बिहार में 'खबर' का मतलब है: गा, गे और गी...और अहर्निश नितीश राग बज रहा है अखबारों और चैनलों में
इसी तरह राज्यों में सरकारों और मुख्यमंत्रियों के बदलने से भी कोई फर्क नहीं पडा और बिना किसी अपवाद के लगभग सभी राज्यों में सरकार और मुख्यमंत्री चाहे जिस पार्टी के हों, मीडिया मैनेजमेंट के तरीकों में कोई फर्क नहीं पड़ता है.
मीडिया को जो चाहिए, वह मिलता रहता है और बदले में मीडिया राज्य सरकारों और मुख्यमंत्रियों की चरण वंदना में लगे रहते हैं. जाहिर है कि यह एक दिन में नहीं हुआ है.
इस दौर में बिहार का न्यूज मीडिया और पत्रकार सामाजिक-धार्मिक आधारों पर बंट गए. इस कारण लालू प्रसाद को मीडिया को मैनेज करने के लिए बहुत कोशिश नहीं करनी पड़ी. मीडिया का एक हिस्सा जो उनका विरोधी था, उसे वह सवर्ण और सामाजिक न्याय विरोधी बताकर खारिज कर देते थे. यहाँ तक कि ईमानदार आलोचनाओं और रिपोर्टों को भी लालू प्रसाद सवर्ण पत्रकारों की साजिश घोषित कर देते थे.
बिना अपवाद के लगभग हर दिन न्यूज के पहले पन्ने और बुलेटिन की सुर्ख़ियों में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार छाए रहते हैं. उनकी सरकार की नई योजनाओं, घोषणाओं और पहलकदमियों की चर्चा रहती है. उन ख़बरों की संख्या और उन्हें मिलनेवाली जगह खासी बढ़ गई है जिनके आखिर में ‘गा, गे और गी’ होता है और जो बिहार में ‘विकास की गंगा बहाने’ में ‘नीतिश कुमार के विजन’ के गुणगान से भरे होते हैं.
यह कुछ वर्षों पहले तक अकल्पनीय था. पटना के पत्रकार अनौपचारिक चर्चाओं में बताते हैं कि नीतिश कुमार को अपनी रत्ती भर आलोचना भी मंजूर नहीं है. उन्हें अपने खुद के चेहरे से इतना प्यार है कि वह बिना अपवाद हर दिन अख़बारों के पहले पन्ने और क्षेत्रीय चैनलों की सुर्ख़ियों में अपना चेहरा जरूर देखना चाहते हैं. बिहार का मीडिया उन्हें निराश नहीं करता है.
वे स्थानीय मीडिया की इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठा रहे है कि सरकार राज्य की सबसे बड़े विज्ञापनदाता है. चूँकि बिहार के गरीब और निम्न आयवर्ग के पाठकों/दर्शकों में बड़े निजी/कारपोरेट विज्ञापनदाताओं की बहुत दिलचस्पी नहीं है और उनसे मिलनेवाले विज्ञापन से आय अपेक्षाकृत कम है, इसलिए राज्य के अख़बार/चैनल सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर हैं.
ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें अखबारों/चैनलों के प्रबंधन को असुविधाजनक पत्रकारों/संपादकों को बाहर करने या ट्रांसफर करने के लिए बाध्य किया गया है.
यही दौर था जब धीरे-धीरे पत्रकारिता और दलाली के बीच का फर्क मिटने
लगा. हालाँकि इस दौर में भी बहुसंख्यक पत्रकार सरकारों/नेताओं की चमचागिरी और
दलाली से दूर थे लेकिन उन्हें अपने ही अखबारों में किनारे कर दिया गया. यही नहीं,
जिन अखबारों और पत्रकारों ने इस प्रवृत्ति के खिलाफ खड़े होने और लड़ने की कोशिश की,
उन्हें डरा-धमका कर खासकर उनके विज्ञापन रोककर रास्ते पर लाने की कोशिश की गई.
लेकिन ज्यादातर मामलों में डराने-धमकाने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि मीडिया मालिक
और कुछ हद तक संपादक/पत्रकार भी पहले से ही इस को-आप्शन के लिए तैयार थे. यह
“मैत्री और को-आप्शन” यहाँ तक पहुँच गई कि कुछ राज्यों में संपादक और अखबार मालिक
शासक पार्टियों के कोटे से पार्टी सांसद के बतौर राज्यसभा और विधान परिषद भेजे
जाने लगे.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि यह बीमारी एक संक्रामक रोग की तरह सभी
राज्यों में फैलने लगी. देर-सबेर सभी अखबार और अब क्षेत्रीय/स्थानीय न्यूज चैनल भी
इस खेल में शामिल होते चले गए हैं. इसी तरह राज्यों में सरकारों और मुख्यमंत्रियों के बदलने से भी कोई फर्क नहीं पडा और बिना किसी अपवाद के लगभग सभी राज्यों में सरकार और मुख्यमंत्री चाहे जिस पार्टी के हों, मीडिया मैनेजमेंट के तरीकों में कोई फर्क नहीं पड़ता है.
मीडिया को जो चाहिए, वह मिलता रहता है और बदले में मीडिया राज्य सरकारों और मुख्यमंत्रियों की चरण वंदना में लगे रहते हैं. जाहिर है कि यह एक दिन में नहीं हुआ है.
दूसरी ओर, उस दौर में भी बिहार की पत्रकारिता एक हद तक खड़ी रही जब
अधिकांश राज्यों में मीडिया के सुर बदलने लगे थे और वह राज्य सरकारों के साथ ‘एम्बेड’
होने लगा था. यही कारण है कि लालू प्रसाद और बाद में राबड़ी देवी के मुख्यमंत्रित्व
काल के १५ वर्षों में आमतौर पर न्यूज मीडिया खासकर अखबारों में सरकार और लालू
प्रसाद की आलोचना और उनकी सरकार के कारनामों की खबरें ठीक-ठाक मात्रा में छप जाती
थीं.
कुछ अखबार और पत्रकारों ने तो उनके खिलाफ मोर्चा सा खोल दिया. शुरूआती वर्षों
में लालू प्रसाद ने इन आलोचनाओं की खास परवाह नहीं की लेकिन बाद के वर्षों में
उन्होंने भी मीडिया को साधने की खूब कोशिशें कीं. कुछ हद तक कामयाब भी रहे. उनके
जमाने में भी उनके प्रिय और अप्रिय पत्रकारों की चर्चाएँ कम नहीं थीं जिन्हें
ठीक-ठाक माल-मलाई मिली.
हालाँकि इस दौर में बिहार की पत्रकारिता में लालू प्रसाद मार्का
राजनीति के समर्थकों की कमी नहीं थी जो वैचारिक या सामाजिक आधारों पर उनका समर्थन
करते थे. इसी तरह उनके आलोचकों में भी ऐसे पत्रकार/संपादक काफी थे जो सामाजिक आधार
पर उनका अंध विरोध करते थे. इस दौर में बिहार का न्यूज मीडिया और पत्रकार सामाजिक-धार्मिक आधारों पर बंट गए. इस कारण लालू प्रसाद को मीडिया को मैनेज करने के लिए बहुत कोशिश नहीं करनी पड़ी. मीडिया का एक हिस्सा जो उनका विरोधी था, उसे वह सवर्ण और सामाजिक न्याय विरोधी बताकर खारिज कर देते थे. यहाँ तक कि ईमानदार आलोचनाओं और रिपोर्टों को भी लालू प्रसाद सवर्ण पत्रकारों की साजिश घोषित कर देते थे.
इस कारण उस दौर में बिहार के मीडिया पर एक अलग तरह का दबाव रहा.
उन्होंने मीडिया का मुंह बंद करने के लिए दाम, दंड और भेद तीनों का इस्तेमाल किया.
हालाँकि वह एक हद तक ही कामयाब हो पाए. लेकिन यह कहना पूरी तरह से सच नहीं है कि
नीतिश कुमार की तुलना में लालू प्रसाद के कार्यकाल में मीडिया ज्यादा स्वतंत्र था.
सच यह है कि नीतिश कुमार ने लालू प्रसाद के समय में शुरू हुई प्रक्रिया को उसके
तार्किक नतीजे तक पहुंचा दिया है. लेकिन नीतिश कुमार के मीडिया मैनेजमेंट के तौर
तरीकों में ऐसा कुछ नहीं है जिसका इस्तेमाल लालू ने नहीं किया या अन्य राज्यों में
दूसरे मुख्यमंत्री नहीं कर रहे हैं. अलबत्ता, नीतिश कुमार ने इस मीडिया मैनेजमेंट
को उसके उच्चतम स्तर तक पहुंचा दिया है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज बिहार में न्यूज मीडिया खासकर अखबार
और क्षेत्रीय चैनल पूरी तरह से गांधी जी के बंदरों की तरह ‘बुरा देखने, बुरा सुनने
और बुरा बोलने’ से परहेज करने लगे हैं. अख़बार और चैनल काफी हद तक ‘सैनिटाईज’
(धुले-पूछे) दिखते हैं. बिना अपवाद के लगभग हर दिन न्यूज के पहले पन्ने और बुलेटिन की सुर्ख़ियों में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार छाए रहते हैं. उनकी सरकार की नई योजनाओं, घोषणाओं और पहलकदमियों की चर्चा रहती है. उन ख़बरों की संख्या और उन्हें मिलनेवाली जगह खासी बढ़ गई है जिनके आखिर में ‘गा, गे और गी’ होता है और जो बिहार में ‘विकास की गंगा बहाने’ में ‘नीतिश कुमार के विजन’ के गुणगान से भरे होते हैं.
यह बिहार के स्थानीय मीडिया का ‘नीतिश (रीति) काल’ है. इसमें मीडिया
नीतिश सरकार का भोंपू बन गया है. उसपर पिछले छह-सात वर्षों से अहर्निश नीतिश राग
चल रहा है. इसमें प्रशंसा अधिक है और सवाल नहीं के बराबर. इसमें आलोचकों और विरोधी
सुरों के लिए जगह नहीं है.
इसमें बिहार की सच्चाइयों और वास्तविकताओं को अनदेखा
करने या उनपर पर्दा डालने की कोशिश साफ़ देखी जा सकती है. इक्का-दुक्का अखबार और
चैनल जो राज्य सरकार और मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की खुली चारण वंदना से बचने और
खुद को ‘निष्पक्ष’ दिखाने की कोशिश करते हैं वे भी इतनी सावधानी बरतते हैं कि
सरकार विरोधी या नीतिश कुमार की छवि को नुकसान पहुंचाने वाली खबरों/रिपोर्टों को
अंदर के पृष्ठों पर और अपेक्षाकृत कम जगह देकर छापा या दिखाया जाए.
रिपोर्टें हैं कि आमतौर पर उन खबरों या रिपोर्टों को दबाया जाता है,
अंदर के पन्नों पर धकेल दिया जाता है जिनसे नीतिश सरकार के दावों पर सवाल उठता है
या उनकी बहुत परिश्रम और सुनियोजित तरीके से गढ़ी गई छवि पर असर पड़ता है. यहाँ तक
कि पटना के अखबारों में पूर्णियां में गोलीकांड और पुलिस जुल्म की खबरें अंदर के
पन्नों पर छपीं. यह कुछ वर्षों पहले तक अकल्पनीय था. पटना के पत्रकार अनौपचारिक चर्चाओं में बताते हैं कि नीतिश कुमार को अपनी रत्ती भर आलोचना भी मंजूर नहीं है. उन्हें अपने खुद के चेहरे से इतना प्यार है कि वह बिना अपवाद हर दिन अख़बारों के पहले पन्ने और क्षेत्रीय चैनलों की सुर्ख़ियों में अपना चेहरा जरूर देखना चाहते हैं. बिहार का मीडिया उन्हें निराश नहीं करता है.
एक मायने में यह लालू प्रसाद के ‘मेगालोमैनिया’ (आत्ममुग्धता) का ही
ज्यादा बारीक संस्करण है. यह सच है कि बिहारी मीडिया का एक छोटा लेकिन प्रभावशाली
हिस्सा सचमुच में नीतिश कुमार के इस चेहरे को प्यार करता है. वह उनपर और उनकी
अदाओं पर फ़िदा है. वह उनमें बिहार की मुक्ति देखता है. उसे नीतिश कुमार में एक
वास्तविक नायक दिखता है.
इस प्रेम के कारण उसे उनमें या उनकी सरकार में कोई कमी
नहीं दिखती है या एक सच्चे प्रेमी की तरह वह उनकी कमियों/गलतियों/विफलताओं को
नजरंदाज करता है. इसमें कोई नई बात नहीं है लेकिन खास बात यह है कि नीतिश कुमार के
साथ बिहारी मीडिया का यह हनीमून काफी लंबा चल चुका है.
निश्चय ही, यह सिर्फ प्रेम नहीं है बल्कि अब इसमें लेनदेन की भी बड़ी
भूमिका हो गई है. असल में, बिहार
के न्यूज मीडिया को इस हद तक पालतू बनाने में उनकी सरकार ने मीडिया मैनेजमेंट की
किताबों के हर तौर-तरीके का इस्तेमाल किया है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है राज्य
सरकार के विज्ञापन. वे स्थानीय मीडिया की इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठा रहे है कि सरकार राज्य की सबसे बड़े विज्ञापनदाता है. चूँकि बिहार के गरीब और निम्न आयवर्ग के पाठकों/दर्शकों में बड़े निजी/कारपोरेट विज्ञापनदाताओं की बहुत दिलचस्पी नहीं है और उनसे मिलनेवाले विज्ञापन से आय अपेक्षाकृत कम है, इसलिए राज्य के अख़बार/चैनल सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर हैं.
बिहार सरकार स्थानीय मीडिया की इस कमजोरी को जानती और बखूबी इस्तेमाल
करती है. उसने बिहारी मीडिया को काबू में करने के लिए सरकारी विज्ञापनों को हथियार
की तरह इस्तेमाल किया है. इस विज्ञापन के लिए अखबारों/चैनलों के बीच इतनी
प्रतियोगिता है कि वे राज्य सरकार की हर उचित/अनुचित शर्त को स्वीकार करने के लिए
तत्पर रहते हैं.
इस कारण बिहारी न्यूज मीडिया बिहार सरकार के सुचना और जनसंपर्क
विभाग का एक एक्सटेंशन बनता जा रहा है. सरकारी विज्ञप्तियों को बिना काट-छांट के
जितनी जगह मिलती है, उससे किसी भी और राज्य के जनसंपर्क विभाग को रश्क हो सकता है.
यही नहीं, बिहारी मीडिया को नियंत्रित करने के लिए नीतिश सरकार एक और
रणनीति पर काम करती रही है. उसकी अख़बारों/चैनलों के प्रबंधन के सामने एक शर्त यह
भी रही है कि अखबारों/चैनलों के उन पत्रकारों को महत्वपूर्ण पदों या बीट से हटाया
जाए जिन्हें सरकार विरोधी माना जाता है या जो नीतिश कुमार के समर्थक नहीं हैं या
जिनकी लालू प्रसाद-रामविलास पासवान से नजदीकी रही है या जो स्वतंत्र माने जाते
हैं. ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें अखबारों/चैनलों के प्रबंधन को असुविधाजनक पत्रकारों/संपादकों को बाहर करने या ट्रांसफर करने के लिए बाध्य किया गया है.
यही नहीं, अखबारों/चैनलों में महत्वपूर्ण जगहों और बीटों पर भक्त
पत्रकारों को बैठाया गया है. यह अपेक्षाकृत एक नई परिघटना है. सरकार के प्रति
समर्पित और प्रतिबद्ध नौकरशाही के बाद अब प्रतिबद्ध पत्रकारों/संपादकों का युग
शुरू हो चुका है.
जाहिर है कि इसके कारण बिहार में न्यूज मीडिया न सिर्फ अपनी
पहरेदार (वाचडाग) की भूमिका को कुर्बान कर चुका है बल्कि पाठकों/दर्शकों को
वास्तविक और सही सूचनाएं देने से भी परहेज करने लगा है.
आश्चर्य की बात नहीं है कि
इसके कारण बिहार में न्यूज मीडिया की साख गिरी है. उसकी धार कमजोर हुई है और तेवर
मंद पड़ गया है. इसे अघोषित इमरजेंसी नहीं तो और क्या कहेंगे?
("कथादेश" और "समकालीन जनमत" के अप्रैल'१२ में प्रकाशित आलेख की दूसरी और अंतिम किस्त..आपकी टिप्पणियों का इंतजार है..)
1 टिप्पणी:
सार्थक और सामयिक प्रस्तुति, आभार.
मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" पर भी पधारें, आभारी होऊंगा .
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