मंगलवार, अक्तूबर 30, 2012

आर्थिक उदारीकरण के दो दशक और इस दौर की राजनीति

कारपोरेट पूंजी की चाकर बन गई है राजनीति

पहली क़िस्त

भ्रष्टाचार और घोटालों के बीच फंसी कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार ने इसकी काट और खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी का समर्थन हासिल करने के लिए एक झटके में आर्थिक सुधारों को आगे बढानेवाले कई बड़े लेकिन अत्यंत विवादास्पद फैसलों की घोषणा कर दी है.
इनमें एक ओर खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर बीमा और पेंशन क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) को बढ़ाने जैसे फैसले हैं तो दूसरी ओर, राजकोषीय घाटा कम करने के नामपर डीजल और रसोई गैस, उर्वरकों आदि की कीमतों में भारी वृद्धि का फैसला शामिल है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन फैसलों का कारपोरेट मीडिया में खूब स्वागत हुआ है. शेयर बाजार में बहुत दिनों बाद रौनक लौट आई है और बाजार बम-बम है. बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के सी.ई.ओ से लेकर फिक्की-एसोचैम-सी.आई.आई और मुद्रा कोष जैसे बड़े देशी-विदेशी औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन और वैश्विक संस्थाएं इन फैसलों का खुलकर स्वागत कर रही हैं.

कल तक जो लाबी संगठन और कारपोरेट मीडिया मनमोहन सिंह सरकार को आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा पाने में नाकाम रहने के लिए आड़े हाथों ले रहे थे और सरकार को ‘नीतिगत लकवे’ का शिकार बता रहे थे, उनका सुर रातों-रात बदल गया है. वे सरकार के साहस और दूरदृष्टि की प्रशंसा करते हुए अफसोस जाहिर कर रहे हैं कि ये फैसले काफी पहले ही हो जाने चाहिए थे.

हालाँकि इन फैसलों को ‘जनविरोधी और देश-हित’ के खिलाफ बताते हुए यू.पी.ए गठबंधन में शामिल तृणमूल कांग्रेस और डी.एम.के और उसे बाहर से समर्थन दे रहे समाजवादी पार्टी और बसपा से लेकर मुख्य विपक्षी दल भाजपा और वामपंथी मोर्चे तक ने विरोध किया है. तृणमूल कांग्रेस ने तो सरकार से समर्थन तक वापस ले लिया है.
लेकिन इनमें एक हद तक वामपंथियों के सैद्धांतिक विरोध को छोड़कर भाजपा समेत बाकी सभी पार्टियों का विरोध अवसरवादी और दिखावटी ज्यादा है. उदाहरण के लिए, भाजपा नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की कट्टर समर्थक रही है और उसके नेतृत्ववाली एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में ही पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को विनियंत्रित करके बाजार के हवाले करने से लेकर बीमा क्षेत्र में विदेशी पूंजी को इजाजत दी गई थी.
यहाँ तक कि २००४ के आम चुनावों से पहले एन.डी.ए सरकार खुदरा व्यापार को भी विदेशी पूंजी के लिए खोलने की तैयारी कर चुकी थी. आश्चर्य नहीं कि वह अब भी बीमा क्षेत्र में पूंजी निवेश बढ़ाने का आज भी समर्थन कर रही है.
जहाँ तक गैर भाजपा-गैर कांग्रेस दलों की बात है तो उनमें वामपंथी मोर्चे की पिछली राज्य सरकारों के राजनीतिक-वैचारिक स्खलनों को छोड़ दिया जाए तो वामपंथी मोर्चा नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की सैद्धांतिक और राजनीतिक विरोधी रहा है लेकिन उसके अलावा बाकी सभी अन्य दलों की आर्थिक नीति अस्पष्ट, अवसरवादी और आमतौर पर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाली रही है.

ये पार्टियां जब भी राज्यों में या केन्द्र में सरकार में आईं हैं, उन्होंने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है. यहाँ तक कि वाम मोर्चे की राज्य सरकारों ने भी वैचारिक विरोध के बावजूद वही सब किया जो दूसरी राज्य सरकारें कर रही थीं. पश्चिम बंगाल की पिछली वाम मोर्चे की सरकार ने तो सिंगुर और नंदीग्राम में किसानों की जमीन छीनने के लिए पुलिसिया दमन के भी रिकार्ड तोड़ दिए.

सच पूछिए तो पिछले डेढ़-दो दशकों में आर्थिक नीति के मामले में शासक वर्ग की राजनीतिक पार्टियों के बीच कोई फर्क नहीं बचा है. वे सभी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की समर्थक हैं. खासकर कांग्रेस और भाजपा के बीच तो यह साबित करने की होड़ रहती है कि उन दोनों में आर्थिक उदारीकरण का सबसे पक्का और सक्रिय समर्थक कौन है.
राष्ट्रीय राजनीति में इन दोनों दलों की अगुवाई में ही दो राजनीतिक गठबंधन- एन.डी.ए और यू.पी.ए हैं जो बारी-बारी से पिछले १४ सालों से सत्ता में हैं और अधिकांश क्षेत्रीय दल इन्हीं दोनों गठबंधनों में आना-जाना करते रहे हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि इन डेढ़ दशकों में और उससे पहले संयुक्त मोर्चे की सरकार के दौरान भी सभी सरकारों ने आँख मूंदकर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू किया.
उल्लेखनीय है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह अर्थनीति को राजनीति से अलग रखने की वकालत करती है. वह साफ़ तौर पर वकालत करती है कि राजनीति को अर्थनीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और अर्थनीति को स्वतंत्रता से काम करने देना चाहिए.

असल में, नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में बाजार की सर्वोच्चता को स्वीकार किया गया है और माना जाता है कि राज्य को बाजार में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए यानी राजनीति को अर्थनीति से दूर रहना चाहिए. इसे सुनिश्चित करने के लिए अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका लगातार सीमित करने की कोशिश की गई है और बाजार को अधिक से अधिक छूट दी गई है.

भारत में भी आर्थिक उदारीकरण और सुधारों की प्रक्रिया के मूल में यही सैद्धांतिकी है. यही कारण है कि सरकार चाहे जिस भी पार्टी या गठबंधन, झंडे और रंग की हो लेकिन उसकी अर्थनीति में कोई बदलाव नहीं आता. अलबत्ता उसकी भाषा में कुछ दिखावटी बदलाव जरूर दिखाई देते हैं लेकिन बुनियादी तौर पर उसमें कोई अंतर नहीं है.
यही नहीं, इस दौर में नव उदारवादी अर्थनीति के मुताबिक आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले फैसलों और नीति-निर्णयों में बाजार और बड़ी पूंजी का पूरी तरह से नियंत्रण हो गया है. चाहे वह प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद हो या योजना आयोग या विभिन्न मुद्दों पर गठित समितियां- आप हर महत्वपूर्ण नीति निर्माण और निर्णय की जगह पर नव उदारवादी अर्थशास्त्रियों, बड़े कारपोरेट समूहों के प्रमुखों/मालिकों को बैठे देख सकते हैं.
इसके अलावा विश्व बैंक-मुद्रा कोष और डब्ल्यू.टी.ओ के रूप में वैश्विक आवारा पूंजी की प्रतिनिधि संस्थाएं हैं जो हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर सरकारों को सलाह/निर्देश देती रहती हैं. अर्थनीति निर्माण और नीति-निर्णयों में उनकी जबरदस्त घुसपैठ है.

आश्चर्य की बात नहीं है कि पिछले दो दशकों में देश के प्रधानमंत्रियों, वित्त मंत्रियों, वित्त मंत्रियों के आर्थिक सलाहकारों और योजना आयोग के उपाध्यक्षों में से कई विश्व बैंक या मुद्रा कोष के पूर्व मुलाजिम रहे हैं. इन सबने मिलकर अर्थनीति को राजनीति से अलग और स्वतंत्र करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
यही नहीं, नव उदारवादी अर्थनीति के दबदबे के कारण अर्थनीति में आए दक्षिणपंथी झुकाव का असर राजनीति पर भी दिखने लगा है और भारतीय राजनीति में भी इस दक्षिणपंथी झुकाव को साफ़ देखा जा सकता है.

मार्क्स ने कभी कहा था कि ‘राजनीति, अर्थतंत्र का संकेंद्रित रूप है.’ इस अर्थ में उदारीकरण और भूमंडलीकरण के पिछले दो दशकों में अर्थव्यवस्था के साथ-साथ भारतीय राजनीति का भी ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ काफी हद तक बदल गया है. यह बदलाव सिर्फ नेताओं, पार्टियों और मुद्दों के स्तर पर ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति के चरित्र और अंतर्वस्तु के मामले भी साफ देखा जा सकता है.
भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर जैसे-जैसे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का नियंत्रण बढ़ता गया है, तेज रफ़्तार से बढ़ती अर्थव्यवस्था से निकलनेवाली समृद्धि मुट्ठी भर लोगों के हाथ में सिमटती गई है और पहले से हाशिए पर पड़े वर्गों जैसे गरीबों, किसानों, आदिवासियों और दलितों को और हाशिए पर धकेल दिया गया है, वैसे-वैसे राजनीति पर भी अमीरों का दबदबा बढ़ता गया है और उसके साथ राजनीति की मुख्यधारा से गरीब और कमजोर वर्ग और उनके मुद्दे बाहर होते गए हैं.
(लखनऊ से सुभाष राय और हरे प्रकाश उपाध्याय के संपादन में प्रकाशित 'समकालीन सरोकार' के नवम्बर अंक में प्रकाशित हो रहे लम्बे लेख की पहली क़िस्त...कल दूसरी क़िस्त और विस्तार से आप उस पत्रिका में पढ़ें) 

1 टिप्पणी:

S.N SHUKLA ने कहा…


saarthak post,badhai.

कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें , आभारी होऊंगा.