मीडिया इस लड़ाई में कहाँ तक साथ चलेगा?
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में मध्य वर्ग को अन्ना हजारे के रूप में एक नया नायक मिल गया है. इस नायक को गढ़ने में कई अन्य कारकों के अलावा समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर मंतर पर आमरण अनशन पर बैठे अन्ना हजारे के आंदोलन को समाचार चैनलों ने अभूतपूर्व कवरेज दी. उसने रातों-रात अन्ना हजारे को देश के करोड़ों मध्यवर्गीय परिवारों का ऐसा नायक बना दिया जिसमें लोग गांधी की छवि देखने लगे.
जंतर-मंतर चैनलों का स्टूडियो बन गया था. एंकर वहीँ से लाइव कर रहे थे और पल-पल की खबर दे रहे थे. यहां तक कि अनशन स्थल पर चल रही हर छोटी-बड़ी गतिविधि चैनलों के जरिये सीधे लोगों के ड्राइंग रूम तक पहुंच रही थी. इस कवरेज की नाटकीयता के कारण कई बार यह सब एक रियलिटी शो की तरह भी लग रहा था.
लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो इस 24x7 कवरेज की सबसे खास बात यह थी कि चैनलों ने इस आंदोलन का खुलकर समर्थन किया. सच पूछिए तो अधिकांश चैनलों ने इस आंदोलन को एक तरह से गोद ले लिया था. चैनलों के सुपर और स्लग पर ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’, ‘भ्रष्टाचार से जंग’ जैसे नारे छाए हुए थे.
यही नहीं, चैनलों में एक तरह से इस आंदोलन के ज्यादा से ज्यादा करीब दिखने और उसका प्रवक्ता बनने की होड़ सी मची हुई थी. जाहिर है कि सभी इसका श्रेय लूटने की कोशिश में भी जुटे थे. हर चैनल यह साबित करने में जुटा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में वही सबसे आगे रहा है.
हालांकि चैनलों के लिए किसी मुद्दे पर मुहिम चलाना कोई नई बात नहीं है. पहले भी चैनलों ने जेसिका और प्रियदर्शिनी मट्टू को न्याय जैसे कई मुद्दों पर सामाजिक मुहिम को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की है. पिछले कुछ महीनों से कई चैनल भ्रष्टाचार के बड़े मामलों के खिलाफ भी एक मुहिम सी छेड़े हुए हैं.
लेकिन ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि चैनलों ने भ्रष्टाचार जैसे अत्यंत ज्वलनशील राजनीतिक मुद्दे पर न सिर्फ अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक आंदोलन के पक्ष में खुलकर स्टैंड लिया है बल्कि उन्हें एक नायक की तरह खड़ा करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.
लेकिन इस आधार पर आंदोलन के कुछ आलोचकों का यह निष्कर्ष पूरी तरह सही नहीं है कि अन्ना और उनका भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का ‘सृजन’ है. सच यह है कि चैनल या सोशल मीडिया आंदोलन नहीं खड़ा कर सकते. वे उसे हवा दे सकते हैं. आंदोलन के लिए समाज में जरूरी वस्तुगत स्थितियां मौजूद होनी चाहिए.
कहने की जरूरत नहीं है कि सर्वग्रासी भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में लोगों में गुस्सा अंदर ही अंदर उबल रहा था. अन्ना हजारे के अनशन ने उसे बाहर निकलकर आने का मौका दिया. यह भी सच है कि इस आंदोलन के रणनीतिकारों ने २४ घंटे के दर्जनों समाचार चैनलों की मौजूदगी का भरपूर फायदा उठाया.
लेकिन ऐसे तर्कों का कोई मतलब नहीं है कि चैनल नहीं होते या सोशल मीडिया नहीं होता तो यह आंदोलन इतनी दूर नहीं जा पाता. तथ्य यह है कि यह २४ घंटे के १०० से अधिक न्यूज चैनलों और लाखों की सदस्यता वाले सोशल मीडिया के दौर का जनांदोलन था जिसके सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव को इन माध्यमों ने कई गुना बढ़ा दिया.
इससे पता चलता है कि इस दौर में मीडिया कितना प्रभावशाली हो गया है. समाचार मीडिया की बढ़ती ताकत और प्रभाव को लेकर अब किसी को शक नहीं रह जाना चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि क्या समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनल अपनी इस ताकत को पहचानेंगे? क्या वे भ्रष्टाचार के सहोदर कारपोरेट लूट के खिलाफ देश भर में चल रहे आन्दोलनों को इतनी ही सहानुभूति से कवरेज देंगे?
क्या वे दिल्ली में अपना हक मांगने आनेवाले किसानों, मजदूरों, आदिवासियों, दलितों और गरीबों के प्रदर्शनों और रैलियों को इसी उत्साह से कवर करेंगे? क्या उनकी यह एडवोकेसी गरीबों के हक-हुकूक के सवालों के साथ भी ऐसे ही खड़ी होगी?
अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि अभी तक वे ऐसे मुद्दों और आन्दोलनों को अनदेखा करते रहे हैं. कई बार तो उनके खिलाफ भी खड़ा हो जाते रहे हैं. क्या अब उनका यह रवैय्या बदलेगा?
एक बात तय है. इस आंदोलन ने आमलोगों को उनकी ताकत का अहसास करवा दिया है. यह भी तय है कि यह आंदोलन सिर्फ लोकपाल तक नहीं रुकनेवाला है. अब मीडिया और न्यूज चैनलों को तय करना है कि वे इस लड़ाई में कहां तक साथ चलेंगे?
(पिछले १२ अप्रैल को लिखा गया आलेख जो 'तहलका' के ३० अप्रैल के अंक में छपा है)
1 टिप्पणी:
मीडिया ने इसे सफ़ल भी बनाया और असफ़ल करने का भी प्रयास किया मीडिया आज perception management का सान बन चुका है हां बीच बीच मे वो अन्ना जैसी गलती कर देता है पर ये गलतियां ही तो उसे मोलभाव मे मजबूत बनाती हैं
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