हथियार और फौज-फांटे से होगी देश की सुरक्षा या उसे चाहिए रोटी, रोजगार, स्कूल और अस्पताल?
कहने की जरूरत नहीं है कि सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह ने बहुत सोच-समझकर इस मुद्दे को उठाया है. वह जानते हैं कि यह एक बहुत संवेदनशील मुद्दा है जिसे उठाकर सरकार को घेरना और उसे रक्षात्मक स्थिति में खड़ा कर देना आसान है.
नतीजा सामने है. सरकार मिमिया रही है. सफाई दे रही है कि रक्षा तैयारियों से कोई समझौता नहीं किया जाएगा और सेनाओं के आधुनिकीकरण और हथियारों की खरीद के लिए पैसे की कमी नहीं होने दी जाएगी.
असल में, बजट भाषण में घोषित रक्षा बजट में रक्षा मंत्रालय और सेना के पेंशन के बजट को शामिल नहीं किया गया है. इन दोनों मदों का कुल बजट 44798 करोड़ रूपये है. अगर इसे आधिकारिक रक्षा बजट 193407 करोड़ में जोड़ दिया जाये तो वास्तविक रक्षा बजट उछलकर 238205 करोड़ रूपये तक पहुँच जाता है. यह जी.डी.पी का 2.3 फीसदी है.
कुछ तथ्यों पर गौर कीजिये, वे अपनी कहानी खुद कहते हैं. चालू वित्तीय वर्ष 12-13 के वास्तविक रक्षा बजट 238205 करोड़ रूपये की तुलना अगर मानव संसाधन (74056 करोड़), स्वास्थ्य (34488 करोड़), कृषि (27931 करोड़) और ग्रामीण विकास (76430 करोड़) के कुल बजट 212905 करोड़ रूपये से की जाये तो यह कुल रक्षा बजट का मात्र 89 फीसदी है. साफ है कि रक्षा देश की शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और ग्रामीण विकास पर भारी है.
यही नहीं, वर्ष 12-13 के वास्तविक रक्षा बजट 238205 करोड़ रूपये में अगर परमाणु उर्जा विभाग (7650 करोड़), बी.एस.एफ (8566 करोड़), आई.टी.बी.पी (2432 करोड़), असम राइफल्स (2966 करोड़) और एस.एस.बी (1899 करोड़) के बजट को जोड़ लिया जाये तो कुल रक्षा बजट तेजी से उछलकर 261718 करोड़ रूपये तक पहुँच जाता है जो कुल बजट का 17.55 फीसदी है.
पूछा जा सकता है कि परमाणु उर्जा से लेकर बी.एस.एफ जैसे अर्द्धसैनिक बालों के बजट को रक्षा बजट में जोड़ने के पीछे क्या तर्क है?
यह उसके पहले कार्यकाल (2004-09) के बीच पांच सालों में हथियारों की खरीद के कुल बजट 137496 करोड़ रूपये की तुलना में 91 फीसदी की बढोत्तरी दर्शाती है. आश्चर्य नहीं कि आज भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक बन गया है.
स्टाकहोम की संस्था सीपरी के मुताबिक, 2007-11 के बीच चार वर्षों में पूरी दुनिया में हथियारों की खरीद का 10 फीसदी हिस्सा अकेले भारत ने ख़रीदा.
“युद्ध (और रक्षा) का मुद्दा इतना अधिक
महत्वपूर्ण है कि उसे सैन्य जनरलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है.”
सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह और यू.पी.ए सरकार के
बीच कभी खुले और कभी छिपे युद्ध के मौजूदा माहौल में जब देश की रक्षा तैयारियों और
सेना के पास हथियारों की कमी का राष्ट्रीय रूदन तेज होने लगा है और चैनलों/अख़बारों
की बहसों में सेना के रिटायर्ड जनरल और रक्षा विशेषज्ञ छाने लगे हैं, पत्रकार और
१९०६ में फ़्रांस के प्रधानमंत्री जार्ज क्लीमेंसू की उपरोक्त पंक्तियाँ एक बार फिर
प्रासंगिक हो उठी हैं.
वह इसलिए कि सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह की प्रधानमंत्री को
लिखी चिठ्ठी से लेकर तमाम रिटायर्ड जनरल और रक्षा विशेषज्ञ इस बात पर एकमत दिख रहे
हैं कि देश की रक्षा तैयारियां संतोषजनक नहीं हैं, सेनाओं के पास हथियारों और
गोला-बारूद की कमी है और सेनाओं के आधुनिकीकरण पर पर्याप्त पैसा नहीं खर्च किया जा
रहा है.
इन बयानों का सीधा तात्पर्य यह है कि देश
सुरक्षित नहीं है और देश की सुरक्षा से समझौता किया जा रहा है. जाहिर है कि
यू.पी.ए सरकार जबरदस्त दबाव में है. वजह यह कि देश की सुरक्षा का सवाल हमेशा से
बहुत भावुक और तथ्यों और तर्कों से परे मुद्दा रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह ने बहुत सोच-समझकर इस मुद्दे को उठाया है. वह जानते हैं कि यह एक बहुत संवेदनशील मुद्दा है जिसे उठाकर सरकार को घेरना और उसे रक्षात्मक स्थिति में खड़ा कर देना आसान है.
नतीजा सामने है. सरकार मिमिया रही है. सफाई दे रही है कि रक्षा तैयारियों से कोई समझौता नहीं किया जाएगा और सेनाओं के आधुनिकीकरण और हथियारों की खरीद के लिए पैसे की कमी नहीं होने दी जाएगी.
हैरानी की बात नहीं है कि ऐसे समय में जब वित्त
मंत्री प्रणब मुखर्जी को बढ़ती सब्सिडी के बोझ के कारण नींद नहीं आ रही है और
बार-बार आमलोगों को कड़े फैसलों के लिए तैयार रहने को कहा जा रहा है, उस समय चालू
वित्तीय वर्ष (12-13) के आधिकारिक रक्षा बजट में पिछले साल के
संशोधित बजट अनुमान की तुलना में 17 फीसदी की वृद्धि
करते हुए 193407 करोड़ रूपयों का प्रावधान किया गया है.
यह देश के
कुल बजट का लगभग 13 फीसदी है. यही नहीं, इसमें अकेले हथियारों और
गोला-बारूद की खरीद के लिए 79578 करोड़ रूपयों का
आवंटन किया गया. पिछले वर्ष की तुलना में यह वृद्धि लगभग 20.3 फीसदी की है.
लेकिन चौंकानेवाला तथ्य यह है कि वास्तविक रक्षा
बजट इससे कहीं ज्यादा है. चालू वित्तीय वर्ष (12-13) में खुद वित्त
मंत्रालय के व्यय बजट भाग-2 के मुताबिक, कुल रक्षा बजट 193407 करोड़ रूपये के बजाय 238205 करोड़ रूपये है जो कुल बजट का लगभग 16 फीसदी है. इसका अर्थ यह हुआ कि इस साल केन्द्र
सरकार जो हर रूपया खर्च करेगी, उसमें से 16 पैसे रक्षा के मद
में जायेंगे. असल में, बजट भाषण में घोषित रक्षा बजट में रक्षा मंत्रालय और सेना के पेंशन के बजट को शामिल नहीं किया गया है. इन दोनों मदों का कुल बजट 44798 करोड़ रूपये है. अगर इसे आधिकारिक रक्षा बजट 193407 करोड़ में जोड़ दिया जाये तो वास्तविक रक्षा बजट उछलकर 238205 करोड़ रूपये तक पहुँच जाता है. यह जी.डी.पी का 2.3 फीसदी है.
हैरानी की बात यह है कि थोक के भाव में ‘लीक’ और
खोजी रिपोर्टों के दौर में इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया या फिर जान-बूझकर इस
मुद्दे पर चुप्पी साध रखी गई है. आखिर जिस देश में कोई 40 फीसदी लोगों को दोनों जून रोटी नहीं मिलती हो, 42 फीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हों, गुजरे पन्द्रह
सालों में डेढ़ लाख से ज्यादा किसानों ने कृषि संकट के कारण आत्महत्या की हो और ग्रामीण
इलाके में 22 रूपये और शहरी इलाके में 28 रूपये की गरीबी रेखा हो, वहाँ 238205 करोड़ रूपये रक्षा और हथियारों की खरीद पर खर्च
करने का औचित्य क्या हो सकता है?
इसके बावजूद देश की सुरक्षा की चिंता में दुबले
हुए जा रहे जनरलों और रक्षा विशेषज्ञों को रक्षा बजट से संतोष नहीं है. ‘ये दिल
मांगे मोर’ की तर्ज पर वे इसे नाकाफी बताते हुए सेनाओं के आधुनिकीकरण के बहाने चीन
के रक्षा बजट और हथियारों की खरीद से प्रतिस्पर्द्धा करने पर जोर दे रहे हैं. तर्क
दिया जा रहा है कि भारत रक्षा पर जी.डी.पी का सिर्फ 1.9 प्रतिशत खर्च कर रहा है जो ऊंट के मुंह में जीरे
के बराबर है.
लेकिन सच्चाई क्या है? सच यह है कि भारत पेट पर
पत्थर बांधकर रक्षा पर खर्च कर रहा है. आश्चर्य नहीं कि पिछले एक-डेढ़ दशक में देश
की रक्षा जरूरतों को पूरा करने के नाम पर कृषि, सिंचाई, शिक्षा, स्वास्थ्य,
सड़क-बिजली-पानी जैसी बुनियादी जरूरतों के बजट में कटौती की गई है या उन्हें
अपेक्षित बजट नहीं दिया गया है. कुछ तथ्यों पर गौर कीजिये, वे अपनी कहानी खुद कहते हैं. चालू वित्तीय वर्ष 12-13 के वास्तविक रक्षा बजट 238205 करोड़ रूपये की तुलना अगर मानव संसाधन (74056 करोड़), स्वास्थ्य (34488 करोड़), कृषि (27931 करोड़) और ग्रामीण विकास (76430 करोड़) के कुल बजट 212905 करोड़ रूपये से की जाये तो यह कुल रक्षा बजट का मात्र 89 फीसदी है. साफ है कि रक्षा देश की शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और ग्रामीण विकास पर भारी है.
यही नहीं, वर्ष 12-13 के वास्तविक रक्षा बजट 238205 करोड़ रूपये में अगर परमाणु उर्जा विभाग (7650 करोड़), बी.एस.एफ (8566 करोड़), आई.टी.बी.पी (2432 करोड़), असम राइफल्स (2966 करोड़) और एस.एस.बी (1899 करोड़) के बजट को जोड़ लिया जाये तो कुल रक्षा बजट तेजी से उछलकर 261718 करोड़ रूपये तक पहुँच जाता है जो कुल बजट का 17.55 फीसदी है.
पूछा जा सकता है कि परमाणु उर्जा से लेकर बी.एस.एफ जैसे अर्द्धसैनिक बालों के बजट को रक्षा बजट में जोड़ने के पीछे क्या तर्क है?
असल में, परमाणु उर्जा विभाग के बजट को परमाणु
हथियारों के विकास से अलग नहीं किया जा सकता है और उसका 75 फीसदी तक खर्च इस मद में होता है. इसी तरह
मुख्यतः देश की सीमाओं पर तैनात बी.एस.एफ से लेकर एस.एस.बी को भी रक्षा के दायरे
से बाहर नहीं रखा जा सकता है.
भले ही वे गृह मंत्रालय के अधीन काम करते हों और
उनका बजट गृह मंत्रालय के बजट से आता हो. लेकिन ईमानदारी की बात यह है कि वे
व्यापक तौर पर देश की सीमाओं की रक्षा में ही जुटे हैं, इसलिए उनका बजट रक्षा बजट
का ही हिस्सा माना जाना चाहिए.
इसी तरह हथियारों और गोला-बारूद की खरीद पर
होनेवाले खर्च को भी एक बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है. एक बार फिर
तथ्यों पर गौर कीजिये. यू.पी.ए-दो के कार्यकाल में पिछले चार बजटों (2009-2013) में रक्षा बजट में हथियारों और फ़ौज-फांटे की
खरीद के लिए कुल 262600 करोड़
रूपये दिए गए. यह उसके पहले कार्यकाल (2004-09) के बीच पांच सालों में हथियारों की खरीद के कुल बजट 137496 करोड़ रूपये की तुलना में 91 फीसदी की बढोत्तरी दर्शाती है. आश्चर्य नहीं कि आज भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक बन गया है.
स्टाकहोम की संस्था सीपरी के मुताबिक, 2007-11 के बीच चार वर्षों में पूरी दुनिया में हथियारों की खरीद का 10 फीसदी हिस्सा अकेले भारत ने ख़रीदा.
इसके बावजूद सेनाध्यक्ष
जनरल वी.के सिंह कह रहे हैं कि हथियारों और गोला-बारूद के मामले में सेना की हालत
खराब है तो सवाल उठता है कि क्या देश के स्कूलों-कालेजों, अस्पतालों को बंद करके
और कृषि से लेकर सड़क-बिजली-पानी आदि को भगवान भरोसे छोडकर उनका बचा-खुचा बजट भी
रक्षा और हथियारों की खरीद पर उड़ा दिया जाये?
क्या देश इसके लिए तैयार है? इसीलिए
रक्षा जैसे अत्यंत गंभीर मसले को जनरलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है और न ही
उसे रक्षा सौदों में घूस खाने वाले नेताओं और अफसरों की मर्जी पर छोड़ा जा सकता है.
समय आ गया है जब देश रक्षा बजट के एक-एक पाई का हिसाब जनरलों और नेताओं/अफसरों
दोनों से मांगे. भूलिए मत, देश अपना पेट काटकर रक्षा और हथियारों के लिए पैसे दे
रहा है.
('दैनिक भास्कर' के आप-एड पृष्ठ पर १० अप्रैल को प्रकाशित लेख..इस बहस में आपका स्वागत है...)
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