लोगों को आश्वस्त और सतर्क नहीं बल्कि डराते हैं चैनल
समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के लिए प्राकृतिक आपदाओं से शायद ही कोई बड़ी खबर होती हो. उनमें होनेवाली धन-जन की भारी हानि के कारण लोगों की उनमें स्वाभाविक दिलचस्पी होती है. इतिहासकार और समाजशास्त्री भी मानते हैं कि ‘अज्ञात के भय’ से निपटने की जरूरत से ही ‘समाचार’ जानने-बताने की शुरुआत हुई.
तात्पर्य यह कि ‘समाचार’ के मूल में इंसान के अंदर बैठा वह ‘अज्ञात का भय’ है जिसके पूर्व ज्ञान से वह अपनी, अपने परिवारजनों और समुदाय के बचाव और उनकी हिफाजत करने में समर्थ हो पाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि प्राकृतिक आपदाओं से अधिक ‘अज्ञात का भय’ शायद ही कोई और हो?
आश्चर्य नहीं कि जापान में हालिया भूकंप और उसके बाद आई भयंकर सुनामी से हुई बर्बादी और तबाही की खबरें न सिर्फ भारतीय समाचार चैनलों में बल्कि पूरी दुनिया के मीडिया में छाई हुई हैं. जापान के ज्ञात इतिहास के सबसे बड़े भूकंप और उसके बाद आई भयंकर सुनामी ने जापान को ही नहीं, पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है.
हालांकि जापान के लिए भूकंप कोई नई बात नहीं हैं और यह उसकी पूर्व तैयारी ही थी जिसके कारण भारी तबाही और बर्बादी के बावजूद जनहानि उतनी नहीं हुई, जितनी २००४ की सुनामी के दौरान भारत, थाईलैंड और इंडोनेशिया सहित हिंद महासागर के कई देशों में हुई थी.
जापानी सुनामी और उसके साथ आई बर्बादी और तबाही ने भारतीयों को २००४ की सुनामी की याद दिला दी है. यह भी एक कारण है कि विश्व कप क्रिकेट के बुखार में डूबे होने के बावजूद चैनलों ने जापान के भूकंप और सुनामी को काफी कवरेज दी है.
स्वाभाविक तौर पर चैनलों पर विकराल सुनामी लहरों और उनके साथ आई तबाही की दहला देनेवाली फुटेज/तस्वीरें छाई हुई हैं. इन्हें देखकर सिहरन और लाचारी का अनुभव होता है. ये तस्वीरें खुद ही तबाही की दास्ताँ कहती हैं. सच पूछिए तो यहीं शायद शब्द बेमानी हो जाते हैं.
लेकिन चैनलों के लिए प्राकृतिक आपदा और उससे हुई तबाही की ये फुटेज/तस्वीरें सिर्फ खबर का हिस्सा भर नहीं हैं बल्कि उससे अधिक ज्यादा से ज्यादा दर्शक खींचने का जरिया बन गई हैं. हैरानी की बात नहीं है कि चैनलों पर खौफनाक सुनामी लहरों के साथ हो रही तबाही की फुटेज बार-बार दिखाई गईं. एक ही फुटेज को सुबह से शाम तक सैकड़ों बार रिपीट किया गया. यहां तक कि हर बुलेटिन में ये तस्वीरें बार-बार रिपीट हुईं. कई बार तो कुछ खास दृश्यों को उसी तरह रिपीट किया गया जैसे हिंदी धारावाहिकों में किया जाता है.
इससे कई बार यह आशंका होती है कि चैनल कहीं लोगों के डर, लाचारी और बेचैनी को भुनाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं. इस आशंका को इस तथ्य से और बल मिलता है कि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश चैनलों पर भूकंप और सुनामी से हुई तबाही के बारे में वस्तुनिष्ठ और तथ्यपूर्ण तरीके से खबरें देने और उसके वैज्ञानिक कारणों को स्पष्ट करने के बजाय ज्यादा जोर सनसनी, घबराहट और बेचैनी को बढ़ाने पर दिखाई पड़ा. उनकी रिपोर्टों का उद्देश्य दर्शकों में जागरूकता फ़ैलाने, उन्हें आश्वस्त करने और इंसानी जज्बे के प्रति हौसला रखने के बजाय उन्हें डराने और बेबसी का अहसास कराने पर अधिक था.
आश्चर्य नहीं कि जल्दी ही कई हिंदी चैनलों पर जापानी सुनामी के बहाने महाप्रलय की पूर्व चेतावनियां, महाविनाश के पांच संकेत और २०१२ में दुनिया के खत्म होने सम्बन्धी निहायत ही अवैज्ञानिक, बे-सिरपैर के और डरावने विशेष कार्यक्रम चलने लगे. वैसे भी हिंदी चैनलों का यह प्रिय विषय है.
अकसर ही महाप्रलय और महाविनाश और इस तरह दुनिया के खत्म होने की विशेष रिपोर्टें चलती रहती हैं जिनमें कुछ फ़िल्मी और कुछ असली प्राकृतिक आपदाओं की फुटेज को मिक्स करके दर्शकों को डराने और चैनल से चिपकाने की कोशिश होती है.
चैनलों की ये रिपोर्टें और कार्यक्रम वास्तव में, दर्शकों के लिए मानव निर्मित आपदा से कम नहीं हैं. ऐसी रिपोर्टें प्राकृतिक आपदाओं को लेकर न सिर्फ वैज्ञानिक समझ का मजाक उड़ाती हैं बल्कि उस इंसानी जज्बे का भी अपमान करती हैं जो जापान और किसी भी अन्य देश में पुनर्निर्माण के लिए साहस, धैर्य और दृढ़ता के साथ दोबारा उठ खड़ा होती है.
यह सच है कि प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का वश नहीं है. कई मामलों में वे बताकर नहीं आती हैं. कुछ मामलों में उनका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. लेकिन अधिकांश मामलों में प्राकृतिक आपदाओं की मार इंसानी लापरवाही और भूलों के कारण कई गुना बढ़ जाती है.
वास्तव में, प्राकृतिक आपदाओं में होनेवाला धन-जन का भारी नुकसान प्राकृतिक आपदा के कारण कम और मानवीय लापरवाहियों और गलतियों के कारण ज्यादा होता है. यही कारण है कि अधिकांश प्राकृतिक आपदाएं काफी हद तक मानव निर्मित आपदाएं भी होती हैं.
अफसोस कि प्राकृतिक आपदाओं को मानव निर्मित आपदा बनाने में समाचार चैनलों की भूमिका भी बढ़ती जा रही है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि प्राकृतिक आपदाओं के समय न्यूज चैनलों से कहीं ज्यादा गंभीरता, प्रौढता, धैर्य, विवेक, संवेदनशीलता, वस्तुनिष्ठता, एक्यूरेसी और संपादकीय निगरानी की जरूरत होती है.
साफ है कि न्यूज चैनलों से ‘अज्ञात का भय’ बढ़ाने की नहीं कम करने की अपेक्षा होती है. लेकिन हो यह रहा है कि आपदाओं के वक्त चैनल और अधिक बेकाबू हो जा रहे हैं. इस मायने में, जापानी सुनामी आत्मावलोकन का मौका देती है. अकसर प्राकृतिक आपदाओं की मार झेलनेवाले देश के बतौर यह हमारे लिए सबक लेने का समय है कि आपदाओं की रिपोर्टिंग में कितनी अधिक संवेदनशीलता बरतने की जरूरत है.
(तहलका के ३१ मार्च के अंक में प्रकाशित )
समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के लिए प्राकृतिक आपदाओं से शायद ही कोई बड़ी खबर होती हो. उनमें होनेवाली धन-जन की भारी हानि के कारण लोगों की उनमें स्वाभाविक दिलचस्पी होती है. इतिहासकार और समाजशास्त्री भी मानते हैं कि ‘अज्ञात के भय’ से निपटने की जरूरत से ही ‘समाचार’ जानने-बताने की शुरुआत हुई.
तात्पर्य यह कि ‘समाचार’ के मूल में इंसान के अंदर बैठा वह ‘अज्ञात का भय’ है जिसके पूर्व ज्ञान से वह अपनी, अपने परिवारजनों और समुदाय के बचाव और उनकी हिफाजत करने में समर्थ हो पाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि प्राकृतिक आपदाओं से अधिक ‘अज्ञात का भय’ शायद ही कोई और हो?
आश्चर्य नहीं कि जापान में हालिया भूकंप और उसके बाद आई भयंकर सुनामी से हुई बर्बादी और तबाही की खबरें न सिर्फ भारतीय समाचार चैनलों में बल्कि पूरी दुनिया के मीडिया में छाई हुई हैं. जापान के ज्ञात इतिहास के सबसे बड़े भूकंप और उसके बाद आई भयंकर सुनामी ने जापान को ही नहीं, पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है.
हालांकि जापान के लिए भूकंप कोई नई बात नहीं हैं और यह उसकी पूर्व तैयारी ही थी जिसके कारण भारी तबाही और बर्बादी के बावजूद जनहानि उतनी नहीं हुई, जितनी २००४ की सुनामी के दौरान भारत, थाईलैंड और इंडोनेशिया सहित हिंद महासागर के कई देशों में हुई थी.
जापानी सुनामी और उसके साथ आई बर्बादी और तबाही ने भारतीयों को २००४ की सुनामी की याद दिला दी है. यह भी एक कारण है कि विश्व कप क्रिकेट के बुखार में डूबे होने के बावजूद चैनलों ने जापान के भूकंप और सुनामी को काफी कवरेज दी है.
स्वाभाविक तौर पर चैनलों पर विकराल सुनामी लहरों और उनके साथ आई तबाही की दहला देनेवाली फुटेज/तस्वीरें छाई हुई हैं. इन्हें देखकर सिहरन और लाचारी का अनुभव होता है. ये तस्वीरें खुद ही तबाही की दास्ताँ कहती हैं. सच पूछिए तो यहीं शायद शब्द बेमानी हो जाते हैं.
लेकिन चैनलों के लिए प्राकृतिक आपदा और उससे हुई तबाही की ये फुटेज/तस्वीरें सिर्फ खबर का हिस्सा भर नहीं हैं बल्कि उससे अधिक ज्यादा से ज्यादा दर्शक खींचने का जरिया बन गई हैं. हैरानी की बात नहीं है कि चैनलों पर खौफनाक सुनामी लहरों के साथ हो रही तबाही की फुटेज बार-बार दिखाई गईं. एक ही फुटेज को सुबह से शाम तक सैकड़ों बार रिपीट किया गया. यहां तक कि हर बुलेटिन में ये तस्वीरें बार-बार रिपीट हुईं. कई बार तो कुछ खास दृश्यों को उसी तरह रिपीट किया गया जैसे हिंदी धारावाहिकों में किया जाता है.
इससे कई बार यह आशंका होती है कि चैनल कहीं लोगों के डर, लाचारी और बेचैनी को भुनाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं. इस आशंका को इस तथ्य से और बल मिलता है कि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश चैनलों पर भूकंप और सुनामी से हुई तबाही के बारे में वस्तुनिष्ठ और तथ्यपूर्ण तरीके से खबरें देने और उसके वैज्ञानिक कारणों को स्पष्ट करने के बजाय ज्यादा जोर सनसनी, घबराहट और बेचैनी को बढ़ाने पर दिखाई पड़ा. उनकी रिपोर्टों का उद्देश्य दर्शकों में जागरूकता फ़ैलाने, उन्हें आश्वस्त करने और इंसानी जज्बे के प्रति हौसला रखने के बजाय उन्हें डराने और बेबसी का अहसास कराने पर अधिक था.
आश्चर्य नहीं कि जल्दी ही कई हिंदी चैनलों पर जापानी सुनामी के बहाने महाप्रलय की पूर्व चेतावनियां, महाविनाश के पांच संकेत और २०१२ में दुनिया के खत्म होने सम्बन्धी निहायत ही अवैज्ञानिक, बे-सिरपैर के और डरावने विशेष कार्यक्रम चलने लगे. वैसे भी हिंदी चैनलों का यह प्रिय विषय है.
अकसर ही महाप्रलय और महाविनाश और इस तरह दुनिया के खत्म होने की विशेष रिपोर्टें चलती रहती हैं जिनमें कुछ फ़िल्मी और कुछ असली प्राकृतिक आपदाओं की फुटेज को मिक्स करके दर्शकों को डराने और चैनल से चिपकाने की कोशिश होती है.
चैनलों की ये रिपोर्टें और कार्यक्रम वास्तव में, दर्शकों के लिए मानव निर्मित आपदा से कम नहीं हैं. ऐसी रिपोर्टें प्राकृतिक आपदाओं को लेकर न सिर्फ वैज्ञानिक समझ का मजाक उड़ाती हैं बल्कि उस इंसानी जज्बे का भी अपमान करती हैं जो जापान और किसी भी अन्य देश में पुनर्निर्माण के लिए साहस, धैर्य और दृढ़ता के साथ दोबारा उठ खड़ा होती है.
यह सच है कि प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का वश नहीं है. कई मामलों में वे बताकर नहीं आती हैं. कुछ मामलों में उनका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. लेकिन अधिकांश मामलों में प्राकृतिक आपदाओं की मार इंसानी लापरवाही और भूलों के कारण कई गुना बढ़ जाती है.
वास्तव में, प्राकृतिक आपदाओं में होनेवाला धन-जन का भारी नुकसान प्राकृतिक आपदा के कारण कम और मानवीय लापरवाहियों और गलतियों के कारण ज्यादा होता है. यही कारण है कि अधिकांश प्राकृतिक आपदाएं काफी हद तक मानव निर्मित आपदाएं भी होती हैं.
अफसोस कि प्राकृतिक आपदाओं को मानव निर्मित आपदा बनाने में समाचार चैनलों की भूमिका भी बढ़ती जा रही है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि प्राकृतिक आपदाओं के समय न्यूज चैनलों से कहीं ज्यादा गंभीरता, प्रौढता, धैर्य, विवेक, संवेदनशीलता, वस्तुनिष्ठता, एक्यूरेसी और संपादकीय निगरानी की जरूरत होती है.
साफ है कि न्यूज चैनलों से ‘अज्ञात का भय’ बढ़ाने की नहीं कम करने की अपेक्षा होती है. लेकिन हो यह रहा है कि आपदाओं के वक्त चैनल और अधिक बेकाबू हो जा रहे हैं. इस मायने में, जापानी सुनामी आत्मावलोकन का मौका देती है. अकसर प्राकृतिक आपदाओं की मार झेलनेवाले देश के बतौर यह हमारे लिए सबक लेने का समय है कि आपदाओं की रिपोर्टिंग में कितनी अधिक संवेदनशीलता बरतने की जरूरत है.
(तहलका के ३१ मार्च के अंक में प्रकाशित )
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