अर्थनीति, राजनीति से मुक्त हो चुकी है और उसे निर्देशित कर रही है
दूसरी और आखिरी किस्त
ऐसा नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार इन खतरों से वाकिफ नहीं है. इसके बावजूद अगर वह जोखिम उठाने को तैयार है तो इसका सिर्फ एक कारण है. वह यह कि वह बड़ी पूंजी की नाराजगी का जोखिम नहीं उठाना चाहती है. इसके लिए वह कोई भी राजनीतिक कुर्बानी देने को तैयार है.
सरकार के इस रवैये का ही एक और उदाहरण यह है कि आसमान छूती महंगाई के बावजूद न सिर्फ पेट्रोल की कीमतें वि-नियमित की गईं बल्कि हर १५ दिनों दिनों पर कीमतें बढ़ाई गई. सरकार और कांग्रेस को पता है कि आम आदमी इस फैसले से नाराज है और इसकी उसे राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है.
इसके बावजूद सरकार अपने फैसले पर डटी हुई है. इससे पूंजीवादी जनतंत्र की असलियत का पता चलता है. यह कैसा जनतंत्र है कि इसमें जनता कुछ चाहती है और सरकार ठीक उसका उल्टा कर रही है. लेकिन यह कोई भारत तक सीमित परिघटना नहीं है.
यूरोप खासकर यूनान (ग्रीस), इटली, पुर्तगाल, स्पेन जैसे आर्थिक-वित्तीय संकट में फंसे देशों की सरकारें जनमत के खिलाफ जाकर बड़ी वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए किफ़ायतखर्ची उपायों का पूरा बोझ आम लोगों पर डालने पर तुली हैं. इन देशों में सड़कों पर हो रहे जबरदस्त प्रदर्शनों से साफ़ है कि आम लोग इन उपायों का समर्थन नहीं कर रहे हैं.
लेकिन सवाल यह है कि इसे जनतंत्र कैसे कहा जाए जिसमें सरकारें लोगों की इच्छाओं और मर्जी के खिलाफ जाकर फैसले कर रही हैं? याद कीजिये, हाल में यूनान के (अब पूर्व) प्रधानमंत्री जार्ज पापेंद्र्यु ने देश को दिवालिया होने से बचाने के लिए यूरोपीय संघ से मिलनेवाले बेलआउट पैकेज की शर्त के रूप में प्रस्तावित किफ़ायतखर्ची उपायों पर जब देश में जनमतसंग्रह कराने का एलान किया तो क्या हुआ था?
इस फैसले के खिलाफ न सिर्फ ब्रुसेल्स, बान से लेकर लन्दन और न्यूयार्क तक वित्तीय बाजारों में हंगामा मच गया बल्कि यूरोपीय संघ का पूरा राजनीतिक नेतृत्व किसी भी तरह से जनमतसंग्रह को टालने में जुट गया.
यह सबको पता था कि अगर जनमतसंग्रह हुआ तो लोग इन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं करेंगे. मजबूरी में पापेंद्र्यू अपनी बात वापस लेनी पड़ी. लेकिन इससे भी बात नहीं बनी और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. इसी तरह, इटली में बर्लुस्कोनी को हटाकर नई सरकार बनाई गई है जिसने बेलआउट पैकेज के बदले किफ़ायतखर्ची के कड़े उपाय लागू करने पर सहमति जताई है.
क्या यही ‘जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा’ शासन वाला लोकतंत्र है? साफ़ है कि इस पूंजीवादी उदार लोकतंत्र में जनता की इच्छा पर पूंजी की मर्जी ज्यादा भारी है. इसमें जनता के हितों के मुकाबले पूंजी के हितों को तरजीह दी जा रही है. यही कारण है कि जब भी दोनों में टकराव की स्थिति पैदा होती है तो पूंजी के हितों के आगे जनहित की कुर्बानी देने में देर नहीं लगती है.
इस मायने में पूंजीवाद और जनतंत्र परस्पर विरोधी विचार हैं. दरअसल, मार्क्स ने पूंजीवाद को एक ऐसी ‘स्वतः संचालित व्यवस्था’ बताया था जो अपने भागीदारों की इच्छा और समझ से स्वतंत्र परिचालित होती है.
तात्पर्य यह कि एक स्वतः संचालित व्यवस्था होने के कारण पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य के किसी ऐसे हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं होती है जो पूंजीवाद की स्वाभाविक गति को प्रभावित करे. लेकिन कोई भी लोकतंत्र तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं हो सकता, जिसमें लोगों की इच्छाओं के मुताबिक राजनीति और राज्य हस्तक्षेप न करे. लेकिन यहाँ तो राजनीति और राज्य के हाथ बांध दिए गए हैं और पूंजी को मनमर्जी की खुली छूट मिली हुई है.
याद रहे कि एकीकृत यूरोपीय आर्थिक संघ और एकल मुद्रा- यूरो के बुनियाद में यही विचार है जिसने अर्थनीति को राजनीति से पूरी तरह आज़ाद कर दिया. आर्थिक एकीकरण के लिए हुई मास्ट्रिख संधि में अर्थनीति तय करने के मामले में सदस्य राष्ट्रों के हाथ बांधते हुए इस व्यवस्था की गई है कि कोई देश पूर्वघोषित वित्तीय घाटे की सीमा को नहीं लांघ सकता है.
मतलब यह कि आमलोगों की जरूरत भी हो तो सरकारें एक सीमा से ज्यादा खर्च नहीं कर सकती हैं. आश्चर्य नहीं कि आज यूरो को बचाने के लिए राजनीति यानी लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की बलि चढाई जा रही है.
कहने की जरूरत नहीं है कि भारत भी उसी रास्ते पर है. पिछली एन.डी.ए सरकार ने विश्व बैंक-मुद्रा कोष और आवारा बड़ी पूंजी के दबाव में संसद में वित्तीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (एफ.आर.बी.एम) कानून पारित किया था जिसमें वित्तीय घाटे की सीमा तय की गई है. यह अर्थनीति के राजनीति के बंधन से आज़ाद होने का एक और सबूत है.
हैरानी की बात नहीं है कि एन.डी.ए के बाद सत्ता में आई यू.पी.ए सरकार ने सबसे पहला काम इस कानून को नोटिफाई करने का किया था. समझना मुश्किल नहीं है कि यू.पी.ए सरकार बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए राजनीतिक और आर्थिक नतीजों की परवाह किये बगैर जिस हड़बड़ी में फैसले कर रही है, उसकी जड़ें कहाँ हैं?
('जनसत्ता' के २३ नवम्बर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख का दूसरी और अंतिम किस्त)
दूसरी और आखिरी किस्त
ऐसा नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार इन खतरों से वाकिफ नहीं है. इसके बावजूद अगर वह जोखिम उठाने को तैयार है तो इसका सिर्फ एक कारण है. वह यह कि वह बड़ी पूंजी की नाराजगी का जोखिम नहीं उठाना चाहती है. इसके लिए वह कोई भी राजनीतिक कुर्बानी देने को तैयार है.
सरकार के इस रवैये का ही एक और उदाहरण यह है कि आसमान छूती महंगाई के बावजूद न सिर्फ पेट्रोल की कीमतें वि-नियमित की गईं बल्कि हर १५ दिनों दिनों पर कीमतें बढ़ाई गई. सरकार और कांग्रेस को पता है कि आम आदमी इस फैसले से नाराज है और इसकी उसे राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है.
इसके बावजूद सरकार अपने फैसले पर डटी हुई है. इससे पूंजीवादी जनतंत्र की असलियत का पता चलता है. यह कैसा जनतंत्र है कि इसमें जनता कुछ चाहती है और सरकार ठीक उसका उल्टा कर रही है. लेकिन यह कोई भारत तक सीमित परिघटना नहीं है.
यूरोप खासकर यूनान (ग्रीस), इटली, पुर्तगाल, स्पेन जैसे आर्थिक-वित्तीय संकट में फंसे देशों की सरकारें जनमत के खिलाफ जाकर बड़ी वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए किफ़ायतखर्ची उपायों का पूरा बोझ आम लोगों पर डालने पर तुली हैं. इन देशों में सड़कों पर हो रहे जबरदस्त प्रदर्शनों से साफ़ है कि आम लोग इन उपायों का समर्थन नहीं कर रहे हैं.
लेकिन सवाल यह है कि इसे जनतंत्र कैसे कहा जाए जिसमें सरकारें लोगों की इच्छाओं और मर्जी के खिलाफ जाकर फैसले कर रही हैं? याद कीजिये, हाल में यूनान के (अब पूर्व) प्रधानमंत्री जार्ज पापेंद्र्यु ने देश को दिवालिया होने से बचाने के लिए यूरोपीय संघ से मिलनेवाले बेलआउट पैकेज की शर्त के रूप में प्रस्तावित किफ़ायतखर्ची उपायों पर जब देश में जनमतसंग्रह कराने का एलान किया तो क्या हुआ था?
इस फैसले के खिलाफ न सिर्फ ब्रुसेल्स, बान से लेकर लन्दन और न्यूयार्क तक वित्तीय बाजारों में हंगामा मच गया बल्कि यूरोपीय संघ का पूरा राजनीतिक नेतृत्व किसी भी तरह से जनमतसंग्रह को टालने में जुट गया.
यह सबको पता था कि अगर जनमतसंग्रह हुआ तो लोग इन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं करेंगे. मजबूरी में पापेंद्र्यू अपनी बात वापस लेनी पड़ी. लेकिन इससे भी बात नहीं बनी और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. इसी तरह, इटली में बर्लुस्कोनी को हटाकर नई सरकार बनाई गई है जिसने बेलआउट पैकेज के बदले किफ़ायतखर्ची के कड़े उपाय लागू करने पर सहमति जताई है.
क्या यही ‘जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा’ शासन वाला लोकतंत्र है? साफ़ है कि इस पूंजीवादी उदार लोकतंत्र में जनता की इच्छा पर पूंजी की मर्जी ज्यादा भारी है. इसमें जनता के हितों के मुकाबले पूंजी के हितों को तरजीह दी जा रही है. यही कारण है कि जब भी दोनों में टकराव की स्थिति पैदा होती है तो पूंजी के हितों के आगे जनहित की कुर्बानी देने में देर नहीं लगती है.
इस मायने में पूंजीवाद और जनतंत्र परस्पर विरोधी विचार हैं. दरअसल, मार्क्स ने पूंजीवाद को एक ऐसी ‘स्वतः संचालित व्यवस्था’ बताया था जो अपने भागीदारों की इच्छा और समझ से स्वतंत्र परिचालित होती है.
तात्पर्य यह कि एक स्वतः संचालित व्यवस्था होने के कारण पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य के किसी ऐसे हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं होती है जो पूंजीवाद की स्वाभाविक गति को प्रभावित करे. लेकिन कोई भी लोकतंत्र तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं हो सकता, जिसमें लोगों की इच्छाओं के मुताबिक राजनीति और राज्य हस्तक्षेप न करे. लेकिन यहाँ तो राजनीति और राज्य के हाथ बांध दिए गए हैं और पूंजी को मनमर्जी की खुली छूट मिली हुई है.
याद रहे कि एकीकृत यूरोपीय आर्थिक संघ और एकल मुद्रा- यूरो के बुनियाद में यही विचार है जिसने अर्थनीति को राजनीति से पूरी तरह आज़ाद कर दिया. आर्थिक एकीकरण के लिए हुई मास्ट्रिख संधि में अर्थनीति तय करने के मामले में सदस्य राष्ट्रों के हाथ बांधते हुए इस व्यवस्था की गई है कि कोई देश पूर्वघोषित वित्तीय घाटे की सीमा को नहीं लांघ सकता है.
मतलब यह कि आमलोगों की जरूरत भी हो तो सरकारें एक सीमा से ज्यादा खर्च नहीं कर सकती हैं. आश्चर्य नहीं कि आज यूरो को बचाने के लिए राजनीति यानी लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की बलि चढाई जा रही है.
कहने की जरूरत नहीं है कि भारत भी उसी रास्ते पर है. पिछली एन.डी.ए सरकार ने विश्व बैंक-मुद्रा कोष और आवारा बड़ी पूंजी के दबाव में संसद में वित्तीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (एफ.आर.बी.एम) कानून पारित किया था जिसमें वित्तीय घाटे की सीमा तय की गई है. यह अर्थनीति के राजनीति के बंधन से आज़ाद होने का एक और सबूत है.
हैरानी की बात नहीं है कि एन.डी.ए के बाद सत्ता में आई यू.पी.ए सरकार ने सबसे पहला काम इस कानून को नोटिफाई करने का किया था. समझना मुश्किल नहीं है कि यू.पी.ए सरकार बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए राजनीतिक और आर्थिक नतीजों की परवाह किये बगैर जिस हड़बड़ी में फैसले कर रही है, उसकी जड़ें कहाँ हैं?
('जनसत्ता' के २३ नवम्बर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख का दूसरी और अंतिम किस्त)
1 टिप्पणी:
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें.
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