गुरुवार, नवंबर 03, 2011

चैनलों के पीछे के चेहरों को देखिये..पूछिए, वे कैसे चल रहे हैं?

चैनलों के लिए सरकार और उद्योग से स्वतंत्र रेगुलेटर चाहिए


दूसरी और अंतिम किस्त


तथ्य यह है कि इस समय देश में कुल ७४५ केबल और सैटेलाईट चैनलों को प्रसारण के लिए लाइसेंस मिला हुआ है जिसमें कोई ३६६ चैनलों को ‘समाचार और सम-सामयिक’ चैनलों के बतौर लाइसेंस मिला हुआ है जबकि बाकी ३७९ गैर समाचार चैनलों की श्रेणी में आते हैं. साफ है कि कुल केबल और सैटेलाईट चैनलों में लगभग आधे समाचार चैनल हैं.

यह एक हैरान करनेवाली संख्या है. दुनिया के किसी भी देश में इतने न्यूज चैनल नहीं हैं. अगर यह मान भी लिया जाए कि इसमें कई चैनलों ने लाइसेंस भले न्यूज चैनल के बतौर लिया हो लेकिन वे २४x७ न्यूज चैनल नहीं हैं, उनके यहाँ न्यूज के एकाध बुलेटिन भर हैं और वे वास्तव में इन्फोटेनमेंट चैनल हैं, इसके बावजूद यह संख्या कई कारणों से हैरान करनेवाली है.


सबसे बड़ा सवाल यह है कि उनका बिजनेस माडल क्या है? उनमें किनका धन लगा है और वे चल कैसे रहे हैं? ये सवाल इसलिए जरूरी हैं कि इनमें से अधिकांश न्यूज चैनलों की आमदनी और राजस्व का कोई ज्ञात स्रोत नहीं दिखाई पड़ता है. जाहिर है कि आय का कोई स्रोत न होने के बावजूद इन चैनलों का चलना एक आश्चर्य है. इसका यह मतलब भी है कि इन्हें चलानेवाले किन्हीं और कारणों से इन्हें चला रहे हैं.

यह किसी से छुपा नहीं है कि न्यूज चैनल बिजनेस में कई चिट फंड, रीयल इस्टेट, शराब आदि के धंधे करनेवाली कंपनियों से लेकर प्रभावशाली नेताओं/अफसरों ने पैसा लगाया है और उनका मकसद पैसा कमाने से ज्यादा अपने वैध-अवैध धंधों को एक तरह का संरक्षण देना और सत्ता के केन्द्रों में अपनी पहुँच और हैसियत बढ़ाना है. इनमें से कई ब्लैकमेल और अन्य तरह के अपराधों में भी संलग्न पाए गए हैं.

जाहिर है कि इसका असर न्यूज चैनलों के कंटेंट से लेकर उनके कामकाज के तरीकों में भी दिखता है. इससे न्यूज चैनलों की दुनिया में एक अजीब तरह की अराजकता दिखाई पड़ती है. इससे दर्शकों में न्यूज चैनलों को लेकर खिन्नता, क्षोभ और नाराजगी बढ़ी है. यही नहीं, इस अराजकता, मनमानी और निहित स्वार्थी तत्वों के कारण न्यूज चैनलों खासकर न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोशियेशन (एन.बी.ए) की ओर से प्रस्तावित स्व-नियमन की व्यवस्था भी बहुत कारगर सिद्ध नहीं हो पाई है.

इसके कारण हाल के वर्षों में मीडिया समीक्षकों, बुद्धिजीवियों और सिविल सोसायटी के कुछ संगठनों की ओर से चैनलों के रेगुलेशन की मांग भी जोर पकड़ने लगी है. कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार चैनलों के इन्हीं अतिरेकों और विचलनों के खिलाफ आम दर्शकों के बीच बने नकारात्मक मूड का फायदा उठाने की कोशिश कर रही है.

निश्चय ही, न्यूज चैनलों के रेगुलेशन की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन रेगुलेशन का मतलब चैनलों की सम्पादकीय आज़ादी और उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना नहीं है. रेगुलेशन का मतलब यह भी नहीं है कि सारी ताकत सरकार और नौकरशाहों के हाथ में हो और वे चैनलों का कंटेंट तय करने लगें.

रेगुलेशन का मतलब सरकार और मीडिया उद्योग दोनों से स्वतंत्र और स्वायत्त एक ऐसे जनतांत्रिक निकाय का गठन है जो अभिव्यक्ति की आज़ादी और नागरिकों के जानने के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए पारदर्शी तरीके से चैनलों के कामकाज की निगरानी करे, उनके पत्रकारीय विचलनों-अतिरेकों पर अंकुश लगाये, जरूरत पड़ने पर दंडात्मक कार्रवाई भी करे और सबसे बढ़कर टी.वी उद्योग में बहुलता और विविधता की गारंटी के लिए कुछ बड़े मीडिया समूहों के बढ़ते वर्चस्व और एकाधिकार पर अंकुश लगाये.

लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार खुद न्यूज चैनलों के रेगुलेशन को लेकर बहुत ईमानदार और गंभीर नहीं है. अगर वह ईमानदार और गंभीर होती तो इन आधे-अधूरे और तदर्थ फैसलों, मनमाने नियमों और चैनलों के रेगुलेशन के अधिकार अपने हाथ में रखने के बजाय वास्तव में एक स्वतंत्र और स्वायत्त मीडिया रेगुलेशन प्राधिकरण के गठन की दिशा में आगे बढ़ती.

लेकिन ऐसी मंशा नहीं है. सच पूछिए तो उसे न्यूज चैनलों के पत्रकारीय अतिरेकों-विचलनों से कोई खास शिकायत नहीं है. न्यूज चैनल जब तक सिनेमा, क्रिकेट, सेलेब्रिटीज, कामेडी और क्राइम दिखाते रहे, राखी सावंत के लटकों-झटकों और नाग-नागिन के रहस्य में मस्त रहे और सनसनी के लिए टुटपुंजिया ‘खबरों’ के साथ खिलवाड़ करते रहे, सरकार को कोई परेशानी नहीं हुई.

कहने का मतलब यह कि जब तक न्यूज चैनल दर्शकों को उलझाये और सुलाये रहे, सरकार को उनसे कोई समस्या या शिकायत नहीं थी. लेकिन जैसे ही चैनलों ने भ्रष्टाचार-घोटालों के मामलों का भंडाफोड और उन्हें उछालना शुरू किया और अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हीरो बना दिया, सरकार का सिंहासन हिलने लगा और उसकी चिंता और नाराजगी बढ़ने लगी. उसे चैनलों की अराजकता, मनमानी और अतिरेक-विचलन दिखाई देने लगे और रेगुलेशन की जरूरत महसूस होने लगी.

इसके बाद भी सच्चाई यही है कि सरकार अभी भी चैनलों के स्वतंत्र और स्वायत्त रेगुलेशन व्यवस्था के लिए तैयार नहीं है. अगर ऐसा नहीं होता तो वह मनमाने तरीके से कार्यक्रम और विज्ञापन कोड के उल्लंघन की निगरानी और दण्डित करने का अधिकार अपने हाथों में रखने की कोशिश नहीं करती.


साफ है कि उसकी असली मंशा चैनलों की मौजूदा भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर अंकुश लगाने और उन्हें काबू में रखने की है. लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही बड़ा सच है कि नए प्रावधानों का विरोध कर रहे चैनल भी कोई अभिव्यक्ति की आज़ादी की हिफाजत के लिए नहीं लड़ रहे हैं और न ही उनकी प्रतिबद्धता दर्शकों के जानने के अधिकार की रक्षा करने में है.

तथ्य यह है कि उनके मालिकों के लिए यह एक धंधा भर है जिसके अलग-अलग मकसद हैं. उनमें से कई की पूंछ कई कारणों से सरकार के पांवों तले दबी है. आश्चर्य नहीं होगा, अगर उनमें से कई जल्दी सुधरे हुए दिखाई दें, कुछ अपने स्वर मद्धिम कर लें और कुछ सरकार का गुणगान करने लगें. सरकार ने सन्देश दे दिया है और देखना है कि इसमें कितने टिकते हैं?

समाप्त...

('कथादेश' के नवम्बर'११ अंक में इलेक्ट्रानिक स्तम्भ में प्रकाशित) 

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