न्यूज मीडिया में
आंतरिक लोकतंत्र कहाँ है? क्यों नहीं है यूनियन बनाने का अधिकार?
इस छंटनी के तहत जो पत्रकार/कर्मी एक साल से कम से सेवा में थे, उन्हें छंटनी के एवज में एक महीने की तनख्वाह और जो उससे ज्यादा समय से नौकरी में थे, उन्हें तीन महीने की तनख्वाह दी गई. इसके लिए कारण बताया गया कि कंपनी अपने विभिन्न चैनलों के न्यूजरूम को एकीकृत कर रही है और इस पुनर्गठन के कारण एक ही तरह के काम कर रहे पत्रकारों/कर्मियों की जरूरत खत्म हो गई है.
हैरानी की बात नहीं है कि जहाँ दूसरे उद्योगों में छंटनी/ले-आफ आदि के विरोध में यूनियनें खड़ी हो पाती हैं, प्रबंधन के खिलाफ आंदोलन करती हैं और पीड़ित श्रमिकों/कर्मचारियों को कानूनी मदद से लेकर मानसिक सहारा देती हैं, वहीँ न्यूज मीडिया में यूनियनों के न होने के कारण पत्रकारों/कर्मियों की कोई सुनवाई नहीं है, प्रबंधन के मनमाने फैसलों का कोई विरोध नहीं है और प्रबंधन के सामने पत्रकारों/कर्मियों की समस्याओं और मुद्दों को उठानेवाला कोई सामूहिक मंच नहीं है.
हैरानी की बात नहीं है कि नेटवर्क-१८ में हुई छंटनी में निकाले गए ३५० से अधिक पत्रकारों/मीडियाकर्मियों में से इक्का-दुक्का पत्रकारों को छोड़कर कोई पीड़ित पत्रकार फिल्म सिटी में हुए विरोध प्रदर्शन में शामिल होने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.
लेकिन ९० के दशक में शुरू हुई उदारीकरण-निजीकरण की आंधी में न्यूज मीडिया कंपनियों ने सरकारों के सहयोग से यूनियनों को खत्म करना और पत्रकारों को ठेके/संविदा (कांट्रेक्ट) पर रखना शुरू किया. शुरू में ठेके की व्यवस्था को आकर्षक बनाने के लिए स्थाई कर्मियों की तुलना में ज्यादा तनख्वाहें दी गईं, स्थाई कर्मियों को संविदा नियुक्ति में आने के लिए मजबूर किया गया और पत्रकारों/श्रमिकों को अलग किया गया. यूनियन नेताओं को प्रताड़ित किया गया, यूनियन से सहानुभूति रखनेवाले पत्रकारों को निकाला गया. इस प्रक्रिया में अधिकांश अखबारों में यूनियनों को खत्म या निस्तेज कर दिया गया.
जारी.....
इससे यह भी साफ़ होता है कि जिस प्रेस की स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की
आज़ादी की दुहाईयाँ दी जाती हैं, वह वास्तव में पत्रकारों की आज़ादी नहीं है बल्कि
वह उन चैनलों/अखबारों के मालिकों की आज़ादी है. वे ही पत्रकारों की आज़ादी का दायरा
और सीमा तय करते हैं.
चूँकि मीडिया कंपनियों के मालिक नहीं चाहते हैं कि उनकी
कंपनियों में पत्रकारों के शोषण और उत्पीडन का मामला सामने आए, इसलिए पत्रकार
चाहते हुए भी इसकी रिपोर्ट नहीं कर पाते हैं. जिन अखबारों में अपवादस्वरूप
कभी-कभार इसकी रिपोर्ट छपती भी है तो वह ज्यादातर आधी-अधूरी और तोडमरोड कर छपती
है.
उदाहरण के लिए, नेटवर्क-१८ और अन्य चैनलों से पत्रकारों/कर्मियों की
बड़ी संख्या में छंटनी के ताजा मामलों को ही लीजिए. कुछेक अख़बारों में छपी ख़बरों के
मुताबिक, नेटवर्क-१८ ने अपने न्यूजरूम के ‘पुनर्गठन’ के तहत कुल
पत्रकारों/कर्मियों में से लगभग तीन सौ से चार सौ लोगों यानी ३० फीसदी की छंटनी कर
दी है. इस छंटनी के तहत जो पत्रकार/कर्मी एक साल से कम से सेवा में थे, उन्हें छंटनी के एवज में एक महीने की तनख्वाह और जो उससे ज्यादा समय से नौकरी में थे, उन्हें तीन महीने की तनख्वाह दी गई. इसके लिए कारण बताया गया कि कंपनी अपने विभिन्न चैनलों के न्यूजरूम को एकीकृत कर रही है और इस पुनर्गठन के कारण एक ही तरह के काम कर रहे पत्रकारों/कर्मियों की जरूरत खत्म हो गई है.
इसके अलावा यह कंपनी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने का रोना रोते हुए
कहा गया कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा खराब हालत के मद्देनजर स्थिति और बदतर हो सकती
है. इस कारण कंपनी के लिए खर्चों में कटौती करना अनिवार्य हो गया था. इस मजबूरी
में उसे इतने लोगों को निकलना पड़ा है. नेटवर्क-१८ इसे छंटनी के बजाय न्यूजरूम का पुनर्गठन
और कर्मचारियों की संख्या को उचित स्तर (राईटसाइजिंग) पर लाना बता रहा है.
अन्य
चैनलों/अखबारों ने भी पत्रकारों की छंटनी करते हुए यही तर्क और बहाने पेश किये
हैं. वैसे ये तर्क नए नहीं है. मीडिया से इतर दूसरे उद्योगों और सेवा क्षेत्र की
कंपनियों में लगभग इन्हीं तर्कों के आधार पर श्रमिकों/कर्मचारियों की छंटनी,
ले-आफ, वेतन-इन्क्रीमेंट में कटौती, और तालाबंदी होती रही है.
लेकिन दूसरे उद्योगों/कंपनियों और न्यूज मीडिया उद्योग में फर्क यह है
कि जहाँ संगठित क्षेत्र के अधिकांश उद्योगों/कारखानों/कंपनियों में
श्रमिक/कर्मचारी यूनियनें हैं, वहीँ इक्का-दुक्का अखबारों को छोड़कर अधिकांश
अखबारों में अब पत्रकार यूनियनें नहीं हैं और न्यूज चैनलों में तो किसी भी न्यूज
चैनल में कोई यूनियन नहीं है. हैरानी की बात नहीं है कि जहाँ दूसरे उद्योगों में छंटनी/ले-आफ आदि के विरोध में यूनियनें खड़ी हो पाती हैं, प्रबंधन के खिलाफ आंदोलन करती हैं और पीड़ित श्रमिकों/कर्मचारियों को कानूनी मदद से लेकर मानसिक सहारा देती हैं, वहीँ न्यूज मीडिया में यूनियनों के न होने के कारण पत्रकारों/कर्मियों की कोई सुनवाई नहीं है, प्रबंधन के मनमाने फैसलों का कोई विरोध नहीं है और प्रबंधन के सामने पत्रकारों/कर्मियों की समस्याओं और मुद्दों को उठानेवाला कोई सामूहिक मंच नहीं है.
यही नहीं, न्यूज मीडिया कंपनियों के छंटनी जैसे मनमाने फैसलों का
पीड़ित पत्रकार/कर्मी इसलिए भी विरोध नहीं कर पाते हैं क्योंकि उन्हें डर लगता है
कि उन्हें आगे कोई मीडिया कंपनी नौकरी नहीं देगी. असल में, न्यूज मीडिया उद्योग न
सिर्फ छोटा उद्योग (दो दर्जन से भी कम कम्पनियाँ) है बल्कि उनकी एच.आर नीति में भी
कोई बुनियादी फर्क नहीं है.
कहने की जरूरत नहीं है कि वे सभी न सिर्फ
पत्रकारों/मीडियाकर्मियों के यूनियनों या सामूहिक हित के मंच की विरोधी हैं बल्कि
उन्होंने अपनी-अपनी कंपनियों में सुनिश्चित किया है कि वहां कोई यूनियन न बनने
दिया जाए. उनके बीच इस मुद्दे पर अघोषित सहमति है कि ऐसी किसी गतिविधि को बढ़ावा
नहीं दिया जाना चाहिए और अगर कोई पत्रकार/कर्मी यूनियन बनाने या आंदोलन करने जैसी
पहल करता है तो उसे कोई कंपनी भविष्य में नौकरी न दे.
नतीजा यह कि छंटनी और कामकाज की बदतर परिस्थितियों को लेकर बढ़ती
बेचैनी और गुस्से के बावजूद किसी भी न्यूज मीडिया कंपनी में कोई बोलने के लिए
तैयार नहीं है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो छंटनी के सभी मामलों में
पीड़ित पत्रकारों/मीडियाकर्मियों ने कोई विरोध नहीं किया और फैसले को चुपचाप स्वीकार
कर लिया क्योंकि उन्हें आगे के भविष्य की चिंता थी. उन्हें भय था कि अगर उन्होंने
विरोध किया और सामूहिक आंदोलन आदि में उतरे तो वे ‘ब्लैकलिस्टेड’ कर दिए जाएंगे और
उन्हें कोई चैनल/अखबार नौकरी नहीं देगा. हैरानी की बात नहीं है कि नेटवर्क-१८ में हुई छंटनी में निकाले गए ३५० से अधिक पत्रकारों/मीडियाकर्मियों में से इक्का-दुक्का पत्रकारों को छोड़कर कोई पीड़ित पत्रकार फिल्म सिटी में हुए विरोध प्रदर्शन में शामिल होने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.
विडम्बना देखिए कि नेटवर्क-१८ का प्रबंधन इसे अपनी कामयाबी की तरह पेश
कर रहा है और उसका दावा है कि छंटनी के उसके फैसले से कहीं कोई ‘नाराजगी’ नहीं है
और सभी पत्रकार उसके मुआवजे और छंटनी की शर्तों से पूरी तरह ‘संतुष्ट’ हैं.
यही नहीं, न्यूज मीडिया कंपनियों खासकर चैनलों
का यह भी दावा है कि उनके यहाँ काम करनेवाले पत्रकारों/मीडियाकर्मियों के वेतन
इतने ‘आकर्षक’ और सेवाशर्तें/कामकाज की परिस्थितियां इतनी ‘बेहतर’ हैं कि
पत्रकारों/मीडियाकर्मियों को यूनियन की जरूरत ही नहीं महसूस होती है. लेकिन सच यह
नहीं है.
सच यह है कि न्यूज मीडिया कंपनियों में यूनियनों का न होना उनके यहाँ काम
करनेवाले पत्रकारों/मीडियाकर्मियों की ‘संतुष्टि’ का नहीं बल्कि मीडिया कंपनियों
के अघोषित आतंक का परिचायक है. यह ‘जबरा मारे और रोवे न दे’ की स्थिति है.
ऐसा नहीं है कि न्यूज मीडिया कंपनियों खासकर अखबारों में यूनियनें
नहीं थीं. ९० के दशक तक अधिकांश अखबारों में पत्रकार/कर्मचारी यूनियनें थीं. उनमें
कुछ बहुत प्रभावी, ताकतवर और कुछ कमजोर और प्रबंधन अनुकूल थीं. उनमें बहुत कमियां
और खामियां भी थीं. लेकिन इसके बावजूद उनके होने के कारण पत्रकारों/कर्मियों को
अपने हितों के लिए लड़ने और प्रबंधन से मोलतोल करने का मंच मौजूद था और उन्हें एक
सुरक्षा थी. लेकिन ९० के दशक में शुरू हुई उदारीकरण-निजीकरण की आंधी में न्यूज मीडिया कंपनियों ने सरकारों के सहयोग से यूनियनों को खत्म करना और पत्रकारों को ठेके/संविदा (कांट्रेक्ट) पर रखना शुरू किया. शुरू में ठेके की व्यवस्था को आकर्षक बनाने के लिए स्थाई कर्मियों की तुलना में ज्यादा तनख्वाहें दी गईं, स्थाई कर्मियों को संविदा नियुक्ति में आने के लिए मजबूर किया गया और पत्रकारों/श्रमिकों को अलग किया गया. यूनियन नेताओं को प्रताड़ित किया गया, यूनियन से सहानुभूति रखनेवाले पत्रकारों को निकाला गया. इस प्रक्रिया में अधिकांश अखबारों में यूनियनों को खत्म या निस्तेज कर दिया गया.
(‘कथादेश’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित स्तंभ की दूसरी किस्त...कल
पढ़िए तीसरी और आखिरी किस्त)
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