शुक्रवार, अक्तूबर 19, 2012

"षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी" को झटका

अब शुरू हुई है कारपोरेट मीडिया और वैकल्पिक राजनीति का दावा करनेवालों की परीक्षा

मुख्यधारा की पत्रकारिता के लिए यह परीक्षा की घड़ी है. ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार और घोटालों से लबालब भरे नाले का मुंह खुल गया है. लगभग हर दिन घोटालों का भंडाफोड़ हो रहा है. मंत्री से लेकर संतरी तक सभी के भ्रष्टाचार का खुलासा हो रहा है. इनकी खबरें भी न्यूज मीडिया की सुर्ख़ियों में हैं. किसी को भी भ्रम हो सकता है जैसे खोजी पत्रकारिता का ‘स्वर्णकाल’ चल रहा हो.
लेकिन फिर भी एक कमी हमेशा महसूस होती रही है. वह यह कि इस सार्वजनिक जांच-पड़ताल और जवाबदेही के दायरे से सत्ता और कारपोरेट के शीर्ष पर बैठे मुट्ठी भर नेताओं, उनके परिवारों, उद्योगपतियों और खुद मीडिया मालिकों को दूर रखा जा रहा है.
दरअसल, राजनीतिक दलों से लेकर कारपोरेट मीडिया तक में लंबे समय से एक अघोषित सी सहमति रही है जिसके तहत सत्ता और कारपोरेट के शीर्ष पर बैठे कुछ चुनिन्दा लोगों को किसी भी सार्वजनिक जांच-पड़ताल, सवाल-जवाब और खुलासों से बाहर रखा जाता रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इनमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनका परिवार सबसे ऊपर है.

इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनका परिवार इसी स्थिति में था. इसके अलावा प्रमुख कारपोरेट घरानों और मीडिया मालिकों से भी दस हाथ की दूरी बरती जाती रही है. कारपोरेट घोटालों के खुलासों के मामले में तो मीडिया में एक षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी सी दिखती रही है.

लेकिन ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के अरविन्द केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने घोटालों के भंडाफोड़ की कड़ी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के दामाद राबर्ट वाड्रा की संपत्ति में सिर्फ कुछ ही वर्षों में हुई अभूतपूर्व वृद्धि और रीयल इस्टेट कंपनी- डी.एल.एफ के साथ उनके संबंधों/सौदों पर ऊँगली उठाकर न सिर्फ बर्र के छत्ते को छेड़ दिया है बल्कि इस षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी को भी झटका दिया है.
स खुलासे के बाद से हडकंप सा मचा हुआ है. पूरी सरकार और कांग्रेस पार्टी के बचाव में उतर आने के बावजूद यह मुद्दा सुर्ख़ियों में बना हुआ है.
यही नहीं, इक्का-दुक्का लेकिन उल्लेखनीय अपवादों को छोड़कर कारपोरेट मीडिया के बड़े हिस्से ने इस खुलासे को अच्छी-खासी कवरेज दी है और प्राइम टाइम चर्चा में भी यह मुद्दा छाया रहा है. उनके साहस की दाद देनी पड़ेगी. लेकिन यह कहते हुए भी कारपोरेट मीडिया की भूमिका को लेकर कुछ सवाल हैं जिनके जवाब अनुत्तरित हैं.

पहला, कहते हैं कि राबर्ट वाड्रा की अभूतपूर्व छलांग के बारे में ये जानकारियां और दस्तावेज एक साल से अधिक समय से कारपोरेट मीडिया से जुड़े पत्रकारों/संपादकों के अलावा प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं पास भी थे. लेकिन किसी भी मीडिया समूह ने उसकी छानबीन करने और उसे सार्वजनिक करने में रूचि नहीं दिखाई.

दूसरा, जब अरविंद केजरीवाल ने दस्तावेजों सहित राबर्ट वाड्रा-डी.एल.एफ संबंधों/सौदों पर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए तो भी एकाध अपवादों को छोड़कर किसी भी भी प्रमुख मीडिया समूह ने इस मामले की आगे की स्वतंत्र जांच-पड़ताल क्यों नहीं की? आखिर फालो-अप स्टोरीज क्यों नहीं दिखीं? ऐसा क्यों हुआ कि डी.एल.एफ और राबर्ट वाड्रा की सफाई के बाद एक बार फिर अरविंद केजरीवाल को और दस्तावेज जारी करने पड़े?
ऐसा लगता है कि जैसे प्रमुख विपक्षी दल भाजपा अरविंद केजरीवाल के कन्धों पर रखकर बंदूक चला रही है, उसी तरह कई तेजतर्रार-साहसी संपादक और उनके चैनल-अखबार भी अरविंद केजरीवाल की आड़ में निशानेबाजी कर रहे हैं.
लेकिन तीसरा सवाल सबसे महत्वपूर्ण है. क्या राबर्ट वाड्रा मामले के सामने आने से वास्तव में, कारपोरेट मीडिया, कार्पोरेट्स और सत्ता शीर्ष की राजनीति में  आपसी सहमति के आधार पर बनी षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी टूट गई है?

यह दावा करना जल्दबाजी है. इस दावे पर तब तक विश्वास करना संभव नहीं है जब तक खोजी पत्रकारिता और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के राडार पर बड़े कारपोरेट समूह, उनके मालिक और मीडिया कंपनियों के मालिक नहीं आते हैं?

इस मायने में कारपोरेट मीडिया और वैकल्पिक राजनीति का दावा करनेवालों की परीक्षा अब शुरू हुई है.

('तहलका' के 30 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

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