सोमवार, अक्तूबर 29, 2012

कारपोरेट नियंत्रित धनतंत्र में बदलता जा रहा है भारतीय जनतंत्र

राजनीति और कारोबार के बीच की विभाजन रेखा बेमानी होती जा रही है
दूसरी क़िस्त

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या भ्रष्टाचार और घोटालों के खिलाफ उठा यह तूफ़ान एक बार फिर यूँ ही गुजर जाएगा और जल्दी ही कारबार पहले की तरह चलने लगेगा? निश्चय ही, भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में जिस तरह का माहौल बना है और लोग सड़कों पर उतरकर विरोध कर रहे हैं, उससे एक उम्मीद बनी है.
लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है. भ्रष्टाचार खासकर शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं/मंत्रियों के घोटालों के खिलाफ पहले १९७७ और बाद में १९८९ में भी इसी तरह का माहौल बना था और उसके कारण दोनों ही बार सत्तारूढ़ कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी थी. लेकिन अफसोस की बात है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उन दोनों ‘क्रांतियों’ से बनी संभावनाओं और उम्मीदों का गर्भपात होने में ज्यादा देर नहीं लगी. यही नहीं, उन दोनों ‘क्रांतियों’ के कई नायक बाद में भ्रष्टाचार में लिथड़े पाए गए.
इसलिए इस आशंका को नकारा नहीं जा सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अघोषित और षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी के टूटने, शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार के अनेकों मामलों के भंडाफोड, घोटालों के हम्माम में सत्ता पक्ष और विपक्ष के नंगे पकड़े जाने और भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी गुस्से और विरोध के बावजूद इस ‘क्रांति’ का हश्र भी पहले से अलग नहीं होने जा रहा है.

हालाँकि इस बार यह त्रासदी कम और प्रहसन ज्यादा होगी. इसकी जिम्मेदारी काफी हद तक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और खासकर इंडिया अगेंस्ट करप्शन जैसे संगठनों की होगी क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी लड़ाई में न सिर्फ वैचारिक-राजनीतिक स्पष्टता और समझदारी की कमी साफ़ दिखाई पड़ रही है बल्कि उसके अंतर्विरोध, सीमाएं और भटकाव भी सामने आने लगे हैं.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रष्टाचार विरोधी इस मुहिम के निशाने पर कुछ व्यक्ति (खासकर नेता/मंत्री) हैं और सारा जोर उन्हें पकड़ने और सजा दिलवाने की व्यवस्था बनवाने (लोकपाल) पर है. गोया सारे भ्रष्ट नेताओं को पकड़ लेने से भ्रष्टाचार की सांस्थानिक और व्यवस्थागत चुनौती खत्म हो जाएगी.
लेकिन वे भूल रहे हैं कि भ्रष्टाचार के ऐसे रावण मरते और जिन्दा होते रहेंगे क्योंकि इस रावण के प्राण उसकी उस नाभि में हैं जिसे अंदर से सड़ चुकी मौजूदा पूंजीवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था और सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट को आगे बढ़ानेवाली नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से प्राणवायु मिल रही है.
लेकिन क्या यह सिर्फ संयोग है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नेताओं की आवाज़ सार्वजनिक संसाधनों खासकर जल-जंगल-जमीन-खनिजों की कारपोरेट लूट पर मद्धिम पड़ जाती है? यही नहीं, नव उदारवादी आर्थिक नीतियों खासकर निजीकरण-उदारीकरण-भूमंडलीकरण के नाम पर बाकायदा कानूनी तरीके से जिस तरह से पूरी अर्थव्यवस्था बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हवाले की जा रही है, उन्हें मनमाना मुनाफा कमाने के लिए हर तरह की छूट और रियायतें दी जा रही हैं और जनहित को किनारे करके बड़ी पूंजी के हितों के अनुकूल नीतियां बनाई जा रही हैं, उस नीतिगत भ्रष्टाचार को अनदेखा कैसे किया जा सकता है?

आखिर इसे नीतिगत भ्रष्टाचार क्यों न माना जाए, जब बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के दबाव में आकर सरकार कंपनियों की टैक्स चोरी पर अंकुश लगाने के लिए लाये गए गार नियमों को टाल देती है?

इसी तरह इस तथ्य को कैसे अनदेखा किया जा सकता है कि किंगफिशर एयरलाइंस और उसके मालिक विजय माल्या के मनमाने-बेतुके फैसलों और अश्लील फिजूलखर्ची के बावजूद सरकार आँखें मूंदें रही, सरकारी बैंक हजारों करोड़ का कर्ज देते रहे और एयरलाइन डूबती रही? क्या यह कारपोरेट-राजनेता-अफसर गठजोड़ की मिलीभगत के बिना संभव है?
यह अकेला उदाहरण नहीं है. भ्रष्टाचार और घोटालों के हालिया सभी बड़े मामलों में नियमों को तोड़ने-मरोड़ने में नेताओं-मंत्रियों-अफसरों के साथ-साथ बड़ी कम्पनियाँ भी शामिल रही हैं. आखिर भ्रष्टाचार के सभी बड़े मामलों में मांग पक्ष (नेताओं/मंत्रियों/अफसरों) के साथ आपूर्ति पक्ष (कंपनियों/ठेकेदारों) की भी उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
सच यह है कि बड़े कार्पोरेट्स और उनकी पूंजी की बढ़ती ताकत के आगे पूरी राजनीतिक व्यवस्था ने घुटने टेक दिए हैं. सरकारें चाहे जिस रंग और झंडे की हों, वे उनके निर्देश पर चल रही हैं. यहाँ तक कि कार्पोरेट्स की अपने हितों के मुताबिक महत्वपूर्ण आर्थिक मंत्रालयों में मंत्री बनवाने और अनुकूल अफसरों की तैनाती करवाने से लेकर नीति निर्माण की प्रक्रिया तक में सीधी घुसपैठ हो चुकी है.

यहाँ तक कि राजनीति और कारोबार के बीच की विभाजन रेखा बेमानी सी होती जा रही है. कहना मुश्किल होता जा रहा है कि कौन कारोबारी है और कौन राजनेता? सच पूछिए तो नितिन गडकरी कोई अपवाद नहीं हैं और न ही राबर्ट वाड्रा-डी.एल.एफ सौदे से हैरान होने की जरूरत है.

सच यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में कारपोरेट जगत और राजनीति में आश्चर्यजनक रूप से तरक्की करने और छलांग लगानेवाली अधिकांश कंपनियों और नेताओं की सतह से थोड़ा नीच खुरचिये तो आप पायेंगे कि दोनों एक-दूसरे में निवेश करके आगे बढ़े हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि आज भारतीय संसद में करोड़पतियों की संख्या नए रिकार्ड बना रही है. २००९ के आम चुनावों के नतीजों के आधार पर पत्रकार पी. साईंनाथ ने यह निष्कर्ष निकाला कि अगर आप सुपर अमीर यानी पांच करोड़ रूपये से अधिक की संपत्ति के मालिक हैं तो संसदीय चुनावों में दस लाख रूपये से कम की संपत्ति वाले प्रत्याशी की तुलना में आपकी सफलता की सम्भावना ७५ गुना बढ़ जाती है.
साफ़ है कि भारतीय जनतंत्र कारपोरेट नियंत्रित धनतंत्र में बदलता जा रहा है. क्या अब भी दोहराने की जरूरत रह जाती है कि भ्रष्टाचार और घोटालों की जड़ें कहाँ हैं और उसके लिए सिर्फ नेता ही नहीं बल्कि नीतियां भी उतनी ही जिम्मेदार हैं?

फिर यह मुद्दा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के एजेंडे पर क्यों नहीं है? क्या देश एक बार फिर आधी-अधूरी क्रांति का गवाह बनने जा रहा है?

('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 27 अक्तूबर को प्रकाशित लेख की दूसरी और आखिरी क़िस्त)