शनिवार, अक्टूबर 05, 2013

चुप्पी के इस षड्यंत्र को तोड़ने की चुनौती

श्रमजीवी पत्रकार कानून को बेमानी क्यों बना दिया गया है?

तीसरी और आखिरी किस्त

दूसरी ओर, अखबारों से सबक लेकर निजी न्यूज चैनलों ने अपने संस्थानों में शुरू से ही ठेके पर नियुक्तियां कीं, यूनियनें नहीं बनने दीं और न्यूजरूम में आतंक-नियंत्रण का माहौल बनाए रखा.

हालाँकि यह सच है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में शुरू हुए ज्यादातर बड़े न्यूज चैनलों ने शुरुआत में अखबारों की तुलना में ज्यादा वेतन दिया खासकर ऊपर के पदों पर ऊँची तनख्वाहें दीं, तुलनात्मक रूप से कामकाज का माहौल भी अच्छा था लेकिन उसकी वजह यह थी कि शुरुआत में टी.वी के लिए प्रशिक्षित पत्रकारों की कमी थी और नया माध्यम होने और उसकी संभावनाओं को देखते हुए निवेशक पैसा झोंक रहे थे.
लेकिन पिछले पांच-सात सालों में कई कारणों जैसे टी.वी के लिए प्रशिक्षित पत्रकारों की अति-आपूर्ति, न्यूज चैनलों की संख्या में वृद्धि और तीखी प्रतियोगिता, वितरण-मार्केटिंग के बेतहाशा बढ़ते खर्चे, अर्थव्यवस्था की कमजोर स्थिति के कारण विज्ञापन राजस्व में गिरावट आदि से स्थितियां बदल गईं हैं.
छंटनी के हालिया मामलों से साफ़ है कि न्यूज चैनलों के लिए ‘आछे दिन, पाछे गए’. अब यहाँ चैनलों के बढ़ते घाटे पर अंकुश लगाने के नामपर न्यूजरूम के एकीकरण, पुनर्गठन और कर्मियों की संख्या के तार्किकीकरण की आंधी चल रही है. चैनलों में कम से कम स्टाफ में काम चलाने पर जोर है.

नए बिजनेस माडल में अधिक तनख्वाहें पानेवाले वरिष्ठ पत्रकारों/संपादकों और मंझोले कर्मियों को हटाकर उनकी जगह कम तनख्वाह में जूनियर स्तर पर भर्तियाँ करने की रणनीति आम होती जा रही है. यही नहीं, ए.एन.आई जैसी एजेंसी से ज्यादा से ज्यादा खबरें लेने और अपने रिपोर्टिंग/कैमरामैन आदि स्टाफ में कटौती की प्रवृत्ति आम हो रही है. इसके नतीजे में मौजूदा स्टाफ पर काम का बोझ बढ़ाने और छुट्टियों/सुविधाओं में कटौती की शिकायतें भी बढ़ी हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस सबको न्यूज चैनलों की खराब आर्थिक स्थिति और बढ़ते घाटे की आड़ में जायज ठहराया जा रहा है. तर्क यह दिया जा रहा है कि चैनलों को बंद करने और हजारों पत्रकारों को बेरोजगार करने से बेहतर है कि कुछ लोग छंटनी, वेतन कटौती और बढ़े हुए काम के बोझ का दर्द बर्दाश्त करें.
लेकिन तथ्य क्या हैं? नेटवर्क-१८ के ही उदाहरण को लीजिए. नेटवर्क-१८ को चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में १८ करोड़ रूपये का मुनाफा हुआ है. पिछले साल उसे घाटा हुआ था लेकिन इस साल मुनाफा कमाने के बावजूद उसने ३५० कर्मियों को निकाल दिया. दूसरी बात यह है कि कई बड़े न्यूज चैनल इसलिए घाटे में नहीं हैं क्योंकि उनके स्टाफ की लागत अधिक है बल्कि इसलिए घाटे में हैं क्योंकि उनके प्रबंधन ने अच्छे दिनों में जमकर फिजूलखर्ची की, विस्तार के मनमाने फैसले किये और ऊँची दरों पर कर्ज लिया.
यही नहीं, न्यूज चैनलों के प्रधान संपादकों/प्रबंध संपादकों/स्टार एंकरों के साथ-साथ उनके सी.ई.ओ आदि की तनख्वाहें बहुत ज्यादा हैं, कुछ मामलों में तो ये तनख्वाहें इतनी अधिक (अश्लीलता की हद तक) हैं कि एक संपादक की तनख्वाह ३० जूनियर स्टाफ या १५ मंझोले स्टाफ के बराबर है. इसके बावजूद छंटनी की गाज हमेशा मंझोले/जूनियर स्टाफ पर गिरती है.

साफ़ है कि यह माडल न सिर्फ अन्यायपूर्ण है बल्कि टिकाऊ नहीं है. इस माडल की कीमत चैनलों के पत्रकार और मीडियाकर्मी ही नहीं चुका रहे हैं. इसकी कीमत आम दर्शकों और व्यापक अर्थों में भारतीय लोकतंत्र को भी चुकानी पड़ रही है.

चैनलों में पत्रकारों की छंटनी के कारण न सिर्फ उनके कवरेज और उसकी गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ रहा है और स्टाफ की कमी की भरपाई हलके-फुल्के मनोरंजन से की जा रही है बल्कि उनके रिपोर्टिंग की कवरेज में विविधता खत्म हो रही है और उसका दायरा सीमित हो रहा है. 

यही नहीं, स्टाफ की कमी का असर खबरों और उनके तथ्यों की जांच-पड़ताल और छानबीन भी पड़ रहा है और भविष्य में और अधिक पड़ेगा. इसका असर संपादकीय निगरानी पर भी पड़ रहा है. इसके कारण खबरों में तथ्यात्मक गलतियाँ बढ़ रही हैं.
दर्शकों को सही, पूरी और व्यापक जानकारी नहीं मिल रही है और घटते कवरेज की भरपाई के रूप में उन्हें चर्चाओं/बहसों के नामपर शोर/एकतरफा विचारों से बहरा बनाया जा रहा है. जाहिर है कि यह दर्शकों का नुकसान है और अगर एक सक्रिय और प्रभावी लोकतंत्र के लिए हर तरह से सूचित नागरिक अनिवार्य शर्त हैं तो सूचना के एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में न्यूज चैनलों की मौजूदा स्थिति और उसमें काम कर रहे पत्रकारों का टूटता मनोबल लोकतंत्र के लिए कोई अच्छी खबर नहीं है.
इसलिए समय आ गया है जब चैनलों/अखबारों में काम करनेवाले पत्रकारों के कामकाज की स्थितियों पर सार्वजनिक चर्चा हो. यह इसलिए भी जरूरी है कि अन्य पेशों की तुलना में लोकतंत्र की सेहत के लिए पत्रकारिता के पेशे की अहमियत बहुत महत्वपूर्ण है.

यही वजह है कि आज़ादी के बाद ५० के दशक में पत्रकारों/कर्मियों के लिए संसद ने अलग से श्रमजीवी पत्रकार कानून बनाया. उनके लिए अलग से वेतन आयोग गठित किये गए. लेकिन अफसोस की बात यह है कि न्यूज मीडिया कम्पनियाँ न सिर्फ इस कानून की धज्जियाँ उड़ाने में लगी हुई हैं बल्कि केन्द्र और राज्य सरकारों के सहयोग से इसे पूरी तरह से बेमानी बना दिया गया है. स्थिति यह हो गई है कि बड़े अखबार समूह इस कानून को ही अप्रासंगिक साबित करके खत्म करने की मांग कर रहे हैं.
 
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस कानून को और सशक्त, प्रभावी और व्यापक बनाने की जरूरत है. उसके दायरे में न्यूज चैनलों के श्रमजीवी पत्रकारों को भी लाने की जरूरत है. लेकिन इसके लिए इस मुद्दे पर सार्वजनिक चर्चा जरूरी है.

नेटवर्क-१८ की छंटनी को यूँ ही बेकार नहीं जाने दिया जाना चाहिए. अच्छी बात यह है कि युवा पत्रकारों के एक छोटे लेकिन प्रतिबद्ध समूह ने इस मुद्दे पर बनी ‘चुप्पी के षड्यंत्र’ को तोड़ने की पहल की है. उसका स्वागत किया जाना चाहिए.

(‘कथादेश’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित स्तंभ...तीसरी और आखिरी किस्त)

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