूंजी की प्रमुख भूमिका होनी चाहिए. वे राजकोषीय घाटे पर अंकुश के जरिये अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को सीमित करने की कोशिश करते हैं.
साथ ही, वे मानते हैं कि किसी को भी कोई चीज मुफ्त नहीं मिलनी चाहिए (देयर इज नो फ्री लंच) क्योंकि इससे संसाधनों की बर्बादी होती है. इस आधार पर वे सब्सिडी का विरोध करते हैं.
तथ्य यह है कि भारत में राजकोषीय घाटे में बढ़ोत्तरी की बड़ी वजह सरकार की आय कम होना है. उल्लेखनीय है कि भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात वर्ष २०१०-११ में मात्र १०.१ फीसदी था जोकि वर्ष २००७-०८ के ११.९ फीसदी से भी कम रह गया है. प्रत्यक्ष करों (आयकर और कारपोरेट करों)-जी.डी.पी का अनुपात तो और भी कम ७.६ फीसदी के आसपास है.
ऐसे में, वे राजकोषीय घाटे में कमी का सारा बोझ आमलोगों पर डालने की तैयारी कर रहे हैं. ऐसी रिपोर्टें हैं कि चिदंबरम सरकारी खर्चों खासकर योजना बजट में १० फीसदी की कटौती करके उसे मौजूदा वर्ष के स्तर पर रखने में जुटे हुए हैं.
इसी तरह सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार खत्म करने और उन्हें प्रभावी बनाने के नामपर विभिन्न योजनाओं के पुनर्गठन और विलय के जरिये उनकी संख्या कम करने की भी तैयारी है.
पहली क़िस्त
यू.पी.ए-२ सरकार का आखिरी और इस सरकार में अपना पहला बजट पेश करने जा
रहे वित्त मंत्री पी. चिदंबरम पर उम्मीदों और अपेक्षाओं का भारी बोझ है. वैसे तो
हर वित्त मंत्री पर उम्मीदों और अपेक्षाओं का बोझ होता है और पी. चिदंबरम को इसका
खासा अनुभव भी है.
लेकिन पहले संयुक्त मोर्चा सरकार और बाद में यू.पी.ए-१ सरकार में
कोई आधा दर्जन बार बजट पेश कर चुके चिदंबरम के लिए इस बार इन उम्मीदों और
अपेक्षाओं का बोझ कुछ ज्यादा ही भारी साबित हो रहा है.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि
अर्थव्यवस्था की बदतर होती स्थिति के बीच यू.पी.ए खासकर कांग्रेस उनसे एक संकटमोचक
बजट की उम्मीद कर रही है ताकि २०१४ के आम चुनावों में उसकी नैय्या पार लग सके.
दूसरी ओर, खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के लिए उनकी नव उदारवादी
आर्थिक सुधारों के चैम्पियन की छवि और प्रतिष्ठा दाँव पर लगी है. देशी-विदेशी बड़ी
पूंजी और कारपोरेट क्षेत्र को उनसे काफी उम्मीदें हैं और खुद वित्त मंत्री भी
लगातार उन्हें भरोसा दिला रहे हैं कि बजट में उनकी अपेक्षाओं का पूरा ख्याल रखा
जाएगा. लेकिन चिदंबरम पर सबसे ज्यादा दबाव स्टैण्डर्ड एंड पुअर, मूडी, फिच जैसी वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का है जिनकी निगाहें इस बजट पर लगी हुई हैं. इन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की मांग है कि वित्त मंत्री अपने वायदे के मुताबिक बजट में राजकोषीय घाटे को कम करने की ठोस और विश्वसनीय योजना पेश करें. ऐसा न होने पर वे भारत की क्रेडिट रेटिंग गिराकर ‘कबाड़’ (जंक) स्थिति में डाल देंगी.
खुद वित्त मंत्रालय से आ रहे संकेतों से साफ़ है कि पी. चिदंबरम का
सबसे अधिक जोर क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और उनके जरिये विदेशी खासकर आवारा पूंजी
को खुश करने और उनका भरोसा जीतने पर है. इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं.
आश्चर्य
नहीं कि वित्त मंत्री ने बजट की तैयारियों की व्यस्तता के बावजूद पिछले महीने
वैश्विक आवारा पूंजी के सबसे बड़े केन्द्रों- हांगकांग, सिंगापुर, लन्दन, फ्रैंकफर्ट
में रोड शो के जरिये बड़े विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) और कार्पोरेट्स को
आश्वस्त करने की कोशिश की है कि वे चुनावी साल के दबावों के बावजूद एक ‘जिम्मेदार
बजट’ पेश करेंगे.
लेकिन असली सवाल यह है कि यह बजट किसके प्रति ‘जिम्मेदार’ होगा? वित्त
मंत्री के बतौर पद संभालने के बाद से पी. चिदंबरम के बयानों और फैसलों से साफ़ है
कि वित्त मंत्री ने अपनी प्राथमिकता तय कर ली है. इसके मुताबिक यह बजट वैश्विक
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और बड़े विदेशी निवेशकों/कार्पोरेट्स/शेयर बाजार के प्रति
जिम्मेदार होगा. इस कारण यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि बजट में सबसे अधिक जोर राजकोषीय घाटे को कम करने पर होगा. इसका अर्थ यह हुआ कि इस बजट के केन्द्र में चुनाव से ज्यादा राजकोषीय घाटे यानी आमलोगों खासकर गरीबों को पांच साल में एक बार मिलनेवाली राहत से ज्यादा बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हितों का ख्याल रखा जाएगा.
राजकोषीय घाटा: हौव्वा या वास्तविक खतरा?
खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने यह सार्वजनिक तौर पर घोषित कर रखा है
कि आनेवाले बजट में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ४.८ फीसदी के अंदर रखा जाएगा.
यही नहीं, वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे को कम करने की अपनी इसी प्रतिबद्धता को
साबित करने के लिए चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के
५.३ फीसदी की सीमा में रखने के लिए पिछले छह महीने में पेट्रोलियम और उर्वरक
सब्सिडी में कटौती से लेकर मंत्रालयों के बजट में १० फीसदी से अधिक की कटौती की
है. इसके तहत पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस, उर्वरकों की कीमतों से लेकर बिजली और रेल किरायों में बढ़ोत्तरी की गई है जिसका सबसे अधिक बोझ मध्य वर्ग से लेकर गरीबों पर पड़ा है.
सवाल यह है कि वित्त मंत्री राजकोषीय घाटे को लेकर इतना परेशान,
चिंतित और बेचैन क्यों हैं और वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां और आवारा पूंजी
राजकोषीय घाटे को कम करने और आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने का दबाव क्यों
बनाए हुए हैं?
असल में, नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में राजकोषीय घाटा कुफ्र
या ईशनिंदा की तरह है. इसके पैरोकारों का मानना है कि राजकोषीय घाटा यानी सरकार की
आय और खर्चों के बीच अंतर को पूरा करने के लिए सरकार बाजार से कर्ज लेती है जिसके
कारण न सिर्फ ब्याज दरों पर दबाव बढ़ता है बल्कि निजी क्षेत्र को नए निवेश के लिए
कर्ज लेना मुश्किल होने लगता है.
उनका दावा है कि इससे अर्थव्यवस्था में नया कारपोरेट निवेश कम होता है
जिससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर गिरने लगती है. इसके अलावा, राजकोषीय घाटे को
पूरा करने के लिए गए कर्ज की ब्याज अदायगी में भी काफी रकम जाया होती है और
धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था एक कर्ज जाल में फंसने लगती है जहाँ कर्ज चुकाने के लिए
कर्ज लेने की नौबत आ जाती है. राजकोषीय घाटे पर अंकुश के पैरोकारों का यह भी तर्क है कि यह सरकारों की फिजूलखर्ची का नतीजा है जिसके कारण न सिर्फ मुद्रास्फीति बढ़ती है बल्कि अर्थव्यवस्था में कई विसंगतियाँ पैदा हो जाती है. लेकिन इन सभी तर्कों के पीछे मूल तर्क यह है कि अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका सीमित होनी चाहिए क्योंकि सरकार की तुलना में निजी क्षेत्र ज्यादा कुशल, सक्षम और जिम्मेदार है.
इसमें कोई शक नहीं है कि एक सीमा से ज्यादा राजकोषीय घाटे से
अर्थव्यवस्था में कई समस्याएं पैदा होती हैं. लेकिन यह भी तथ्य है कि दुनिया की
तमाम विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में सीमा से ज्यादा राजकोषीय घाटा आम परिघटना है
क्योंकि समग्र विकास के लिए निजी के साथ सार्वजनिक निवेश भी बहुत महत्वपूर्ण है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन अर्थव्यवस्थाओं में सरकार को न सिर्फ आमलोगों की
बुनियादी जरूरतें और शिक्षा-स्वास्थ्य मुहैया कराने के लिए निवेश करना पड़ता है
बल्कि निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सड़क-बिजली-रेल-बंदरगाह जैसे ढांचागत
इन्फ्रास्ट्रक्चर में भी निवेश जरूरी है.
साफ़ है कि राजकोषीय घाटा अर्थव्यवस्था के लिए हमेशा नुकसानदेह नहीं
है, खासकर अगर वह उत्पादक और सामाजिक रूप से जरूरी क्षेत्रों में निवेश के रूप में
हो. यही नहीं, राजकोषीय घाटा खासकर विकासशील देशों में आर्थिक वृद्धि के लिए भी जरूरी
है क्योंकि सार्वजनिक निवेश से निजी निवेश को भी गति मिलती है. लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार इसका इसलिए विरोध करते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि अर्थव्यवस्था में राज्य यानी सरकार की सीमित और निजी पूंजी की प्रमुख भूमिका होनी चाहिए. वे राजकोषीय घाटे पर अंकुश के जरिये अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को सीमित करने की कोशिश करते हैं.
साथ ही, वे मानते हैं कि किसी को भी कोई चीज मुफ्त नहीं मिलनी चाहिए (देयर इज नो फ्री लंच) क्योंकि इससे संसाधनों की बर्बादी होती है. इस आधार पर वे सब्सिडी का विरोध करते हैं.
राजकोषीय घाटे पर अंकुश के और भी हैं विकल्प
लेकिन राजकोषीय घाटे के खिलाफ अभियान चलानेवाले उसके मूल कारण की
चर्चा नहीं करते हैं. असल में, राजकोषीय घाटा सिर्फ खर्चों में बढ़ोत्तरी के कारण
ही नहीं बल्कि आय में अपेक्षित वृद्धि न होने के कारण भी बढ़ता है. तथ्य यह है कि भारत में राजकोषीय घाटे में बढ़ोत्तरी की बड़ी वजह सरकार की आय कम होना है. उल्लेखनीय है कि भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात वर्ष २०१०-११ में मात्र १०.१ फीसदी था जोकि वर्ष २००७-०८ के ११.९ फीसदी से भी कम रह गया है. प्रत्यक्ष करों (आयकर और कारपोरेट करों)-जी.डी.पी का अनुपात तो और भी कम ७.६ फीसदी के आसपास है.
इसके उलट दुनिया के अधिकांश विकसित और प्रमुख विकासशील देशों में
टैक्स-जी.डी.पी अनुपात २० से २५ फीसदी के बीच है. भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात
कम होने की कई वजहों में से एक वजह अमीरों और कार्पोरेट्स को करों में मिलनेवाली
भारी छूट और रियायतें भी जिम्मेदार हैं.
चौंकानेवाली बात यह है कि भारत में अमीरों
और कार्पोरेट्स को हर साल ५.१५ लाख करोड़ रूपये से ज्यादा की टैक्स रियायतें दी जाती
हैं. अगर इन रियायतों को खत्म कर दिया जाए तो राजकोषीय घाटा पूरी तरह से खत्म हो
जाएगा. इसी तरह अगर टैक्स-जी.डी.पी अनुपात को १० फीसदी से बढ़ाकर १५-१६ फीसदी तक ले
आया जाए तो राजकोषीय घाटा पूरी तरह से समाप्त हो सकता है.
लेकिन वित्त मंत्री और आर्थिक सुधारों के पैरोकार इस विकल्प के लिए
तैयार नहीं हैं क्योंकि वे अमीरों और कार्पोरेट्स को नाराज नहीं करना चाहते हैं.
हालाँकि ऐसी चर्चाएं है कि बजट में सुपर अमीरों पर १० प्रतिशत का मामूली सरचार्ज
और विरासत और सम्पदा टैक्स (वेल्थ और इन्हेरिटेंस टैक्स) लगाया जा सकता है लेकिन चिदंबरम
के ‘ड्रीम बजट’ के अतीत को देखते हुए इसके आसार कम ही हैं. ऐसे में, वे राजकोषीय घाटे में कमी का सारा बोझ आमलोगों पर डालने की तैयारी कर रहे हैं. ऐसी रिपोर्टें हैं कि चिदंबरम सरकारी खर्चों खासकर योजना बजट में १० फीसदी की कटौती करके उसे मौजूदा वर्ष के स्तर पर रखने में जुटे हुए हैं.
इसी तरह सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार खत्म करने और उन्हें प्रभावी बनाने के नामपर विभिन्न योजनाओं के पुनर्गठन और विलय के जरिये उनकी संख्या कम करने की भी तैयारी है.
इस कारण माना जा रहा है कि पिछले एक दशक में यह सबसे अधिक किफायती बजट
होगा. साफ़ है कि राजकोषीय घाटे का हौव्वा दिखाकर कार्पोरेट्स को सौगात और आमलोगों
पर बोझ डालने की जानी-पहचानी नीति इस बजट में भी जारी रह सकती है.
इससे चिदंबरम को
उम्मीद है कि वे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी, कार्पोरेट्स और उनकी पैरोकार वैश्विक
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का भरोसा जीतने में कामयाब होंगे. इससे अर्थव्यवस्था में
देशी-विदेशी निजी कारपोरेट निवेश बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर आ सकेगी. लेकिन
क्या सचमुच में ऐसा होगा?
कल भी जारी ....
(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के मार्च के अंक में प्रकाशित कवर स्टोरी की पहली क़िस्त)
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