गरीबी को सनसनी बनाकर पेश किया जा रहा है लेकिन सनसनी की उम्र बहुत छोटी होती है
अख़बारों और चैनलों पर देश में गरीबी घटने और गरीबों की संख्या में कमी आने की खबरें एक बार फिर सुर्ख़ियों में हैं. गरीबी घटने के योजना आयोग के दावे पर न्यूज मीडिया के बड़े हिस्से में खासकर गुलाबी अखबारों/चैनलों में स्वाभाविक तौर पर जश्न का माहौल है.
नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और तेज आर्थिक वृद्धि दर की भोंपू बन गई फील गुड पत्रकारिता के दौर में इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है. आखिर इन आर्थिक नीतियों की सफलता को साबित करने के लिए देश में गरीबी घटने और गरीबों की संख्या में कमी आने से बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है?
क्या आपने किसी अखबार/चैनल/पत्रिका में कृषि, गरीबी, भूख, श्रम या माइग्रेशन पर कोई सर्वे या सप्लीमेंट या कवर स्टोरी देखी है? सी.एस.डी.एस के एक सर्वे में यह पाया गया कि अंग्रेजी और हिंदी के छह बड़े अखबारों में ग्रामीण क्षेत्र से जुडी खबरों को दो से तीन फीसदी जगह मिलती है. चैनलों का हाल इससे भी बुरा है.
सनसनी हमेशा बड़े और गंभीर सवालों और मुद्दों को पीछे ढकेल देती है. आश्चर्य नहीं कि गरीबी के आकलन और उससे जुड़े व्यापक मुद्दों को न्यूज मीडिया में २२ रूपये और २८ रूपये प्रतिदिन की ग्रामीण और शहरी गरीबी रेखा तक सीमित कर दिया गया है. इससे सारा हंगामा गरीबों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति और उनकी वास्तविक समस्याओं के बजाय गरीबी रेखा पर केंद्रित हो गया.
यह दरिद्रता उनकी रिपोर्टिंग और उनके विश्लेषणों में भी झलकती है. हालाँकि इक्का-दुक्का अख़बारों/पत्रिकाओं में योजना आयोग के इन दावों पर गंभीर सवाल भी उठे और गरीबी रेखा की राजनीति को बे-पर्दा करने की कोशिश हुई लेकिन मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में फील गुड पत्रकारिता के दबदबे के आगे वे नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गए हैं.
('तहलका' के १५ अप्रैल के अंक में प्रकाशित आलेख)
अख़बारों और चैनलों पर देश में गरीबी घटने और गरीबों की संख्या में कमी आने की खबरें एक बार फिर सुर्ख़ियों में हैं. गरीबी घटने के योजना आयोग के दावे पर न्यूज मीडिया के बड़े हिस्से में खासकर गुलाबी अखबारों/चैनलों में स्वाभाविक तौर पर जश्न का माहौल है.
नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और तेज आर्थिक वृद्धि दर की भोंपू बन गई फील गुड पत्रकारिता के दौर में इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है. आखिर इन आर्थिक नीतियों की सफलता को साबित करने के लिए देश में गरीबी घटने और गरीबों की संख्या में कमी आने से बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है?
कहने की जरूरत नहीं है कि फील गुड पत्रकारिता को ऐसी खबरों और
रिपोर्टों का बेसब्री से इंतज़ार रहता है. इन खबरों और सुर्ख़ियों से माहौल खुशनुमा
बनता है. खुशनुमा माहौल बनाना अख़बारों/चैनलों की मजबूरी है.
असल में, नई
अर्थव्यवस्था फील गुड पर चलती है. इस अर्थव्यवस्था की जान अधिक से अधिक उपभोग में
है. माना जाता है कि उपभोक्ता अपनी जेब से पैसा उसी समय निकालता है, जब उसे माहौल
खुशनुमा दिखाई देता है.
माहौल खुशनुमा बनाने के लिए खुशखबर यानी फील गुड खबरें जरूरी
हैं. इससे वह उत्साहित होता है और नई-नई चीजें खरीदने के लिए प्रेरित होता है. उसे
कर्ज लेकर घी पीने में भी संकोच नहीं होता है.
जाहिर है कि उपभोग बढ़ने से अर्थव्यवस्था को गति मिलती है और कंपनियों
का मुनाफा बढ़ता है. कंपनियों का मुनाफा बढ़ता है तो कारपोरेट अख़बारों/चैनलों को
विज्ञापन मिलता है. इससे उनका भी मुनाफा बढ़ता है. इस तरह फील गुड पत्रकारिता में
अधिक से अधिक निवेश कारपोरेट मीडिया की मजबूरी और जरूरत दोनों है.
कहना न होगा कि
इसमें उसका निहित स्वार्थ है. आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों में देश में फील
गुड पत्रकारिता का न सिर्फ तेजी से विस्तार हुआ है बल्कि वह भारतीय पत्रकारिता की
मुख्यधारा बन गई है.
फील गुड पत्रकारिता के जलवे का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि
अखबारों/चैनलों में क्रिकेट, सिनेमा, फैशन, सेलिब्रिटीज से लेकर पांच सितारा
खान-पान, घूमना-फिरना, सजना-संवरना, फिटनेस, शापिंग और गैजगेट्स को मिलनेवाली जगह
बढ़ती जा रही है. अखबारों/चैनलों में इन्हें कवर करनेवाले रिपोर्टर्स की मांग खासी
बढ़ गई है.
वहीँ दूसरी ओर अखबारों/चैनलों में कृषि, श्रम, गरीबी-भूख, कुपोषण, माइग्रेशन
जैसे बीट या तो खत्म कर दिए गए हैं या उन्हें इकठ्ठा करके आर्थिक बीट देखनेवाले
रिपोर्टर को ‘इन्हें भी देख लेना’ के चलताऊ निर्देश के साथ थमा दिया गया है.
ऐसे में, हैरानी की बात नहीं है कि अख़बारों/पत्रिकाओं/चैनलों की
सेक्स, फैशन, ट्रेवल, शापिंग, प्रापर्टी पर सर्वे रिपोर्ट छापने में जितनी दिलचस्पी
होती है, उसकी पांच फीसदी भी कृषि, श्रम, गरीबी-भूख पर छापने में नहीं होती है.
क्या आपने किसी अखबार/चैनल/पत्रिका में कृषि, गरीबी, भूख, श्रम या माइग्रेशन पर कोई सर्वे या सप्लीमेंट या कवर स्टोरी देखी है? सी.एस.डी.एस के एक सर्वे में यह पाया गया कि अंग्रेजी और हिंदी के छह बड़े अखबारों में ग्रामीण क्षेत्र से जुडी खबरों को दो से तीन फीसदी जगह मिलती है. चैनलों का हाल इससे भी बुरा है.
साफ़ है कि फील गुड पत्रकारिता के दौर में न्यूज मीडिया के लिए गरीबी
कोई खबर नहीं है. गरीबों और उनके मुद्दों को मीडिया के हाशिए पर भी जगह नहीं मिलती
है क्योंकि माना जाता है कि उनका जिक्र भी उनके पाठकों/श्रोताओं यानी उपभोक्ताओं
के ‘बाईंग मूड’ को डिस्टर्ब या डिप्रेस कर सकता है. विज्ञापनदाता इसे पसंद नहीं
करते हैं.
कहा जाता है कि गरीबी-भूख, कुपोषण जैसे मुद्दे अप-मार्केट नहीं हैं या
वे उनके टी.जी (टारगेट ग्रुप) को लक्षित नहीं हैं. लेकिन यह फैसला संपादक नहीं
विज्ञापनदाता करते हैं. यही वजह है कि कारपोरेट मीडिया में जिस खबर/फीचर/रिपोर्ट
का कोई प्रायोजक नहीं है, वह कारपोरेट मीडिया के लिए खबर नहीं है.
लेकिन गरीबी और गरीबों के नाम से दूर भागनेवाला न्यूज मीडिया गरीबी
में कमी की खबर को लेकर बावला हुआ जा रहा है. हालाँकि इस विवादास्पद रिपोर्ट पर
न्यूज मीडिया में जश्न के बीच कुछ सवाल भी उठे लेकिन उन सवालों को जिस तरह से
उठाया गया है उसमें सनसनी ज्यादा है और गंभीरता कम. सनसनी हमेशा बड़े और गंभीर सवालों और मुद्दों को पीछे ढकेल देती है. आश्चर्य नहीं कि गरीबी के आकलन और उससे जुड़े व्यापक मुद्दों को न्यूज मीडिया में २२ रूपये और २८ रूपये प्रतिदिन की ग्रामीण और शहरी गरीबी रेखा तक सीमित कर दिया गया है. इससे सारा हंगामा गरीबों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति और उनकी वास्तविक समस्याओं के बजाय गरीबी रेखा पर केंद्रित हो गया.
दूसरे, हर सनसनी की उम्र बहुत छोटी होती है. एक नई सनसनी हमेशा उसकी
जगह लेने को तैयार रहती है. याद रहे कि गरीबी के बारे में योजना आयोग की ताजा
रिपोर्ट से पहले पिछले साल के मध्य में सुप्रीम कोर्ट में उसके हलफनामे पर ऐसी ही
सनसनी मची थी.
योजना आयोग के पैमाने का देश भर में विरोध भी हुआ लेकिन वास्तविक
मुद्दे और सवाल ज्यों के त्यों बने रहे. न्यूज मीडिया उसे जल्दी ही भूल गया. अब एक
बार फिर गरीबी में कमी की घोषणा को लेकर न्यूज मीडिया में एक ओर जश्न और दूसरी ओर
हंगामा मचा हुआ है, उसके शोर के बीच इस मुद्दे पर स्पष्टता कम और भ्रम ज्यादा बढा
है.
सच पूछिए तो देश में
गरीबी के आकलन के मुद्दे पर न्यूज मीडिया की रिपोर्टिंग की गरीबी साफ़ दिख रही है.
अधिकांश अखबारों/चैनलों में ऐसे रिपोर्टर/विश्लेषक नहीं हैं जो गरीबी के मुद्दे को
राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सन्दर्भों में स्पष्ट कर सकें. यह दरिद्रता उनकी रिपोर्टिंग और उनके विश्लेषणों में भी झलकती है. हालाँकि इक्का-दुक्का अख़बारों/पत्रिकाओं में योजना आयोग के इन दावों पर गंभीर सवाल भी उठे और गरीबी रेखा की राजनीति को बे-पर्दा करने की कोशिश हुई लेकिन मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में फील गुड पत्रकारिता के दबदबे के आगे वे नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गए हैं.
('तहलका' के १५ अप्रैल के अंक में प्रकाशित आलेख)
1 टिप्पणी:
सार्थक सृजन, आभार.
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