मंगलवार, नवंबर 15, 2011

संकट में ‘अच्छे दिनों के बादशाह’ और बेचैन सरकार

माल्या की मदद करके सरकार अपनी नाकामियों पर पर्दा डालना चाहती है 

कहते हैं समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता है और अच्छे दिन बीतते समय नहीं लगता है. खासकर अगर आप फिजूलखर्च, तड़क-भड़क और मनमाने फैसले लेने में यकीन रखते हों तो समझिए कि मुसीबत दरवाजे पर इंतज़ार कर रही है. लेकिन लगता है कि ‘अच्छे दिनों के बादशाह’ (किंग आफ गुड टाइम्स) को कारोबार का यह मामूली सबक याद नहीं रहा.

नतीजा, उनके भी बुरे दिन आ गए लगते हैं. खबर है कि देश की सबसे बड़ी शराब कंपनी यूनाइटेड ब्रूअरिज के मालिक और अरबपति विजय माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गई है.

माली हालत खराब होने के कारण देश की दूसरी सबसे बड़ी निजी एयरलाइन किंगफिशर को पिछले एक-डेढ़ सप्ताह में अपनी 250 से ज्यादा फ्लाईट रद्द करनी पड़ी है. पायलटों और कर्मचारियों को अक्टूबर महीने की तनख्वाह अभी नहीं मिली है. कंपनी पर बैंकों, तेल कंपनियों, एयरपोर्ट और लीजदाताओं का साढ़े सात हजार करोड़ रूपये से अधिक का बकाया है.

यही नहीं, किंगफिशर एयरलाइंस की पतली हालत का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि पिछले तीन वर्षों में उसे कोई 4700 करोड़ रूपयों का घाटा हुआ है. उसकी कुल परिसंपत्तियों के मुकाबले उसके कुल कर्ज का अनुपात 82 फीसदी तक पहुँच चुका है.

कंपनी की बिगड़ती माली हालत और भारी बकाए को देखते हुए तेल कंपनियों ने क्रेडिट पर तेल देना बंद कर दिया है जबकि उसे लीज पर विमान देनेवाली कम्पनियाँ भुगतान न होने के कारण अपने विमान वापस लेने लगी हैं.

यहाँ तक कि कंपनी के पास जहाजों के टायर बदलने के भी पैसे नहीं हैं. साफ है कि अगर यही हाल रहा तो अगले कुछ दिनों में किंगफिशर न सिर्फ दिवालिया हो जायेगी बल्कि उसे कर्ज देनेवाले बैंकों का पैसा भी डूब जाने का खतरा पैदा हो गया है.

ऐसे संकट में कंपनियों और उनके मालिकों को सरकार की याद आती है. आश्चर्य नहीं कि विजय माल्या भी सरकार और बैंकों का दरवाजा खटखटा रहे हैं. हालांकि वे किंगफिशर के लिए सरकार से बेलआउट मांग रहे हैं लेकिन यह स्वीकार करते हुए शरमा रहे हैं. उनका कहना है कि उन्हें बेलआउट नहीं चाहिए बल्कि वे बैंकों से सिर्फ कर्ज लेने की क्रेडिट सीमा बढ़ाने और मौजूदा कर्ज पुनर्गठित करने की अपील कर रहे हैं.

चूँकि बैंक किंगफिशर में पहले ही बहुत पैसा झोंक चुके हैं और इस साल उन्हें लगभग 1300 करोड़ रूपये के कर्ज को इक्विटी में बदलना और डूबती कंपनी 23 फीसदी की भागीदारी लेने पर मजबूर होना पड़ा, इसलिए बैंक और पैसा लगाने में हिचक रहे हैं.

लेकिन माल्या चाहते हैं कि बैंक एयरलाइन में और पैसा लगाएं. सवाल है कि बैंक एक डूबती कंपनी में पैसा क्यों लगाएं? किंगफिशर इस बुरी स्थिति में कैसे पहुंची? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? लेकिन उदारीकरण और निजीकरण के इस दौर में ऐसे सवाल पूछने का चलन बंद हो चुका है. ऐसे में, किस में यह साहस है कि वह निजी क्षेत्र वह भी माल्या जैसे ताकतवर उद्योगपति से ऐसे असुविधाजनक सवाल पूछे?

सरकार भी ये प्रश्न पूछने के लिए तैयार नहीं है. उल्टे ‘अच्छे दिनों के बादशाह’ की इस दयनीय स्थिति से उड्डयन मंत्री व्यालार रवि का दिल पसीज उठा है और उन्होंने माल्या की मदद के लिए वित्त मंत्री और पेट्रोलियम मंत्री से बात करने का वायदा किया है. खुद प्रधानमंत्री ने भी संकट में फंसी एयरलाइंस (किंगफिशर) की मदद के लिए ‘उपाय और संसाधन खोजने’ की बात कही है.

विडम्बना देखिए कि अभी कुछ महीनों पहले तक सरकारी एयरलाइन- एयर इंडिया की बदहाली के लिए सरकार की लानत-मलामत करते हुए निजी एयरलाइन कंपनियों की कार्यकुशलता, बिजनेस माडल और तेजतर्रार प्रबंधन का बखान किया जा रहा था. कहा जा रहा था कि सरकार एयरलाइन नहीं चला सकती और उसमें जनता का पैसा डूबाने से अच्छा होगा कि एयर इंडिया को भी किसी निजी एयरलाइन कंपनी को बेच दिया जाए.

कहते हैं कि विजय माल्या की एयर इंडिया पर लंबे समय से आँख लगी थी. आरोप तो यहाँ तक हैं कि किंगफिशर और दूसरी निजी एयरलाइंस को फायदा पहुंचाने के लिए सुनियोजित तरीके से एयर इंडिया को कमजोर और बर्बाद किया गया.

इसके बावजूद किंगफिशर डूब रही है. माल्या अपने को छोडकर बाकी सभी को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं. उनके मुताबिक, किंगफिशर की यह हालत विमानन क्षेत्र में लगनेवाले अत्यधिक टैक्स, अत्यधिक रेगुलेशन, महंगे ईंधन, डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमत और निजी विमान पर कंपनियों पर सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के नाम पर घाटे वाले रूटों पर उड़ानों की मजबूरी के चलते हुई है.

उनका यह भी तर्क है कि सिर्फ किंगफिशर ही नहीं, एयर इंडिया समेत सभी निजी एयरलाइंस की हालत खस्ता है. लब्बोलुआब यह कि एयरलाइंस उद्योग के मौजूदा संकट के लिए सरकार जिम्मेदार है और अब उसकी ही जिम्मेदारी है कि वह उन्हें इस संकट से निकालने के उपाय ढूंढे.

यह तर्क नया नहीं है. इसका सीधा सा मतलब यह है कि मुनाफे का निजीकरण और घाटे का सरकारीकरण. इस तरह जब और जहाँ मुनाफा हो तो वह निजी कंपनियों का और जब घाटा हो तो सरकार के मत्थे. याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी की यह सबसे खास पहचान रही है.

लेकिन मजे की बात यह है कि बात-बात में बाजार की दुहाई देनेवाले अपनी सुविधा और जरूरत के मुताबिक अपनी ही बातों को भूल जाते हैं. लेकिन उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि वे खुद बाजार में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करने और उसे अपना काम करने देने की वकालत करते रहे हैं.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि किंगफिशर की खराब माली हालत के लिए कोई और नहीं खुद उसका प्रबंधन जिम्मेदार है जिसने बाजार की अनदेखी करके एयरलाइन को मनमाने तरीके से चलाने की कोशिश की है. खुद बाजार के पैरोकार कहते रहे हैं कि बाजार किसी को नहीं बख्शता है. जाहिर है कि ‘अच्छे दिनों के बादशाह’ माल्या भी इसके अपवाद नहीं हैं.

सवाल यह है कि किंगफिशर और दूसरी निजी एयरलाइंस के मामले में भी बाजार को अपना काम क्यों नहीं करने दिया जा रहा है? अगर ये एयरलाइन्स वित्तीय रूप से व्यावहारिक नहीं रह गईं हैं तो इन्हें डूब जाने देना चाहिए. यह माल्या जैसे उद्योगपतियों के लिए एक सबक होगा.

लेकिन सरकार माल्या की मदद के लिए बेचैन है. माल्या के साथ जल्दी ही जेट के नरेश गोयल और स्पाइसजेट के कलानिधि मारन भी खड़े दिखाई देंगे. इस मदद के लिए तर्क गढे जा रहे हैं. ये तर्क नए नहीं हैं.

कहा जा रहा है कि निजी एयरलाइंस के फेल होने से हजारों कर्मचारियों की नौकरी खतरे में पड़ जायेगी, लाखों यात्रियों को परेशानी होगी, देश की छवि खराब होगी, निवेशकों का विश्वास टूट जाएगा और कारोबारी माहौल बिगड जाएगा. खुद माल्या ट्वीट कर रहे हैं कि दुनिया भर में संकट में पड़ी निजी एयरलाइनों को उनकी सरकारों ने खुलकर मदद की है.

यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है. असल में, सरकार माल्या की मदद के लिए इसलिए भी बेचैन है क्योंकि वह अपनी नाकामी को छुपाना चाहती है. सच यह है कि उड्डयन क्षेत्र के निजीकरण की उसकी नीति बुरी तरह फेल कर गई है. यही कारण है कि न सिर्फ किंगफिशर समेत अधिकांश निजी एयरलाइन्स बल्कि एयर इंडिया की भी हालत खस्ता है.

लेकिन इस नाकामी के लिए जिम्मेदार मंत्रियों और अफसरों के साथ-साथ निजी एयरलाइंस के मालिकों और प्रबंधकों को कटघरे में खड़ा करने और इस नीति पर पुनर्विचार करने के बजाय सरकार लीपापोती करने में जुट गई है.

चिंता की बात यह है कि सरकारी बैंकों को जबरन एक विफल कारोबार में पैसा झोंकने के लिए मजबूर किये जाने की तैयारी चल रही है. हैरानी की बात यह है कि अरबपति माल्या खुद अपना एक पैसा किंगफिशर में लगाने के लिए तैयार नहीं हैं. लेकिन वे चाहते हैं कि बैंक और पैसा लगाएं. माल्या मानें या न मानें लेकिन यह पिछले दरवाजे से बेलआउट है.

आखिर बैंकों का पैसा भी आम आदमी का पैसा है. उल्लेखनीय है कि खुद बैंकों की हालत अच्छी नहीं है. ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, अधिकांश बैंकों के नान परफार्मिंग एसेट (एन.पी.ए) यानी पैसे डूबने में बढोत्तरी हुई है. इस वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में शेयर बाजार में लिस्टेड बैंकों के एन.पी.ए में 33 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है और यह एक लाख करोड़ रूपये तक पहुँच गई है.

आशंका है कि अगले कुछ महीनों में ऐसे मामले और बढ़ेंगे. इसे देखते हुए मूडीज जैसी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी ने भारतीय बैंकों की रेटिंग घटा दी है. इसका अर्थ यह हुआ कि माल्या जैसों को उबारने की जल्दबाजी बैंकों को बहुत भारी पड़ सकती है. आश्चर्य नहीं होगा अगर जल्दी ही कई बैंक भी सरकार के दरवाजे बेलआउट की गुहार लगाते नजर आएं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे हालात में बैंकों के बेलआउट का मतलब प्रकारांतर से किंगफिशर जैसी कंपनियों के घाटे की भरपाई है. जाहिर है कि यह भरपाई आम आदमी की कीमत पर ही होगी. विडम्बना देखिए कि माल्या जैसे अमीरों की ऐश और मनमानियों का खामियाजा उस आम आदमी को उठाना होगा जिसके लिए हवाई यात्रा तो दूर, दो जून का भोजन भी सपना है.

(दैनिक 'नया इंडिया' में 15 नवम्बर को प्रकाशित संक्षिप्त लेख का पूरा हिस्सा)

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