गुरुवार, नवंबर 24, 2011

लोकतंत्र पर हावी पूंजी

बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए जनहित की अनदेखी की जा रही है  

पहली किस्त

यू.पी.ए सरकार बहुत दबाव और जल्दी में दिखाई दे रही है. उसपर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी का जबरदस्त दबाव है जो सरकार से इस बात पर सख्त नाराज है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में उसने आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ खास नहीं किया है.

नतीजा, पिछले एक सप्ताह में उसने ताबड़तोड़ कई फैसले किये हैं जिनका एकमात्र मकसद बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करना है. उदाहरण के लिए, वित्त मंत्रालय ने खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) के विवादस्पद और राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय प्रस्ताव को हरी झंडी दे दी है.

इसी तरह, पेंशन फंड के बारे में संसद की स्थाई समिति की गारंटीशुदा आमदनी की सिफारिश को परे रखते हुए पी.एफ.आर.डी.ए कानून में संशोधन करके विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने के प्रस्ताव को कैबिनेट की मंजूरी दे दी गई है. साथ ही, आवारा विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए सरकारी प्रतिभूतियों और कारपोरेट बांडों में विदेशी निवेश की सीमा ५ अरब डालर बढाकर क्रमश: १५ और २० अरब डालर कर दी गई है.

इसके अलावा बड़े विदेशी निवेशकों (क्यू.एफ.आई) को शेयर बाजार में सीधे निवेश का रास्ता खोलने की तैयारी हो चुकी है. इससे पहले सरकार ट्रेड यूनियनों के विरोध के बावजूद विवादास्पद नई मन्युफैक्चरिंग नीति को मंजूरी दे चुकी है.

यही नहीं, एयरलाइंस उद्योग में विदेशी निवेश खासकर विदेशी एयरलाइनों के निवेश को भी इजाजत देने की तैयारी हो गई है. साफ है कि यू.पी.ए सरकार न सिर्फ देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करने की जल्दबाजी में है बल्कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति अपना समर्पण और भक्ति-भाव साबित करने पर भी तुल गई है.

सरकार की घबड़ाहट और जल्दबाजी समझी जा सकती है. असल में, मनमोहन सिंह सरकार देशी-विदेशी बड़ी पूंजी की बढ़ती नाराजगी से घबड़ाई हुई है. इन दिनों बड़ी पूंजी खुद संकट में और इससे बाहर निकलने के लिए बेचैन है.

उसे लगता है कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्रियों की आपसी लड़ाई, सरकार और कांग्रेस पार्टी के बीच खींचतान और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की राजनीतिक चुनौती में उलझकर यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ का शिकार हो गई है. इसके संकेत बड़ी पूंजी के मुखपत्र बन गए गुलाबी अखबारों से मिलते हैं जिनका दावा है कि न सिर्फ देशी-विदेशी बड़े कारोबारियों और उद्योगपतियों का देश की अर्थव्यवस्था में विश्वास कमजोर हुआ है बल्कि देश में ‘निवेश का माहौल’ खराब हो रहा है.

आमतौर पर बड़े उद्योगपति सार्वजनिक तौर पर राजनीतिक बयान देने से बचते हैं लेकिन पिछले छह महीनों में एक के बाद दूसरे उद्योगपति ने खुलकर सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ की आलोचना की है और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की अपील दोहराई है.

दरअसल, बड़ी पूंजी को यह आशंका सताने लगी है कि अगर यू.पी.ए सरकार ने आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण से जुड़े लेकिन वर्षों से फंसे, विवादस्पद और राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय कुछ बड़े नीतिगत फैसले तुरंत नहीं किये तो अगले छह महीनों में ये फैसले करने और मुश्किल हो जाएंगे.

इसकी वजह यह है कि अगर आनेवाले विधानसभा चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो केन्द्र की यू.पी.ए सरकार की हालत राजनीतिक रूप से काफी कमजोर हो जायेगी. दूसरी ओर, सरकार के तीन साल पूरे हो जाएंगे और तीन साल के बाद यूँ भी किसी सरकार के लिए राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय फैसले करना मुश्किल हो जाता है.

जाहिर है कि इस कारण देशी-विदेशी बड़ी पूंजी बहुत बेचैन है. उसे यू.पी.ए सरकार से बहुत उम्मीद थी. खासकर २००९ के चुनावों में वामपंथी पार्टियों की हार और यू.पी.ए की उनपर निर्भरता खत्म हो जाने के बाद बड़ी पूंजी की उम्मीदें बहुत बढ़ गईं थीं.

माना जाता है कि चुनाव जीतने के बाद पहले दो-ढाई सालों में सरकारें राजनीतिक रूप सख्त और अलोकप्रिय फैसले ले लेती हैं क्योंकि उसके बाद उनपर अगले चुनावों का राजनीतिक दबाव बढ़ने लगता है. लेकिन पिछले दो-ढाई वर्षों में यू.पी.ए सरकार एक के बाद दूसरे विवादों, भ्रष्टाचार के आरोपों और आपसी खींचतान में ऐसी फंसी कि वह बड़ी पूंजी की अधिकांश उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाई.

इससे बड़ी पूंजी की सरकार से निराशा बढ़ती जा रही है. उसके गुस्से का एक बड़ा कारण यह भी है कि पिछले दो-तीन वर्षों में देश भर में जहाँ भी बड़ी पूंजी ने नए प्रोजेक्ट शुरू करने की कोशिश की, चाहे वह कोई स्टील प्लांट हो, अल्युमिनियम प्लांट हो, बिजलीघर हो, न्यूक्लियर पावर प्लांट हो, सेज हो, आटोमोबाइल यूनिट हो या कोई रीयल इस्टेट परियोजना, उसे स्थानीय आम जनता का विरोध झेलना पड़ रहा है.

लोग अपने जमीन, जल, जंगल और खनिज संसाधनों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. इस कारण, बड़ी पूंजी न सिर्फ मन-मुताबिक प्रोजेक्ट नहीं लगा पा रही है बल्कि प्राकृतिक संसाधनों का पूरा दोहन नहीं कर पा रही है.

बड़ी पूंजी को उम्मीद थी कि सरकार उसे इस गतिरोध से निकालेगी. लेकिन उसकी यह उम्मीद भी पूरी होती नहीं दिखाई पड़ रही है. इससे बड़ी पूंजी और कारपोरेट जगत के गुस्से का अनुमान लगाया जा सकता है.

इस बीच, अजीम प्रेमजी, मुकेश अम्बानी और सुनील मित्तल जैसे बड़े उद्योगपतियों के बयानों ने सरकार की नींद उड़ा दी है. यह एक तरह से खतरे की घंटी थी. मनमोहन सिंह सरकार को लग गया कि अगर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए जल्दी से कुछ बड़े फैसले नहीं किये गए तो न सिर्फ सरकार चलाना मुश्किल हो जाएगा बल्कि सरकार खतरे में पड़ जायेगी.

इस डर से घबराई यू.पी.ए सरकार ने बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए पिछले एक सप्ताह में ऐसे कई बड़े नीतिगत फैसले किये हैं और आनेवाले दिनों में कई और करने जा रही है जिन्हें लेकर न सिर्फ व्यापक राजनीतिक सहमति नहीं है बल्कि उनका कई राजनीतिक दलों, जन संगठनों, ट्रेड यूनियनों, छोटे और खुदरा व्यापारियों के संगठनों द्वारा विरोध किया जा रहा है.

यही नहीं, इन फैसलों से देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को भले खूब फायदा हो लेकिन अर्थव्यवस्था और खासकर आम लोगों के रोटी-रोजगार पर बुरा असर पड़ने की आशंका है.

उदाहरण के लिए, खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रस्ताव को वित्त मंत्रालय की हरी झंडी को ही लीजिए. दुनिया भर के अनुभवों से साफ़ है कि खुदरा व्यापार में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आने से आम उपभोक्ताओं को कोई खास फायदा नहीं होता लेकिन उनकी आक्रामक रणनीति के कारण करोड़ों छोटे और मंझोले व्यापारियों की रोटी-रोजी खतरे में पड़ सकती है.

इसी तरह, नई मन्युफैक्चरिंग नीति और पेंशन फंड में सुधारों के नाम पर न सिर्फ श्रमिकों के हितों की बलि चढ़ाई जा रही है बल्कि लाखों लोगों की जीवन भर की कमाई को शेयर बाजार में उड़ाने का रास्ता साफ किया जा रहा है.


जारी...


('जनसत्ता' के नवम्बर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख की पहली किस्त)

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