बुधवार, अक्टूबर 09, 2013

दंगों की रिपोर्टिंग के सबक

दंगों की रिपोर्टिंग का नया एथिक्स: पहचान छुपाएँ या बताएं?

भारत के लिए सांप्रदायिक दंगे कोई नई परिघटना नहीं हैं. जाहिर है कि न्यूज मीडिया के लिए भी इन सांप्रदायिक दंगों की कवरेज का अनुभव नया नहीं है.

इसके बावजूद हर छोटे-बड़े दंगे को भड़काने में न्यूज मीडिया खासकर भाषाई अखबारों की भूमिका और ज्यादातर मामलों में उसकी एकपक्षीय, असंतुलित और भडकाऊ कवरेज पर उँगलियाँ उठती रही हैं.

मुजफ्फरनगर के दंगों की कवरेज भी इसका अपवाद नहीं है. हालाँकि इसबार ज्यादा सवाल सोशल मीडिया और मोबाइल फोन के दुरुपयोग, उनके जरिये अफवाहें फ़ैलाने और लोगों को भड़काने पर उठ रहे हैं लेकिन अखबार और न्यूज चैनल भी सवालों के घेरे से बाहर नहीं हैं.

उदाहरण के लिए, भारतीय प्रेस परिषद की पत्रकारीय आचार संहिता सांप्रदायिक दंगों की कवरेज में तथ्यों के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता और सावधानी बरतने की सिफारिश करते हुए दंगे में मारे गए/घायल लोगों की धार्मिक पहचान को उजागर न करने की सलाह देती है.

लेकिन आरोप है कि अंग्रेजी के कुछ राष्ट्रीय दैनिकों और न्यूज चैनलों ने मुजफ्फरनगर के दंगों की रिपोर्टिंग के दौरान दंगों के शिकार लोगों की धार्मिक/जातीय पहचान नहीं छुपाई. जैसे, एन.डी.टी.वी-24x7 के श्रीनिवासन जैन पर आरोप है कि उन्होंने अपनी रिपोर्टिंग और ‘ट्रुथ एंड हाईप’ कार्यक्रम में न सिर्फ दंगे में शामिल समुदायों की धार्मिक/जातीय पहचान का खुलकर उल्लेख किया बल्कि दंगों में मारे गए और हमलावरों की पहचान करने में भी संकोच नहीं किया.
इसी तरह के आरोप ‘द हिंदू’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्टिंग पर भी लग रहे हैं. कहा जा रहा है कि इस तरह की रिपोर्टिंग से देश के दूसरे हिस्सों में भी धार्मिक समुदायों के बीच तनाव बढ़ता और भावनाएं भडकती हैं.

लेकिन ‘द हिंदू’ के रीडर्स एडिटर ने मुजफ्फरनगर दंगों में मारे गए/घायल लोगों, पीड़ितों, विस्थापितों और हमलावरों की धार्मिक पहचान उजागर करने का बचाव करते हुए तर्क दिया है कि देश में सांप्रदायिक दंगों की बदलती प्रकृति और स्वरुप के मद्देनजर सांप्रदायिक कुप्रचार अभियान की कलई खोलने के लिए यह जरूरी हो गया है.
उल्लेखनीय है कि मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान भगवा सांप्रदायिक संगठनों ने बेहद शातिराना तरीके से स्थानीय हिंदी अखबारों की हेडलाइन को बदलकर अत्यंत भडकाऊ हेडलाइन लगाईं, उसे सोशल मीडिया पर शेयर और प्रचारित किया.

इसी तरह दोनों पक्षों के शातिर सांप्रदायिक तत्वों/संगठनों ने दंगे में मारे गए लोगों की संख्या और उनकी धार्मिक पहचान को लेकर भी सोशल मीडिया और उससे बाहर अफवाहें फ़ैलाने और एकतरफा कुप्रचार के जरिये दोनों समुदायों को भड़काने की कोशिश की. इसके कारण दोनों ही समुदायों में कहीं ज्यादा तनाव और बेचैनी फैली. मुजफ्फरनगर से पहले पिछले साल असम के दंगों के दौरान भी यह प्रवृत्ति साफ़ दिखाई पड़ी थी.

इस सन्दर्भ में जरूरी सवाल यह है कि जब सांप्रदायिक तत्व सोशल मीडिया और मोबाइल आदि आधुनिक संचार साधनों का इस्तेमाल तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने, झूठ और अफवाहें फ़ैलाने और एक-दूसरे समुदाय को कुप्रचार का निशाना बनाने के लिए कर रहे हैं, उस समय उसका जवाब कैसे दिया जाए? ऐसे समय में मुख्यधारा के अख़बारों/चैनलों की भूमिका क्या होनी चाहिए?

अगर अफवाहों की काट सच्चाई और तथ्यों को सामने लाने में हैं तो अखबारों/चैनलों से सबसे बड़ी अपेक्षा यह होनी चाहिए कि वे सच को सामने लाएं और शरारती तत्वों और संगठित सांप्रदायिक संगठनों को लोगों को गुमराह करने का मौका न दें.
इसलिए अगर कुछ चैनल और अखबार दंगों की रिपोर्टिंग में पारंपरिक पत्रकारीय आचार संहिता से अलग दंगों में मारे गए/घायल, विस्थापित लोगों और हमलावरों की पहचान बता रहे हैं तो इसे भड़काने के बजाय तथ्यों से झूठ, अफवाह और कुप्रचार के जवाब के रूप में देखना चाहिए.

( ‘तहलका’ के १५ अक्टूबर के अंक में प्रकाशित स्तंभ) 

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