इन दिनों न्यूज चैनलों के अंदर काम करनेवाले पत्रकारों में घबराहट,
बेचैनी और आतंक का माहौल है. हालाँकि चैनलों को देखते हुए आपको बिलकुल अंदाज़ा नहीं
लगेगा लेकिन सच यह है कि चैनलकर्मियों में इनदिनों अपनी नौकरी की सुरक्षा, वेतन और
सेवा शर्तों और भविष्य को लेकर असुरक्षाबोध बहुत अधिक बढ़ गया है.
इसकी वजह यह है
कि पिछले कुछ महीनों में न्यूज चैनलों में पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मियों
(जैसे कैमरामैन, वीडियो एडिटर, रिसर्चरों आदि) की लगातार छंटनी हो रही है. लेकिन महीने
भर पहले जिस तरह से नेटवर्क-१८ समूह (सी.एन.एन-आई.बी.एन, आई.बी.एन-७, सी.एन.बी.सी,
आवाज़) से एक झटके में ३५० से ज्यादा पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मियों की छंटनी हुई
है, उससे यह घबराहट और बेचैनी बहुत ज्यादा बढ़ गई है.
हालाँकि सबकी खबर लेनेवाले किसी भी चैनल पर आपने यह ‘खबर’ नहीं देखी
होगी या इक्का-दुक्का अखबारों और कुछ स्वतंत्र मीडिया पोर्टलों को छोड़कर मुख्यधारा
के ज्यादातर अखबारों ने भी इस ‘खबर’ को छापने लायक नहीं समझा. ध्यान देनेवाली बात यह है कि ये वही न्यूज चैनल या अखबार हैं जिन्होंने कुछ साल पहले किंगफिशर एयरलाइन में कोई १५० एयर हास्टेस और एयरलाइन कर्मियों की छंटनी को सुर्खी बनाने में देर नहीं की थी. सवाल यह है कि न्यूज चैनलों/अखबारों के लिए टी.वी पत्रकारों/कर्मियों की इतनी बड़ी संख्या में छंटनी की ‘खबर’ एयरलाइन कर्मियों की छंटनी की खबर की तुलना में कम महत्वपूर्ण क्यों है कि उसे १० सेकेण्ड की फटाफट खबर या स्क्रोल के लायक भी नहीं माना गया?
यही नहीं, जब कुछ युवा पत्रकारों ने टी.वी-१८ के पत्रकारों की मनमानी
छंटनी के विरोध में पत्रकार एकजुटता मंच (जर्नलिस्ट सोलिडारिटी फोरम) गठित करके
सी.एन.एन-आई.बी.एन के फिल्म सिटी, नोयडा स्थित दफ्तर पर प्रदर्शन किया तो उसकी भी
कोई ‘खबर’ चैनलों में दिखाई नहीं दी या किसी अखबार में नहीं छपी.
हैरानी की बात यह
है कि कोई १५० से ज्यादा युवा और वरिष्ठ पत्रकारों ने इस प्रदर्शन में हिस्सा लिया
और वे नारे लगाते हुए पूरे फिल्म सिटी के इलाके में घूमे लेकिन चैनलों/अखबारों ने
इसे ‘खबर’ लायक नहीं माना. मजे की बात यह है कि फिल्म सिटी में ज्यादातर
हिंदी/अंग्रेजी न्यूज चैनलों के दफ्तर हैं और उस दिन चैनलों के न्यूज रूम में
पत्रकारों-संपादकों के बीच दबे-छुपे इसी प्रदर्शन की चर्चा हो रही थी.
लेकिन इसका पर्याप्त कवरेज तो दूर, किसी टी.वी बुलेटिन या अखबारों ने
नोटिस तक नहीं लिया. गोया ऐसा कोई विरोध प्रदर्शन हुआ ही नहीं हो. हालाँकि
पत्रकारों की ओर से लंबे अरसे बाद ऐसा कोई विरोध प्रदर्शन हुआ था जिसमें टी.वी के
पत्रकारों/कर्मियों ने छंटनी के खिलाफ आवाज़ उठाई थी. हैरानी की बात नहीं है कि नेटवर्क-१८ समूह के बाद अंग्रेजी बिजनेस न्यूज चैनल ब्लूमबर्ग टी.वी में भी लगभग ४० पत्रकारों की छंटनी हुई लेकिन इक्का-दुक्का अखबारों को छोड़कर इसकी ‘खबर’ कहीं नहीं छपी या दिखी. बात सिर्फ दो चैनलों की नहीं है. नेटवर्क-१८ से पहले पिछले एक साल में एन.डी.टी.वी के मुंबई ब्यूरो और दिल्ली मुख्यालय से लगभग १०० पत्रकारों/टी.वी कर्मियों और टी.वी टुडे (आज तक, हेडलाइंस टुडे) में लगभग दो दर्जन से अधिक पत्रकारों को नौकरी गंवानी पड़ी है.
यही नहीं, पिछले वर्षों में शुरू हुए छोटे-मंझोले न्यूज चैनलों में से
कई बंद हो गए हैं या कई मरणासन्न हालत में हैं जिनके कारण कम से कम २५० से ज्यादा
पत्रकारों/कर्मियों को बेरोजगार होना पड़ा है. लेकिन यह टी.वी न्यूज चैनलों तक
सीमित परिघटना नहीं है. अखबारों/प्रिंट मीडिया में भी छंटनी का दौर पिछले एक साल
से अधिक समय से जारी है.
पिछले दिनों ‘आउटलुक’ समूह ने कई पत्रिकाएं बंद करने और
कुछ की समयावधि बढ़ाने की घोषणा की और इसके कारण कोई १२० से ज्यादा पत्रकारों की
छंटनी कर दी गई है. इसी तरह ‘दैनिक जागरण’ और ‘दैनिक भास्कर’ जैसे देश के सबसे
ज्यादा बिकने और कमाई करनेवाले अखबारों में दर्जनों पत्रकारों को नौकरी गंवानी पड़ी
है. नेटवर्क-१८ समूह की ओर से प्रकाशित ‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका में भी संपादक सहित कई
पत्रकारों से जबरन इस्तीफा ले लिया गया.
जैसे इतना ही काफी नहीं हो. पिछले सालों में खासकर २००८ के वैश्विक
आर्थिक संकट के बाद कई चैनलों और अखबारों में पत्रकारों के वेतन में सालाना इजाफा
(इन्क्रीमेंट) नहीं हुआ या आसमान छूती महंगाई की तुलना में बहुत कम इन्क्रीमेंट
हुआ और कुछ मीडिया समूहों में तो वेतन बढ़ोत्तरी तो दूर उल्टे उसमें कटौती कर दी
गई. यही नहीं, चैनलों/अखबारों से पत्रकारों की छंटनी के कारण बचे पत्रकारों/टी.वी कर्मियों का काम का बोझ बढ़ गया है, उनके काम के घंटे बढ़ गए हैं, छुट्टियाँ घट गईं है और दबाव-तनाव बढ़ गया है. लेकिन नौकरी जाने के भय से कोई पत्रकार इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है. गरज यह कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में कुलमिलाकर न्यूज मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों में काम करने की स्थितियां बाद से बदतर हुई हैं. पत्रकारों की नौकरियां जाने के साथ उनमें असुरक्षा बोध बहुत ज्यादा बढ़ गया है.
इसके बावजूद दुनिया भर की खबर देनेवाले न्यूज मीडिया और खासकर न्यूज
चैनलों में खुद उसमें काम करनेवाले पत्रकारों की छंटनी, काम करने की बदतर होती
परिस्थितियां, बढ़ता असुरक्षा बोध और तनाव कोई ‘खबर’ नहीं है.
इसी तरह आपने
श्रमजीवी पत्रकारों का वेतन तय करने के लिए सरकार की ओर से गठित जस्टिस मजीठिया
वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने में हुई देरी और फिर सरकार की ओर से जारी
अधिसूचना के खिलाफ बड़े अखबारों के मालिकों के सुप्रीम कोर्ट जाने के बारे में भी
बहुत ज्यादा खबरें नहीं पढ़ी होंगी. क्या यह कोई संयोग या अपने बारे में बात न करने
का संकोच है? क्या यह पत्रकारों की खुद पर थोपी गई सेल्फ-सेंसरशिप है?
लेकिन अगर ऐसा होता तो पिछले दो-तीन सालों में न्यूज चैनलों/अखबारों
के अंदर का हालचाल बतानेवाले मीडिया वेब पोर्टल इतने लोकप्रिय नहीं होते और यहाँ
तक कि चैनलों/अखबारों के दफ्तरों में सबसे ज्यादा पढ़े जानेवाले पोर्टल्स में से एक
नहीं होते. इसी तरह आप सोशल मीडिया में न्यूज मीडिया के कामकाज और उसमें काम करनेवाले पत्रकारों की स्थिति पर खुद पत्रकारों की नियमित टिप्पणियां, चर्चाएं और आक्रोश पढ़ और देख सकते हैं. इसके बावजूद न्यूज मीडिया में खुद उसमें काम करनेवाले पत्रकारों की समस्याओं, मुश्किलों और तकलीफों के बारे रिपोर्ट और चर्चा करने के लिए जगह नहीं है तो ऐसा क्यों है? क्या यह ‘चुप्पी का षड्यंत्र’ है?
असल में, इस ‘चुप्पी के षड्यंत्र’ की वजह न्यूज मीडिया के स्वामित्व
के पूंजीवादी ढाँचे में है. यह किसी से छुपा नहीं है कि बड़ी कारपोरेट पूंजी और
छोटी-मंझोली पूंजी की मीडिया कंपनियों में काम करनेवाले पत्रकारों की मौजूदा
स्थिति के लिए मीडिया कम्पनियाँ और उनका प्रबंधन जिम्मेदार है.
चाहे पत्रकारों की
नियुक्ति की अपारदर्शी व्यवस्था हो या संविदा पर नियुक्ति के साथ जुड़ा नौकरी का
अस्थायित्व हो या कंपनी के पक्ष में झुकी सेवाशर्तें हों या वेतन/प्रोन्नति/इन्क्रीमेंट
तय करने के मनमाने तौर-तरीके हों- इसकी जिम्मेदारी मीडिया कम्पनियों की है.
इसी
तरह सामूहिक छंटनी का फैसला भी कंपनियों का है. लेकिन वे हरगिज नहीं चाहती हैं कि
उनके चैनलों और अखबारों में इसकी रिपोर्ट की जाए या उसपर चर्चा हो क्योंकि वे
पत्रकारों की नौकरी, सेवाशर्तों और कामकाज की परिस्थितियों को सार्वजनिक मुद्दा
नहीं बनने देना चाहते हैं.
यही नहीं, मीडिया कंपनियों के बीच एक अघोषित सहमति है कि वे एक-दूसरे
के बारे में खासकर उनके यहाँ काम करनेवाले पत्रकारों/कर्मियों की समस्याओं, शोषण
और उत्पीडन को रिपोर्ट नहीं करेंगे. इसकी वजह स्पष्ट है. आपने अंग्रेजी का मुहावरा
सुना होगा- ‘कुत्ता, कुत्ते को नहीं खाता है’ (डाग डज नाट ईट डाग).
मीडिया
कम्पनियाँ एक-दूसरे के बारे में खासकर पत्रकारों की स्थिति के बारे में इसलिए
रिपोर्ट या चर्चा नहीं करती हैं क्योंकि कल उनकी कंपनी में काम करनेवाले पत्रकारों
की बदतर स्थितियों के बारे में कोई दूसरा चैनल/अखबार रिपोर्ट कर सकता है. उन्हें
पता है कि सभी न्यूज मीडिया कंपनियों में पत्रकारों की स्थिति कमोबेश एक जैसी ही
है. इसलिए वे उसे छुपाने और सार्वजनिक चर्चा का मुद्दा बनने देने से रोकने के लिए
हर कोशिश करते हैं.
(‘कथादेश’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित स्तंभ की पहली किस्त..अगली किस्त कल..)
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