बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की उम्मीद में है भाजपा
कहते हैं कि काठ की हांड़ी दोबारा नहीं चढ़ती है. लेकिन लगता है कि भारतीय जनता पार्टी ने यह मुहावरा नहीं सुना है. यही कारण है कि वह इन दिनों काठ की हांड़ी दोबारा चढ़ाने की कोशिश कर रही है. पिछले एक सप्ताह में उसके राष्ट्रीय नेतृत्व ने दो ऐसे बड़े फैसले किये हैं जिनसे उसकी दुविधा, हताशा और घबराहट का पता चलता है.
सबसे पहले खुद पार्टी नेताओं को हैरान करते हुए ‘प्राइममिनिस्टर इन वेटिंग’ लाल कृष्ण आडवाणी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण के लिए देश भर में रथयात्रा शुरू करने का एलान कर दिया.
और अब पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उत्तराखंड में मौजूदा मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को हटाकर पूर्व मुख्यमंत्री बी.सी. खंडूरी को सत्ता सौंपने की घोषणा कर दी है. इन फैसलों से पता चलता है कि देश के मुख्य विपक्षी दल में नए विचारों और नेतृत्व का किस कदर अकाल पैदा हो गया है.
अन्यथा उम्र के इस पड़ाव और सक्रिय राजनीति से विदाई की इस वेला में आडवाणी की इस राजनीतिक बेचैनी और लालसा का क्या तर्क हो सकता है? इसी तरह, खुद को ‘पार्टी विथ डिफ़रेंस’ बतानेवाली भाजपा उत्तराखंड में इस बेशर्मी से कोश्यारी-खंडूरी-निशंक के बीच सत्ता के ‘म्यूजिकल चेयर’ का खेल नहीं खेल रही होती.
ऐसा लगता है कि भाजपा लोगों को बेवकूफ समझती है. यही कारण है कि उसने उत्तराखंड में पिछले पांच साल में दो बार मुख्यमंत्री बदला और जल्दी ही होने जा रहे विधानसभा चुनावों से पहले मैदान में खंडूरी को उतारकर काठ की हांड़ी को दोबारा चढ़ाने की कोशिश की है.
लोग कहने लगे हैं कि भाजपा ने उत्तराखंड को मुख्यमंत्री उत्पादक प्रदेश बना दिया है. राज्य बनने के बाद पहले दो वर्षों के कार्यकाल में भाजपा ने पहले नित्यानंद स्वामी और फिर भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन वे भी २००२ में पार्टी की हार को टाल नहीं सके.
इसके बाद २००७ में विधानसभा चुनाव में जीत के बाद बी.सी. खंडूरी लाए गए लेकिन उन्हें २००९ के आम चुनावों में प्रदेश की सभी लोकसभा सीटें हारने के आरोप में हटाकर निशंक को कुर्सी सौंप दी गई.
लेकिन जब यह लगने लगा कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे निशंक आसन्न विधानसभा चुनावों में पार्टी की नैय्या पार नहीं लगा पाएंगे, तो एक बार फिर खंडूरी पर दांव लगाने का फैसला किया है. लेकिन क्या उत्तराखंड के लोग भी खंडूरी पर दांव लगाने को तैयार हैं?
सवाल यह है कि अगर उनका नेतृत्व इतना चमत्कारी होता तो वे २००९ में पार्टी को राज्य की एक भी लोकसभा सीट क्यों नहीं दिलवा पाए? दूसरे, पार्टी को खंडूरी के नेतृत्व पर इतना ही विश्वास है तो उन्हें २००९ में हटाया क्यों?
ऐसा लगता है कि भाजपा की उम्मीद लोगों को सीमित स्मृति पर टिकी है लेकिन सच यह है कि वह खुद स्मृति दोष की शिकार है. लगता है कि पार्टी दिल्ली में १९९३ से १९९८ के बीच खुराना-साहब सिंह वर्मा-सुषमा स्वराज के प्रयोग के हश्र को भूल गई?
इसी तरह, १९९८ में चुनावों से ठीक कुछ महीने पहले साहब सिंह वर्मा को हटाकर सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बनाया गया था लेकिन नतीजा यह हुआ कि उसके बाद से दिल्ली में आज तक भाजपा विपक्ष में बैठी है.
असल में, भाजपा के साथ मुश्किल यह है कि वह दावे भले नेतृत्व के ‘चमत्कार’ पर जरूरत से कुछ ज्यादा ही भरोसा करती है. लेकिन नेतृत्व के ‘चमत्कार’ की सीमाएं होती हैं. इस राजनीतिक सबक को भाजपा भूल रही है. वाजपेयी के चमत्कारिक नेतृत्व को भी २००४ के चुनावों में मुंह की खानी पड़ी और २००९ में आडवाणी का जादू फीका रहा.
तथ्य यह है कि नए नेतृत्व के साथ-साथ नए विचारों और कार्यक्रमों की भी जरूरत होती है. अन्यथा, यह नई बोतल में पुरानी शराब से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता है. सच यह है कि भाजपा की सबसे बड़ी समस्या नेतृत्व की नहीं बल्कि नए विचारों और कार्यकर्मों की है. इस मामले में पार्टी का दिवालियापन जगजाहिर हो चुका है.
लेकिन पार्टी इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है. पर इसके अनगिनत उदाहरण सामने हैं. यह पार्टी नेतृत्व का दिवालियापन ही है कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आडवाणी के नेतृत्व में रथयात्रा निकालने जा रही है.
क्या भाजपा को मालूम नहीं है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खुद उसकी विश्वसनीयता पाताल छू रही है? जो पार्टी कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं से लेकर येदियुरप्पा के आगे घुटने टेक चुकी हो और जिसकी सभी राज्य सरकारों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हों, उसके भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को कौन गंभीरता से लेगा? यही नहीं, पिछली एन.डी.ए सरकार के टेलीकाम, तहलका से लेकर ताबूत घोटाले की कथाएं लोगों की स्मृति से क्षीण नहीं हुई हैं.
सच पूछिए तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भाजपा नेताओं और सरकारों के इसी रिकार्ड के कारण भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व भाजपा के पास नहीं बल्कि एक गैर राजनीतिक एन.जी.ओ और उसके नेता अन्ना हजारे के पास है. भाजपा नेता मानें या न मानें लेकिन अन्ना हजारे की सफलता, भाजपा की विफलता से निकली है.
असल में, नेतृत्व से ज्यादा उसकी साख और विश्वसनीयता महत्वपूर्ण होती है. लेकिन चाहे आडवाणी हों या खंडूरी, उनके नेतृत्व की क्या साख है? क्या आडवाणी ने अपनी राज्य सरकारों में बढ़ते भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए कुछ किया? उलटे वे एक ऐसे लाचार नेता के रूप में सामने आए हैं जिसने महाभारत के धृतराष्ट्र की तरह आँखें बंद कर रखी हैं.
यही नहीं, नेतृत्व हवा में नहीं जमीन पर बनता है. अगर जमीन फिसलन भरी है तो अच्छे से अच्छे नेतृत्व को फिसलने से नहीं बचाया जा सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि उत्तराखंड में निशंक और खुद खंडूरी ने शासन में कोई कमाल तो दूर लोगों की न्यूनतम अपेक्षाएं भी पूरी नहीं की हैं.
उत्तराखंड के निर्माण से लोगों की जो अपेक्षाएं थीं, उन्हें चाहे कांग्रेस की नारायण दत्त तिवारी सरकार रही हो या भाजपा की तमाम सरकारें – किसी ने पूरा नहीं किया है. लूट-खसोट और भाई-भतीजावाद की ऐसी राजनीतिक संस्कृति विकसित हुई है जिसमें न सिर्फ कांग्रेस और भाजपा को अलग करना मुश्किल है बल्कि उसमें राज्य और उसके लोगों के हित सबसे पहले कुर्बान किये जाते हैं. इसकी अपवाद न खंडूरी की पूर्ववर्ती सरकार थी और न निशंक की मौजूदा सरकार.
ऐसे में, भाजपा नेतृत्व की काठ की हांडी दोबारा चढ़ाने की कोशिश का हश्र क्या होगा, यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. हालांकि उत्तराखंड में लोगों के पास बहुत विकल्प नहीं है. कांग्रेस से लोगों की निराशा किसी से छुपी नहीं है. लगता है कि भाजपा इसे देखते हुए बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की उम्मीद कर रही है.
(दैनिक 'नया इंडिया' में १२ सितम्बर को प्रकाशित लेख का परिवर्धित रूप)
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