गुरुवार, सितंबर 02, 2010

अपराध रिपोर्टिंग या चरित्र हत्या? पार्ट 1

अपराध रिपोर्टिंग में सूत्रों पर आधारित अपुष्ट, सनसनीखेज और गैर जिम्मेदार रिपोर्टिंग पर पाबन्दी क्या प्रेस की आज़ादी में हस्तक्षेप है या मीडिया के लिए अपने अंदर झांकने का मौका?

अपराध खासकर हाई प्रोफाइल अपराध की खबरों में समाचार मीडिया की अत्यधिक दिलचस्पी किसी से छुपी नहीं है. कई बार ऐसी खबरों के प्रति उसकी अति सक्रियता से ऐसा लगता है कि जैसे बिल्कुल लार टपकाते हुए उसे इसी खबर का इंतज़ार था. ऐसी किसी खबर की टोह मिलते ही वह किसी भूखे कुत्ते की तरह उसपर टूट पड़ता है. जाहिर है कि इस अति उत्साह और जल्दबाजी में और कई बार जानते-बूझते हुए भी वह ऐसी गलतियां-गडबडियां करता है जो खुद किसी अपराध से कम नहीं हैं. दिल्ली से सटे नॉएडा का बहुचर्चित आरुषि-हेमराज हत्याकांड भी एक ऐसा ही मामला था जिसे मीडिया खासकर चैनलों ने 24X7 अंदाज़ में कई सप्ताहों-महीनों तक दिखाया.

हालांकि इस चक्कर में समाचार मीडिया ने जिस तरह से पत्रकारीय उसूलों और नैतिकता को ताक पर रखते हुए आरुषि-हेमराज और आरुषि के पिता डा. राजेश तलवार, उनकी पत्नी नुपुर तलवार और यहां तक कि उनके दोस्तों के बारे में भी ऐसी-ऐसी अफवाहों, अपुष्ट, काल्पनिक, बे-सिर-पैर की और आधी-अधूरी खबरें दिखाई-छापीं कि जांच में गड़बड़झाले, आपराधिक लापरवाही और असंयमित बयानबाजी के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस के साथ-साथ मीडिया के गैर जिम्मेदार और लगभग लम्पट व्यवहार की भी खूब थू-थू हुई थी.

स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उस मामले में कोई ढाई महीने बाद जुलाई’2008 सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करके मीडिया में ऐसी गैर जिम्मेदार रिपोर्टिंग और खबरों के प्रकाशन-प्रसारण पर रोक लगाने का आदेश देना पड़ा था जिससे आरुषि-हेमराज और उनके परिवारजनों की चरित्र हत्या होती हो या जांच अनुचित रूप से प्रभावित होती हो. सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश सामान्य घटना नहीं थी. यह एक तरह से प्रेस की आज़ादी में हस्तक्षेप था. लेकिन उस फैसले के खिलाफ कहीं कोई खास आवाज़ नहीं उठी तो उसकी वजह खुद समाचार मीडिया था. सुप्रीम कोर्ट को आरुषि मामले में यह फैसला चैनलों और अख़बारों के अतिरेकपूर्ण, असंयमित, अशालीन, अश्लील और अपमानजनक रिपोर्टिंग के कारण करना पड़ा था जो मानहानि के दायरे में आने के साथ-साथ निजता के अधिकार के खुले उल्लंघन और मीडिया ट्रायल का बहुत ही फूहड़ उदाहरण था.

जाहिर है कि आरुषि-हेमराज हत्याकांड में मीडिया कवरेज को लेकर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश न सिर्फ एक सामयिक चेतावनी थी बल्कि आत्मालोचना का भी एक बेहतरीन मौका था. इसे एक सबक की तरह लिया जा सकता था. निश्चय ही, मीडिया के एक हिस्से में आत्ममंथन हुआ. कुछ चैनलों और संपादकों ने गलती भी मानी. उन्होंने इससे सबक भी लिया. न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन- एन.बी.ए ने ऐसे मामलों की कवरेज में बरती जानेवाली सावधानियों की एक गाइडलाइन भी जारी की. लेकिन लगता है कि मीडिया एक बड़े हिस्से ने इससे कोई खास सबक नहीं लिया. नतीजा सामने है.

आरुषि-हेमराज हत्याकांड को दो साल से अधिक हो गए लेकिन आरुषि मामले में समाचार मीडिया की अतिरिक्त दिलचस्पी और किसी सनसनीखेज ‘खबर’ या एक्सक्लूसिव की तलाश अब भी कम नहीं हुई है. हालांकि इस मामले की जांच कर रही सी.बी.आई की दूसरी टीम अभी भी अँधेरे में हाथ-पांव मार रही है. लेकिन चैनलों को चैन कहां है? इस हत्याकांड की दूसरी बरसी पर कई चैनलों और अख़बारों ने एक बार फिर जिस तरह की रिपोर्टिंग की है, वह न सिर्फ निराश करनेवाली है बल्कि उतनी ही गैर जिम्मेदार, असंयमित और आपत्तिजनक है जितनी दो साल पहले थी.

कुछ मामलों में तो यह पिछली बार से भी आगे निकल गई. आश्चर्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई के दूसरे सप्ताह में एक बार फिर हस्तक्षेप करते हुए टी.वी समाचार चैनलों और अख़बारों को न सिर्फ खबरें दिखाने-छापने में पर्याप्त सतर्कता बरतने की सलाह दी है बल्कि ऐसी खबरों के प्रकाशन-प्रसारण पर रोक लगा दी है जिनसे जांच प्रभावित होती हो या जिनसे पीड़ित, आरोपी या इससे जुड़े किसी भी व्यक्ति के सम्मान को चोट पहुंचती हो.

इस मामले में कोर्ट ने कुछ चैनलों और अख़बारों को नोटिस भी जारी किया है. जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट को दोबारा यह निर्देश देने के लिए इसलिए मजबूर होना पड़ा है क्योंकि मीडिया इस मामले में वही गलतियां दोहरा रहा था जो उसने दो साल पहले की थीं. इस बार भी कई चैनलों और अख़बारों ने आरुषि-हेमराज हत्याकांड में जारी सी.बी.आई जांच को केंद्रित करके कई बेसिर-पैर के ‘अनुमानों’ (स्पेकुलेटीव) पर आधारित रिपोर्टें दिखाई-छापीं. इन रिपोर्टों में गुमनाम ‘सी.बी.आई सूत्रों’ के हवाले से बताया गया था कि “आरुषि के मां-पिता एक बार फिर सी.बी.आई जांच के केन्द्र में हैं क्योंकि जांच एजेंसी को पक्का विश्वास है कि आरुषि के ४५ वर्षीय हेमराज से सम्बन्ध थे. एजेंसी का मानना है कि यह आनर किलिंग का ही मामला है.”

इन रिपोर्टों में आरुषि-हेमराज के बीच संबंध को लेकर सी.बी.आई सूत्रों के इस ‘विश्वास’ के पीछे सबसे बड़ा कारण यह बताया गया है कि हेमराज के खून की कुछ बूंदें आरुषि के तकिये पर मिली थीं. इस ‘सुबूत’ के आधार पर मीडिया रिपोर्टों में सी.सी.आई सूत्रों के हवाले से कहा गया कि “आरुषि के तकिये पर उसकी और हेमराज के खून की बूंदों के मिलने से पता चलता है कि उन दोनों की बिस्तर पर एक साथ ही हत्या कर दी गई.” यही नहीं, रिपोर्टों में नॉएडा पुलिस की पुरानी थियरी कि आरुषि-हेमराज की हत्या इसलिए की गई क्योंकि डा. तलवार ने उन्हें ‘कम्प्रोमाइजिंग तो नहीं लेकिन आपत्तिजनक स्थिति’ में देख लिया था, से एक कदम आगे बढ़कर संदेह की कोई गुंजाईश न छोडते हुए कहा गया कि “हेमराज के सिर पर पीछे से जबकि आरुषि के सिर पर सामने से हमला किया गया जिससे स्पष्ट है कि जब उनपर हमला हुआ, उस समय बिस्तर पर उनकी स्थिति क्या थी.”

साफ है कि सी.बी.आई के सूत्र चरित्र हनन में न सिर्फ नॉएडा पुलिस से भी आगे निकल गए बल्कि मीडिया ने भी इन अपुष्ट, मानहानिपूर्ण और मृतक के निजता के अधिकार का हनन करनेवाली रिपोर्टों को उछालकर एक तरह से उन्हें ‘विश्वसनीय’ बनाने की कोशिश की. हालांकि जिस ‘तथ्य’ के आधार पर यह साबित करने की कोशिश की गई, वह शुरू से ही विवादस्पद है. खुद सी.बी.आई की पहली जांच टीम ने इसे ख़ारिज करते हुए कहा था कि आरुषि के तकिये पर हेमराज के खून की बूंदों का मिलने से सिर्फ यह पता चलता है कि दोनों की हत्या एक ही हथियार से की गई. लेकिन अब तक अपराधी तक पहुँचने और ठोस सुबूत जुटाने में असफल रही सी.बी.आई अपनी नाकामी छुपाने के लिए मीडिया को चुनिन्दा तौर पर अपुष्ट और आधी-अधूरी ‘सूचनाएं’ लीक कर रही है जिनसे ऐसी ‘खबरों’ के लिए हमेशा लार टपकाता मीडिया ‘रसभरी, सनसनीखेज और उत्तेजक’ बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा है.
जारी....
(कथादेश, सितम्बर'10 )

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