सुब्बाराव ने सरकार के दबाव में लिया है एक बड़ा जोखिम
असल में, सुब्बाराव अच्छी तरह से जानते हैं कि ब्याज दरों में कटौती के लिए खुद रिजर्व बैंक की यह शर्त अभी पूरी नहीं होती है कि मुद्रास्फीति दरों में उल्लेखनीय कमी आ गई हो. सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर न सिर्फ अभी भी ऊँची बनी हुई है बल्कि कीमतों पर दबाव बना हुआ है और मुद्रास्फितीय अपेक्षाएं बनी हुई हैं.
साफ़ है कि रिजर्व बैंक ने कारपोरेट क्षेत्र और मध्यम वर्ग को खुश करने के लिए यह जोखिम लिया है. हालाँकि इसके लिए तर्क यह दिया जा रहा है कि ब्याज दरों में वृद्धि के कारण अर्थव्यवस्था की विकास दर प्रभावित हो रही है.
खासकर औद्योगिक उत्पादन की दर में आई गिरावट का हवाला दिया जा रहा है जो संशोधित अनुमानों के मुताबिक, जनवरी में गिरकर मात्र १.१ फीसदी रह गई. यही नहीं, अप्रैल से फ़रवरी के बीच औद्योगिक उत्पादन की दर मात्र ३.५ प्रतिशत रह गई है.
इसका अर्थ यह हुआ कि रिजर्व बैंक अगले कुछ महीनों तक मुद्रास्फीति और आर्थिक वृद्धि के ट्रेंड को देखने के बाद ही ब्याज दरों में और कटौती या बढोत्तरी का फैसला करेगा. साफ़ है कि रिजर्व बैंक मौजूदा परिस्थितियों में इससे ज्यादा बड़ा दांव नहीं ले सकता था. यह मौद्रिक नीति की सीमा है.
असल में, अब यू.पी.ए सरकार को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी. वह ऊँची मुद्रास्फीति से लेकर गिरती आर्थिक वृद्धि की चुनौतियों से निपटने का जिम्मा रिजर्व बैंक के कंधे पर डालकर निश्चिंत नहीं हो सकती है.
रिजर्व बैंक ने स्पष्ट शब्दों में खतरे की घंटी बजा दी है. असल में, अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के मामले में सबसे बड़ी चुनौती बाह्य क्षेत्र से आ रही है. रिजर्व बैंक के मुताबिक, चालू खाते का घाटा बढ़कर जी.डी.पी के ४.३ फीसदी तक पहुँच गया है जो चिंता और खतरे की बात है.
इसलिए कि विदेशी मुद्रा के धीमे अंतर्प्रवाह के कारण इस घाटे की भरपाई मुश्किल दिख रही है. इससे डालर के मुकाबले रूपये की कीमत पर दबाव बढ़ सकता है और उसे सँभालने की कोशिश में विदेशी मुद्रा भण्डार में रिसाव तेज हो सकता है. इससे संकट बढ़ सकता है.
लेकिन क्या सरकार रिजर्व बैंक की इस चेतावनी को सुन रही है?
('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर १८ अप्रैल'१२ को प्रकाशित लेख)
रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव ने अपने
स्वभाव के विपरीत ब्याज दर में आधा फीसदी की कटौती का एलान करके एक बड़ा जोखिम लिया
है. अर्थशास्त्रियों से लेकर बैंकरों तक को यह उम्मीद नहीं थी कि मुद्रास्फीति के
खतरे के बने रहते रिजर्व बैंक ब्याज दरों में इतनी बड़ी कटौती कर सकता है.
ज्यादातर
विश्लेषकों को ब्याज दरों में एक चौथाई फीसदी से ज्यादा की कटौती की उम्मीद नहीं
थी जबकि कईयों को यह उम्मीद भी नहीं थी. खासकर सालाना कर्ज और मौद्रिक नीति की
घोषणा की पूर्व संध्या पर सोमवार को जारी रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में अर्थव्यवस्था
और उसमें भी मुद्रास्फीति और भुगतान संतुलन की बिगड़ती स्थिति को लेकर व्यक्त की गई
चिंताओं को देखते हुए इस बात की उम्मीद कम ही थी कि सुब्बाराव ब्याज दरों में कोई
बड़ी कटौती करेंगे.
लेकिन फूंक-फूंककर कदम उठानेवाले सुब्बाराव ने एक
झटके में ब्याज दरों में आधा फीसदी की कटौती करके एक दांव लिया है. हालाँकि
उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि निकट भविष्य में ब्याज दरों में और कटौती की कोई
उम्मीद नहीं है लेकिन इस कटौती से ऐसी उम्मीदों को बढ़ने से रोकना आसान नहीं होगा.
असल में, सुब्बाराव अच्छी तरह से जानते हैं कि ब्याज दरों में कटौती के लिए खुद रिजर्व बैंक की यह शर्त अभी पूरी नहीं होती है कि मुद्रास्फीति दरों में उल्लेखनीय कमी आ गई हो. सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर न सिर्फ अभी भी ऊँची बनी हुई है बल्कि कीमतों पर दबाव बना हुआ है और मुद्रास्फितीय अपेक्षाएं बनी हुई हैं.
उदाहरण के लिए, मार्च महीने में थोक मूल्य
सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर पिछले महीने की तुलना में मामूली गिरावट के
साथ ६.८९ फीसदी की ऊंचाई पर बनी हुई है. लेकिन उससे अभी अधिक चिंता की बात यह है
कि इसमें खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर पिछले महीने के ६.०७ प्रतिशत से उछलकर मार्च
में ९.९४ प्रतिशत पर पहुँच गई है.
खाद्य वस्तुओं की इस लगभग दोहरे अंकों की महंगाई
में सबसे अधिक योगदान सब्जियों, दूध, चावल, अण्डों, मछली आदि की कीमतों में तेज
वृद्धि का है. हालाँकि इस बीच, विनिर्मित वस्तुओं की महंगाई दर घटकर ४.७५ प्रतिशत
रह गई है लेकिन सुब्बाराव भी अच्छी तरह से जानते हैं कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई
दर से विनिर्मित वस्तुओं की महंगाई दर को प्रभावित होने में बहुत देर नहीं लगती
है.
इसके बावजूद रिजर्व बैंक के गवर्नर ने ब्याज दरों
में आधा फीसदी की कटौती का जोखिम लिया है तो उन्होंने खुशी-खुशी यह फैसला नहीं
किया है. उनका वश चलता तो रेपो और रिवर्स रेपो दरों में जून से पहले कोई कटौती
नहीं होती.
आख़िरकार जिस रिजर्व बैंक ने मार्च’२०१० से लेकर अक्टूबर’२०११ के बीच
डेढ़ साल से अधिक समय तक ऊँची मुद्रास्फीति से निपटने के लिए ब्याज दरों में १३ बार
से अधिक की बढोत्तरी की हो और पिछले छह महीनों से ब्याज दरों में कटौती की मांग को
नजरंदाज किया हो, उसके लिए यह फैसला निश्चित तौर पर बहुत मुश्किल था.
लेकिन यह
किसी से छुपा नहीं है कि सुब्बाराव पर ब्याज दरों में कटौती का जबरदस्त दबाव था. असल में, इस कटौती के लिए यू.पी.ए सरकार और खासकर
वित्त मंत्रालय बहुत बेचैन था. इस कटौती के जरिये वित्त मंत्रालय न सिर्फ कारपोरेट
क्षेत्र और कर्ज पर जीनेवाले मध्यम वर्ग को खुश करना चाहता है बल्कि अर्थव्यवस्था
को लेकर एक फील गुड माहौल बनाना चाहता है.
पिछले दो-ढाई सालों से लगातार ऊँची
महंगाई के कारण मध्यम वर्ग की यू.पी.ए सरकार से नाराजगी किसी से छुपी नहीं है.
लेकिन मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा ऊँची ब्याज दरों के कारण भी परेशान है जिसपर
मकान से लेकर अन्य उपभोक्ता सामानों खासकर कार कर्ज पर ऊँची ब्याज दरों के कारण
दोहरी मार पड़ रही है.
इसी तरह कारपोरेट क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा भी ब्याज की ऊँची
दरों के कारण निवेश के लिए सस्ता कर्ज नहीं जुटा पाने और दूसरी ओर, पिछले कर्जों
पर ब्याज के बढते बोझ के कारण घटते मुनाफे से बेचैन था.
कहने की जरूरत नहीं है कि ये दोनों वर्ग बहुत
मुखर हैं और नीति निर्माण में उन्हें अनदेखा करना किसी भी सरकार के लिए बहुत
मुश्किल है. यू.पी.ए सरकार पर भी दबाव था कि वह ब्याज दरों में कटौती के लिए
रिजर्व बैंक पर दबाव बनाए ताकि कारपोरेट क्षेत्र और मध्यम वर्ग पर से ब्याज का बोझ
कम किया जा सके. साफ़ है कि रिजर्व बैंक ने कारपोरेट क्षेत्र और मध्यम वर्ग को खुश करने के लिए यह जोखिम लिया है. हालाँकि इसके लिए तर्क यह दिया जा रहा है कि ब्याज दरों में वृद्धि के कारण अर्थव्यवस्था की विकास दर प्रभावित हो रही है.
खासकर औद्योगिक उत्पादन की दर में आई गिरावट का हवाला दिया जा रहा है जो संशोधित अनुमानों के मुताबिक, जनवरी में गिरकर मात्र १.१ फीसदी रह गई. यही नहीं, अप्रैल से फ़रवरी के बीच औद्योगिक उत्पादन की दर मात्र ३.५ प्रतिशत रह गई है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि बीते साल आर्थिक
वृद्धि की दर गिरी है. लेकिन इसके लिए सिर्फ ऊँची ब्याज दरें जिम्मेदार नहीं हैं.
इसके और भी कारण हैं जिनमें कई ढांचागत कारण ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. बिना उन्हें
ठीक किये सिर्फ ब्याज दरों में कटौती से आर्थिक वृद्धि दर को तेज करने का दांव
बहुत कारगर नहीं हो सकता है.
इसकी वजह यह है कि ब्याज दरों में सिर्फ आधा फीसदी की
कटौती से बहुत फर्क नहीं पड़नेवाला है. इससे अधिक से अधिक सिर्फ फील गुड का माहौल
बन सकता है. सस्ते कर्ज के जरिये निवेश और उपभोग को प्रोत्साहित करने और उसके
जरिये अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने के लिए ब्याज दरों में कम से कम डेढ़ से
दो फीसदी की कटौती जरूरी है.
लेकिन मुद्रास्फीति की मौजूदा ऊँची दर और कीमतों
पर जारी दबाव को देखते हुए इसकी उम्मीद कम है कि अगले छह महीनों में ब्याज दरों
में और कटौती होगी. सुब्बाराव ने भी ऐसी किसी सम्भावना से इनकार किया है. इसका अर्थ यह हुआ कि रिजर्व बैंक अगले कुछ महीनों तक मुद्रास्फीति और आर्थिक वृद्धि के ट्रेंड को देखने के बाद ही ब्याज दरों में और कटौती या बढोत्तरी का फैसला करेगा. साफ़ है कि रिजर्व बैंक मौजूदा परिस्थितियों में इससे ज्यादा बड़ा दांव नहीं ले सकता था. यह मौद्रिक नीति की सीमा है.
असल में, अब यू.पी.ए सरकार को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी. वह ऊँची मुद्रास्फीति से लेकर गिरती आर्थिक वृद्धि की चुनौतियों से निपटने का जिम्मा रिजर्व बैंक के कंधे पर डालकर निश्चिंत नहीं हो सकती है.
रिजर्व बैंक ने स्पष्ट शब्दों में खतरे की घंटी बजा दी है. असल में, अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के मामले में सबसे बड़ी चुनौती बाह्य क्षेत्र से आ रही है. रिजर्व बैंक के मुताबिक, चालू खाते का घाटा बढ़कर जी.डी.पी के ४.३ फीसदी तक पहुँच गया है जो चिंता और खतरे की बात है.
इसलिए कि विदेशी मुद्रा के धीमे अंतर्प्रवाह के कारण इस घाटे की भरपाई मुश्किल दिख रही है. इससे डालर के मुकाबले रूपये की कीमत पर दबाव बढ़ सकता है और उसे सँभालने की कोशिश में विदेशी मुद्रा भण्डार में रिसाव तेज हो सकता है. इससे संकट बढ़ सकता है.
लेकिन क्या सरकार रिजर्व बैंक की इस चेतावनी को सुन रही है?
('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर १८ अप्रैल'१२ को प्रकाशित लेख)
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