एक अति से दूसरी अति के बीच झूलते चैनल
नतीजा यह कि चैनलों और अख़बारों में अब अन्ना हजारे से अधिक अमर सिंह दिख रहे हैं. लोकपाल से अधिक चर्चा उस रहस्यमय सी.डी उर्फ पप्पू की हो रही है जिसके ‘पापा का पता नहीं है.’ यही नहीं, समाचार मीडिया का एक हिस्सा जोरशोर से सिविल सोसायटी के सदस्यों की जन्मपत्री खंगालने में जुटा है.
जाहिर है कि अमर सिंह रातों-रात ‘न्यूजमेकर आफ द डे’ बन चुके हैं. चैनलों पर अन्ना वाणी की जगह अमर वाणी ने ले ली है. चैनलों पर बहुत दिनों बाड़ प्राइम टाइम में अमर सिंह छाए हुए हैं. उनका अहर्निश प्रलाप चल रहा है.
मजा यह कि सूप तो सूप, चलनी भी यह सवाल पूछ रही है जिसमें सैकड़ों छेद हैं. आश्चर्य नहीं कि ‘बक स्टाप्स हियर’ में बरखा दत्त ने जब यह सवाल स्वामी अग्निवेश से पूछा तो उन्होंने पलटकर पूछा कि बरखा जी, अगर एक बड़े चैनल के एंकर पर भ्रष्टाचार में शामिल होने का आरोप लगता है तो क्या उस एंकर को खुद को पूरी तरह से पाक-साफ़ होने से पहले भ्रष्टाचार पर बहस करने की इजाजत होनी चाहिए? लेकिन मीडिया के पास ऐसे सवाल सुनने और उनका जवाब देने का साहस कहां है?
वहां तो सिर्फ फैसला होता है और वह फैसला हो चुका है. भूषण पिता-पुत्र पर कालिख पोती जा चुकी है. वैसे भी न्यूज चैनल तुरता न्याय में विश्वास करते हैं. वे अतियों के बीच जीने के आदी हो चुके हैं. ऐसे में, उन्हें किसी को आसमान पर चढ़ाने या पाताल में धकेलने में समय नहीं लगता है.
इससे ऐसा लगता है कि समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनल अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और उसके सिविल सोसायटी सदस्यों को रातों-रात आसमान पर चढ़ाने की अति का पश्चाताप करने में लग गए हैं. लेकिन पश्चाताप का यह तरीका जल्दबाजी में पुरानी गलती को दोहराने की तरह है और अगले पश्चाताप की जमीन तैयार कर रहा है.
कहते हैं कि कई बार क्रांतियां अपने ही संतानों को खा जाती हैं. उसमें भी अगर वह ‘क्रांति’ मीडिया खासकर न्यूज चैनलों और न्यू मीडिया के कन्धों पर चढकर आई हो तो यह खतरा कई गुना बढ़ जाता है. आखिर मीडिया एक दुधारी तलवार है. वह दोनों ओर से घाव करती है.
ऐसा लगता है कि अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी ‘क्रांति’ के साथ भी यही हो रहा है. न्यूज चैनलों और समाचार मीडिया ने जिस उत्साह के साथ अन्ना की भ्रष्टाचार विरोधी ‘क्रांति’ को गढा और आसमान पर चढ़ाया, अब वे ही उसकी संतानों के पीछे पड़ गए हैं.
गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं. कीचड उछालने का खेल शुरू हो चुका है. हैरानी की बात यह है कि चैनलों के कठघरे में अब भ्रष्ट नेता और मंत्री नहीं बल्कि जन लोकपाल कानून का मसौदा तैयार करने के लिए गठित समिति के गैर सरकारी सदस्य खासकर शांति और प्रशांत भूषण खड़े हैं.
कल तक जंतर-मंतर से ‘क्रांति’ की लाइव रिपोर्ट कर रहे न्यूज चैनलों पर अमर सिंह बैठे हैं और एंकर पूछ रहे हैं कि गंभीर आरोपों को देखते हुए क्या भूषण पिता-पुत्र को जन लोकपाल समिति से इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए?
इसकी वजह यह भी है कि इस मामले में अधिकांश न्यूज चैनल एक खास तरह के दृष्टि दोष के शिकार हैं. उन्हें काले और सफ़ेद के अलावा और कुछ नहीं दिखता है. संतुलन और अनुपात जैसे शब्द उनकी न्यूज डिक्शनरी से पहले ही गायब हो चुके हैं.
आश्चर्य नहीं कि भूषण पिता-पुत्र के मामले में भी न्यूज चैनल न सिर्फ जल्दबाजी में हैं बल्कि उन्हें इस मामले में काले-सफ़ेद के अलावा और कुछ नहीं दिख रहा है. इस मामले में चैनलों की सक्रियता देखते ही बनती है. वे एक अति से दूसरी अति पर पहुंच चुके हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि जंतर-मंतर पर अन्ना के अनशन की 24x7 कवरेज और उसे ‘क्रांति’ घोषित करना भी एक अति थी. लेकिन अब उसे प्रतिक्रांति घोषित करने में भी वैसी ही जल्दबाजी दिखाई जा रही है.
क्या चैनल जल्दबाजी में एक अति से दूसरी अति तक की पेंडुलम यात्रा से बच नहीं सकते हैं? न्यूज चैनलों के लिए संतुलन, अनुपात, तथ्य-पूर्णता और वस्तुनिष्ठता को बरतना इतना मुश्किल क्यों हो जाता है?
क्या चैनलों के लिए भूषण पिता-पुत्र पर लगे आरोपों की स्वतंत्र जांच-पड़ताल करना और सच्चाई को सामने लाने की कोशिश करना इतना मुश्किल था कि वे ‘हिज मास्टर्स वायस’ की तरह सुबह से शाम तक उन आरोपों को दोहराते रहे?
यह सोचने की बात है कि इतने संसाधनों के बावजूद चैनल किसी विवादस्पद मामले में अपनी ओर से छानबीन और क्रास चेक करने और तथ्य जुटाने के बजाय क्यों आरोप-प्रत्यारोप को दोहराने वाले साउंड बाईट और प्राइम टाइम तू-तू,मैं-मैं पर ज्यादा भरोसा करते हैं? जांच-पड़ताल और खबर की तह तक जाने का जिम्मा अभी भी मुख्यतः अखबारों पर है.
लेकिन इस साउंड बाईट और तू-तू, मैं-मैं पत्रकारिता में परपीडक सुख और सड़क छाप कौतूहल चाहे जितना हो पर दर्शकों की जानकारी और समझ में शायद ही कोई विस्तार होता हो. यही नहीं, न्यूज चैनलों की यह तू-तू, मैं-मैं पत्रकारिता उन्हें जाने-अनजाने एक अति से दूसरी अति की ओर भी धकेलती रहती है.
इस अति का फायदा कभी-कभार अन्ना और उनके मुद्दों को जरूर मिल जाता है लेकिन ज्यादातर मौकों पर इसका फायदा अमर सिंह जैसों को ही होता है. वजह यह कि चैनलों के ‘लोकतंत्र’ में शांति-प्रशांत भूषण और अमर सिंह में कोई फर्क नहीं है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों पर अमर ‘क्रांति’, अन्ना ‘क्रांति’ को निपटाने में जुट गई है.
(पाक्षिक 'तहलका' के १५ मई'११ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)
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