मंगलवार, सितंबर 21, 2010

दंगों का अर्थशास्त्र

दंगों के लिए आर्थिक कारण भी जिम्मेदार हैं और दंगों से अर्थव्यवस्था को धक्का भी लगता है


दंगों का अपना एक अर्थशास्त्र भी होता है. हालांकि भारत में सांप्रदायिक दंगे मूलतः राजनीतिक कारणों से होते रहे हैं लेकिन हर छोटे-बड़े दंगे के पीछे मौजूद आर्थिक कारणों और दंगों के आर्थिक प्रभाव को अनदेखा कर पाना असंभव है. यहां तक कि आजादी के बाद देश के कई शहरों में होनेवाले दंगों में यह देखा गया है कि आर्थिक कारण ही सबसे प्रमुख थे जिनका दंगाइयों ने बहुत चतुराई से राजनीतिक इस्तेमाल किया. इसी तरह, कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश मामलों में दंगाइयों ने पीड़ित समुदाय के लोगों को सबसे अधिक चोट पहुंचने के लिए उनके आर्थिक आधार को ध्वस्त करने की कोशिश की. गुजरात में तो बाकायदा दंगों के बाद भी अल्पसंख्यक समुदाय को आर्थिक तौर पर पूरी तरह से बर्बाद करने के लिए उनके आर्थिक-व्यापारिक बायकाट का अभियान चलाया गया.

इसमें कोई शक नहीं है कि हर दंगा उस शहर के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने के साथ-साथ उसके आर्थिक ढांचे और संबधों को भी गहरा नुकसान पहुंचाता है. आमतौर पर एक बड़ा दंगा किसी शहर को आर्थिक तौर पर कई साल पीछे धकेल देता है. इसी तरह से देश में उन वर्षों में जब बड़े पैमाने पर दंगे हुए अर्थव्यवस्था को गहरा झटका लगा. आंकड़े इसकी गवाही देते हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि एक आम आर्थिक नियम के बतौर किसी भी अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने के लिए यह जरूरी है कि देश में शांति और अमन-चैन बना रहे. इसके बिना अर्थव्यवस्था में आम कारोबारी गतिविधियों में रुकावट पैदा होती है बल्कि देशी-विदेशी निवेशक भी नया निवेश करने से कतराते हैं.
लेकिन कई बार दंगे एक गतिरुद्ध अर्थव्यवस्था को भी संकेत देते हैं. अर्थव्यवस्था की गतिरुद्धता के कारण पैदा हुई अनिश्चितता, बेरोजगारी, अवसरों का अभाव, वंचना और आक्रोश सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक रूप से ऐसे ज्वलनशील कारक बन जाते हैं जिन्हें सांप्रदायिक संगठन अपने राजनीतिक उद्देश्यों के आसानी से इस्तेमाल कर ले जाते हैं. बहुतेरे विश्लेषकों का यह मानना है कि अहमदाबाद, भिवंडी, सूरत, मऊ जैसे शहरों में ७०-८० के दशकों और अहमदाबाद में फिर २००२ में हुए सांप्रदायिक दंगों के पीछे एक बड़ा कारण उन शहरों में टेक्सटाइल जैसे पारंपरिक उद्योगों की गतिरुद्धता और फैक्टरियों की बंदी से बेरोजगार हुआ श्रमिक वर्ग था जो कई कारणों से सांप्रदायिक संगठनों के उभार में खाद बन गया.

यही नहीं, कुछ मामलों में श्रमिकों की एकता को तोड़ने के लिए उद्योगपतियों ने सांप्रदायिक संगठनों और सांप्रदायिक गोलबंदी को प्रोत्साहित किया. उदाहरण के लिए मुंबई में ७० के दशक में मुंबई के उद्योगों में वामपंथी-समाजवादी विचारधारा से जुड़ी यूनियनों की ताकत को कमजोर करने के लिए उद्योगपतियों ने शिव सेना और उसकी यूनियनों को आगे बढ़ाया. शिव सेना ने श्रमिकों को पहले मराठी बनाम मद्रासी, फिर मराठी बनाम अन्य और अंतत: हिंदू बनाम मुस्लिम में बांटने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा. यह तथ्य किसी से नहीं छुपा है कि मुंबई में ८० के दशक में मजदूर नेता दत्ता सामंत के नेतृत्व में सूती मिलों के लाखों मजदूरों की सालों चली ऐतिहासिक हड़ताल को तोड़ने और मिलों की अरबों की जमीन को हड़पने के लिए उद्योगपतियों ने शिव सेना और अन्य सांप्रदायिक संगठनों का सहारा लिया था.

इसी तरह, कुछ अन्य मामलों में यह देखा गया कि सांप्रदायिक दंगों के लिए कुख्यात कुछ शहरों में दो प्रमुख संप्रदायों के व्यापारियों/कारोबारियों के बीच की आर्थिक प्रतिस्पर्धा भी कई बार दंगों में बदल गई. ऐसे कई मामलों में, दंगाइयों का मुख्य निशाना दुकानें, कारोबार, फैक्टरियां और उपकरण (जैसे करघे और पावरलूम आदि) बने. इसके जरिये किसी खास समुदाय को आर्थिक प्रतिस्पर्धा से बाहर करने की भी कोशिश की गई. १९८४ के सिख विरोधी दंगों में उनके कारोबार, दुकानों को भी लूटा-जलाया गया. कई शहरों में दंगाइयों का निशाना बने समुदायों को आर्थिक रूप से खड़ा होने में वर्षों लग गए.

यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि भारत में आजादी के बाद से १९९५ तक के बीच हुए सांप्रदायिक दंगों में से बहुलांश देश के सिर्फ चार राज्यों तक और उनमें भी ७० प्रतिशत से ज्यादा दंगे सिर्फ ३० शहरों तक सीमित रहे हैं. इनमें भी सिर्फ ८ शहर दंगों के लिए सबसे ज्यादा कुख्यात रहे हैं जिनमें मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, अहमदाबाद, वड़ोदरा, सूरत, अलीगढ जैसे शहर देश के सबसे प्रमुख औद्योगिक-आर्थिक केंद्र रहे हैं. इन शहरों में सांप्रदायिक दंगों का होना इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि दंगों के पीछे आर्थिक कारण भी महत्वपूर्ण हैं.

यहां एक और सवाल पर विचार जरूरी है कि क्या सांप्रदायिक दंगों के मुख्य केंद्र होने और उसके कारण हुई बर्बादी की वजह से ही तो उत्तर और पूर्वी भारत के कई शहर औद्योगिकीकरण की दौड़ में पीछे नहीं छूट गए? ध्यान रहे कि जब ८० के दशक के उत्तरार्ध और ९० के दशक की शुरुआत में दक्षिण भारत के राज्यों में नया निवेश हो रहा था, उत्तर भारत के राज्यों में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के कारण दंगे हो रहे थे. निश्चय ही, कई अन्य राजनीतिक-आर्थिक वजहों के अलावा उन दंगों और उनके कारण पैदा हुई अशांति ने भी निवेशकों को दक्षिण भारत की ओर जाने के लिए प्रेरित किया होगा.

(राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप,जून)

कोई टिप्पणी नहीं: